अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 22/ मन्त्र 1
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - सूर्यः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - हृद्रोगकामलाशन सूक्त
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अनु॒ सूर्य॒मुद॑यतां हृद्द्यो॒तो ह॑रि॒मा च॑ ते। गो रोहि॑तस्य॒ वर्णे॑न॒ तेन॑ त्वा॒ परि॑ दध्मसि ॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑ । सूर्य॑म् । उत् । अ॒य॒ता॒म् । हृ॒त्ऽद्यो॒त: । ह॒रि॒मा । च॒ । ते॒ । गो: । रोहि॑तस्य । वर्णे॑न । तेन॑ । त्वा॒ । परि॑ । द॒ध्म॒सि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अनु सूर्यमुदयतां हृद्द्योतो हरिमा च ते। गो रोहितस्य वर्णेन तेन त्वा परि दध्मसि ॥
स्वर रहित पद पाठअनु । सूर्यम् । उत् । अयताम् । हृत्ऽद्योत: । हरिमा । च । ते । गो: । रोहितस्य । वर्णेन । तेन । त्वा । परि । दध्मसि ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
रोगनाश के लिये उपदेश।
पदार्थ
(ते) तेरे (हृद्-द्योतः) हृद्य की सन्ताप [चमक] (च) और (हरिमा) शरीर का पीलापन (सूर्यम् अनु) सूर्य के साथ-साथ (उद्-अयताम्) उड़ जावे। (रोहितस्य) निकलते हुए लाल रङ्गवाले (गोः) सूर्य के (तेन) प्रसिद्ध (वर्णेन) रङ्ग से (त्वा) तुझको (परि) सब प्रकार से (दध्मसि) हम पुष्ट करते हैं ॥१॥
भावार्थ
प्रातः और सायंकाल सूर्य की किरणें तिरछी पड़ने से रक्तवर्ण दीखती हैं और वायु शीतल, मन्द, सुगन्ध चलता है। उस समय मानसिक और शारीरिक रोगी को सद्वैद्य वायुसेवन और औषधिसेवन करावें, जिससे वह स्वस्थ हो जाये और रुधिर के संचार से उसका रङ्ग रक्तसूर्य के समान लाल चमकीला हो जाये ॥१॥ १−(गौः) सूर्य है, वह रसों को ले जाता [और पहुँचाता] है और अन्तरिक्ष में चलता है−निरु० २।१४ ॥ २−मनु महाराज ने भी दो सन्ध्याओं का विधान [स्वस्थता के लिये] किया है−मनु, अ० २ श्लो० १०१ ॥ पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत् सावित्रीमार्कदर्शनात्। पश्चिमां तु समासीनः सम्यगृक्षविभावनात् ॥१॥ प्रातःकाल की सन्ध्या में गायत्री को जपता हुआ सूर्यदर्शन होने तक स्थित रहे और सायंकाल की सन्ध्या में तारों के चमकने तक बैठा हुआ ठीक-ठीक जप करे ॥
टिप्पणी
१−अनु। अनुर्लक्षणे। पा० १।४।८४। लक्षणेऽर्थे अनोः कर्मप्रवचनीयत्वम्। कर्मप्रवचनीययुक्ते द्वितीया। पा० २।३।८। इति सूर्यशब्दस्य द्वितीया। लक्षीकृत्य सूर्यम्। १।३।५। लोकप्रेरकम्। आदित्यम्। उत्+अयताम्। अय गतौ। अनुदात्तेत्त्वाद् आत्मनेपदम्। उद्गच्छतु, विनश्यतु, इति यावत्। हृद्-द्योतः। द्युत दीप्तौ−भावे घञ्। हृदयस्य सन्तापः। हरिमा। वर्णदृढादिभ्यः ष्यञ् च। पा० ५।१।१२३। इति हरित्−भावे इमनिच्। यचि भम्। पा० १।४।१८। इति भसंज्ञायाम्। टेः। पा० ६।४।१४३। इति टिलोपः। चितः। पा० ६।१।१६३। इति अन्तोदात्तः। कामिलादिरोगजनितः शारीरो हरिद्वर्णः। गोः। पुंलिङ्गम्। गर्मेडोः। उ० २।६७। गम्लृ गतौ-डो। गौरादित्यो भवति, गमयति रसान् गच्छत्यन्तरिक्षे−इति भगवान् यास्कः−निरु० २।१४। आदित्यस्य, सूर्यस्य। रोहितस्य। रुहे रश्च लो वा। उ० ३।९४। इति रुह जन्मनि प्रादुर्भावे च−इतन्। प्रादुर्भूतस्य, उदितस्य। प्रभातकाले रक्तवर्णस्य। वर्णेन। वर्ण शुक्लादिवर्णकरणे दीपने च−घञ्। रागेण, रञ्जनेन। रूपेण। दध्मसि। दध्मः पोषयामः ॥
विषय
की 'हदयरोग व हरिमा' का हरण
पदार्थ
१. रोगों की चिकित्सा करके वृद्धि करनेवाला 'ब्रह्मा' प्रस्तुत सूक्त का ऋषि है [वृहि वृद्धौ]। इस सूक्त का साक्षात् करके यह सूर्य-किरणों के महत्त्व को व्यक्त करते हुए कहता है (अनुसूर्यम्) = सूर्योदय के साथ (ते) = तेरी (हृद्योतः) = हृदय की जलन (च) = तथा (हरिमा) = रक्त की कमी से हो जानेवाला पीलापन (उद् आयताम्) = बाहर चला जाए। सूर्य की किरणों को छाती पर लेने से तेरा हृदय-रोग और पीलिया दोनों ही समाप्त होंगे। २. इसी उद्देश्य से (रोहितस्य) = लाल वर्ण की (गो:) = सूर्य-किरणों के (तेन वर्णेन) = उस लोहित वर्ण से (त्वा) = तुझे (परिदध्मसि)= -चारों ओर से धारित करते हैं। 'तेरे चारों ओर सूर्य की लाल किरणें हों' ऐसी व्यवस्था करते हैं। इनका शरीर पर ऐसा प्रभाव होगा कि तेरा हृदयरोग भी दूर होगा और रक्त की कमी भी दूर होकर हरिमा का नाश हो जाएगा। ।
भावार्थ
प्रात: सूर्य की अरुण वर्ण की किरणों को शरीर पर लेने से हृद्रोग व हरिमा दूर हो जाते हैं।
भाषार्थ
(अनु सूर्यम् ) सूर्य के उदय तथा अस्त होने के अनुसार (ते) तेरा (हृद्-द्योतः)हृदय का सन्ताप, (च) और (हरिमा) पीलापन अर्थात् कामला रोग [ये दोनों] (उदयताम् ) उड़ जाएँ । (तेन) उस ( रोहितस्य गोः वर्णेन) लाल सूर्य के वर्ण द्वारा (त्वा) तुझे ( परिदध्मसि) हम ढॉपते हैं।
टिप्पणी
[गो:=आदित्योऽपि गौरुच्यते "उतादः परुषे गवि" (ऋ० ६।५६।३); तथा (निरुक्त २ २।६)। प्रातः तथा सायम् सूर्य की रश्मियाँ लाल होती हैं, यथा (अथर्ववेदभाष्य २।३२।१)। हृद्-्द्योतः, हरिमा =ये दोनों रोग हृदय के खून की विकृति के कारण होते हैं।
विषय
हृद्रोग और कामला की चिकित्सा।
भावार्थ
हे व्याधित पुरुष ! (ते) तेरा ( हृद्-द्योतः ) हृदय का चमकना और ( हरिमा च ) शरीर के चक्षु, नख आदि में व्याप्त हरावर्ण ( सूर्यम्) सूर्य के ( अनु ) उदय होने के साथ ही ( उद्अयताम् ) उठ जाये, नाश हो जाय । ( गोः ) सूर्य की किरण के ( रोहितस्य ) लाल रंग की किरण या सूर्य अथवा शाल्मली वृक्ष के ( वर्णेन ) रोगनाशक गुण या पुष्प, फल, रस से ( त्वा ) तुझको ( परि दध्मसि ) पुष्ट करते हैं ।
टिप्पणी
इस मन्त्र में सूर्य को रक्त वर्ण की किरणों को हृद्रोग या पाण्डुरोग के नाश करने के लिये प्रयोग करने का उपदेश है। लाल गौ का दूध पीना उसके लाल लोमों से छानकर पानी पीना तथा लाल गौओं का स्पर्श आदि इस रोग में लाभकारी है। इसी प्रकार क्रोमियोलोजी या सूर्य किरण-वर्ण चिकित्सा के अनुसार भी हरित वर्ण या कामला और हृद्रोग के रोगी को सूर्य की किरणों में रखे लाल काच के पात्र में धरे जलको पिलाने आदि का उपदेश है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः । सूर्यो मन्त्रोक्तो हरिमा हृद्रोगश्च देवता। अनुष्टुप् छन्दः। चतुर्ऋचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Heart Trouble and Jaundice
Meaning
Let your heart trouble and paleness of body (anaemia) go off by the rising sun. We wrap you round with the crimson red of sun rays and feed you on the fruit and flowers of shalmali, the silk-cotton tree (salmalia malabarica).
Subject
Sirya and Cure for Jaundice
Translation
May your sore-sickness and yellowness disappear when exposed to the Sun. We have enclosed and surrounded you with the ruddy radiations of the Sun
Translation
O patient! let your heart irritants and yellowness of the body flee away from you as the Sunrises. We, the physicians cover you for cure with the red colour of the refracted Sun-rays.
Translation
As the sun rises, let thy heart disease and jaundice depart. We compass and surround thee with the red color of the sun’s rays.
Footnote
In this hymn the science of curing patients suffering from jaundice or heart trouble through red colored rays of the sun and the milk of red cows is mentioned. The naked body of the patient should be exposed to the red rays of the sun, and he should drink the milk of a red cow.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−अनु। अनुर्लक्षणे। पा० १।४।८४। लक्षणेऽर्थे अनोः कर्मप्रवचनीयत्वम्। कर्मप्रवचनीययुक्ते द्वितीया। पा० २।३।८। इति सूर्यशब्दस्य द्वितीया। लक्षीकृत्य सूर्यम्। १।३।५। लोकप्रेरकम्। आदित्यम्। उत्+अयताम्। अय गतौ। अनुदात्तेत्त्वाद् आत्मनेपदम्। उद्गच्छतु, विनश्यतु, इति यावत्। हृद्-द्योतः। द्युत दीप्तौ−भावे घञ्। हृदयस्य सन्तापः। हरिमा। वर्णदृढादिभ्यः ष्यञ् च। पा० ५।१।१२३। इति हरित्−भावे इमनिच्। यचि भम्। पा० १।४।१८। इति भसंज्ञायाम्। टेः। पा० ६।४।१४३। इति टिलोपः। चितः। पा० ६।१।१६३। इति अन्तोदात्तः। कामिलादिरोगजनितः शारीरो हरिद्वर्णः। गोः। पुंलिङ्गम्। गर्मेडोः। उ० २।६७। गम्लृ गतौ-डो। गौरादित्यो भवति, गमयति रसान् गच्छत्यन्तरिक्षे−इति भगवान् यास्कः−निरु० २।१४। आदित्यस्य, सूर्यस्य। रोहितस्य। रुहे रश्च लो वा। उ० ३।९४। इति रुह जन्मनि प्रादुर्भावे च−इतन्। प्रादुर्भूतस्य, उदितस्य। प्रभातकाले रक्तवर्णस्य। वर्णेन। वर्ण शुक्लादिवर्णकरणे दीपने च−घञ्। रागेण, रञ्जनेन। रूपेण। दध्मसि। दध्मः पोषयामः ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(তে) তোমার (হৃদ্দ্যাতঃ ) হৃদয়ের সন্তাপ (হরিমা) শরীরের পাংশু বর্ণ (সূর্যম্ অনু) সূর্যের সঙ্গে সঙ্গে (উদ্ অয়তাং) উড়িয়া যাক। (রোহিতস্য) উদিয়মান লোহিত (গোঃ) সূর্যের (তেন) প্রসিদ্ধ (বর্ণেন) সৎ দ্বারা (ত্বা) তোমাকে (পরি) সর্ব প্রকারে (দসি) আমি পুষ্ট করি।।
‘গোঃ’ গম্ লৃ গতৌ ডো। ‘গৌরাদিত্যো ভবতি গময়তি রসান্ গচ্ছত্যন্তরিক্ষে নিরুক্ত ২.১৪। সূর্যের। যে রসকে গ্রহণ করে, এবং অন্তরিক্ষে বিচরণ করে তাহাই গো বা সূর্য।।১।। পৌছায়
भावार्थ
তোমার হৃদ্ যন্ত্রের সন্তাপ ও শরীরের পাংশুবর্ণ সূর্যদয়ের সঙ্গে সঙ্গে অন্তর্হিত হউক। উদীয়মান লোহিত সূর্যের রশ্মি দ্বারা তোমাকে সর্ব প্রকারে পুষ্ট করি।।
পূর্বাং সন্ধ্যাং জপং স্তিষ্ঠেং সাবিত্রীমকদর্শনাৎ। পশ্চিমাং তু সমাসীনঃ সম্যগৃক্ষ বিভানাৎ।। মনু সংহিতা ২.১০১। অর্থাৎ প্রাতঃ সন্ধ্যায় গায়ত্রী জপ করিতে করিতে সূর্যদর্শন পর্যন্ত অবস্থান করিবে এবং সায়ং সন্ধ্যায় নক্ষত্র উজ্জল হওয়া পর্যন্ত উপবিষ্ট থাকিয়া ঠিক ঠিক জপ করিতে থাইকবে।।১।।ম
मन्त्र (बांग्ला)
অনু সূর্য মুদয়তাং হৃদ্দ্যাতো হরিমা চতে। গো রে হিতস্য বর্ণেন তেন ত্বা পরি দসি।
ऋषि | देवता | छन्द
ব্রহ্মা। সূর্যঃ, হরিমা, হদ্রোগশ্চ। অনুষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(রোগনাশোপদেশঃ) রোগনাশের জন্য উপদেশ
भाषार्थ
(তে) তোমার (হৃদ্-দ্যোতঃ) হৃদয়ের সন্তাপ [চমক] (চ) এবং (হরিমা) শরীরের হলুদাভ (সূর্যম্ অনু) সূর্যের সাথে সাথে (উদ্-অয়তাম্) উড়ে যাক/বিনষ্ট হোক। (রোহিতস্য) উদীয়মান লাল বর্ণবিশিষ্ট (গোঃ) সূর্যের (তেন) প্রসিদ্ধ (বর্ণেন) বর্ণ দ্বারা (ত্বা) তোমাকে (পরি) সকল প্রকারে (দধ্মসি) আমরা পুষ্ট করি॥১॥
भावार्थ
প্রাতঃ এবং সায়ংকালে সূর্যের কিরণসমূহ তীর্যকভাবে পড়ার কারণে রক্তবর্ণ দেখায় এবং বায়ু শীতল, ধীর, সুগন্ধ হয়ে চলমান হয়। সেই সময় মানসিক এবং শারীরিক রোগীকে সদ্বৈদ্য বায়ুসেবন এবং ঔষধিসেবন করাবেন, যার ফলে রোগী সুস্থ হয়ে যাবে এবং রক্তের সঞ্চালন দ্বারা তার রক্তের রঙ রক্তবর্ণ সূর্যের ন্যায় লাল হয়ে যাবে ॥১॥ ১−(গৌঃ) সূর্য, যা রসসমূহকে নিয়ে যায় [এবং প্রেরণ করে] এবং অন্তরিক্ষে চলাচল করে−নিরু০ ২।১৪ ॥ ২−মনু মহারাজও দ্বিসন্ধ্যার বিধান [সুস্থতার জন্য] দিয়েছেন−মনু, অ০ ২ শ্লো০ ১০১॥ পূর্বাং সন্ধ্যাং জপংস্তিষ্ঠেৎ সাবিত্রীমার্কদর্শনাৎ। পশ্চিমাং তু সমাসীনঃ সম্যগৃক্ষবিভাবনাৎ ॥১॥ প্রাতঃকালের সন্ধ্যায় গায়ত্রী জপ করতে-করতে সূর্যদর্শন হওয়া পর্যন্ত স্থিত থাকবে এবং সায়ংকালের সন্ধ্যায় তারসমূহের চমকিত হওয়া পর্যন্ত বসে ঠিক ভাবে জপ করবে॥
भाषार्थ
(অনু সূর্যম্) সূর্যোদয় তথা সূর্যাস্ত অনুসারে (তে) তোমার (হৃদ্-দ্যোতঃ) হৃদয়ের সন্তাপ (চ) এবং (হরিমা) হলুদাভ কামলা/পাণ্ডু রোগ [এই দুটি] (উদয়তাম্) উড়ে যাক/দূর হোক। (তেন) সেই (রোহিতস্য গোঃ বর্ণেন) লাল সূর্যের বর্ণ দ্বারা (ত্বা) তোমাকে (পরিদধ্মসি) আমি আচ্ছাদিত করি।
टिप्पणी
[গোঃ=আদিত্যোঽপি গৌরুচ্যতে "উতাদঃ পরুষে গবি" (ঋ০ ৬।৫৬।৩); তথা (নিরুক্ত ২।২।৬) প্রাতঃকালে তথা সায়ংকালে সূর্যের রশ্মি লাল হয়, যথা (অথর্ববেদভাষ্য ২।৩২।১) হৃদ্-দ্যোতঃ, হরিমা=এই দুটি রোগ হৃদয়ের রক্তের বিকৃতির কারণে হয়।]
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