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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - चन्द्रमाः, इन्द्राणी छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - स्वस्त्ययन सूक्त
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    अ॒मूः पा॒रे पृ॑दा॒क्व॑स्त्रिष॒प्ता निर्ज॑रायवः। तासा॑म्ज॒रायु॑भिर्व॒यम॒क्ष्या॒वपि॑ व्ययामस्यघा॒योः प॑रिप॒न्थिनः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒मू: । पा॒रे । पृ॒दा॒क: । त्रि॒ऽस॒प्ता: । नि:ऽज॑रायव: ।तासा॑म् । ज॒रायु॑ऽभि: । व॒यम् । अ॒क्ष्यौ । अपि॑ । व्य॒या॒म॒सि॒ । अ॒घ॒ऽयो: । प॒रि॒ऽप॒न्थिन॑: ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अमूः पारे पृदाक्वस्त्रिषप्ता निर्जरायवः। तासाम्जरायुभिर्वयमक्ष्यावपि व्ययामस्यघायोः परिपन्थिनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अमू: । पारे । पृदाक: । त्रिऽसप्ता: । नि:ऽजरायव: ।तासाम् । जरायुऽभि: । वयम् । अक्ष्यौ । अपि । व्ययामसि । अघऽयो: । परिऽपन्थिन: ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 27; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    युद्ध का प्रकरण।

    पदार्थ

    (अमूः) वह (त्रिषप्ताः) तीन [ऊँचे, मध्यम और नीचे] स्थान में खड़ी हुई, (निर्जरायवः) जरायु [गर्भ की झिल्ली] से निकली हुई (पृदाक्वः) सर्पिणी [वा बाघिनी] रूप शत्रुसेनाएँ (पारे) उस पार [वर्तमान] हैं। (तासाम्) उनकी (जरायुभिः) जरायुरूप गुप्त चेष्टाओं सहित [वर्तमान] (अघायोः) बुरा चीतनेवाले, (परिपन्थिनः) उलटे आचरणवाले शत्रु की (अक्ष्यौ) दोनों आँखों को (वयम्) हम (अपि व्ययामसि) ढके देते हैं ॥१॥

    भावार्थ

    जब शत्रु की सेना अपने पड़ावों से निकल कर घातस्थानों पर ऐसी खड़ी होवे, जैसे सर्पिणी वा बाघिनी माता के गर्भ से निकल कर बहुत से उपद्रव फैलाती है, तब युद्धकुशल सेनापति शत्रुसेना की गुप्त कपट चेष्टाओं का मर्म समझ कर ऐसी हल-चल मचा दे कि शत्रु की दोनों, आँखें हृदय की और मस्तक की मुँद जावें और वह घबराकर हार मान लेवे ॥१॥ सायणभाष्य में (निर्जरायवः) के स्थान में [निर्जरा इव] शब्द है ॥

    टिप्पणी

    १−अमूः। परिदृश्यमानाः, ताः। पारे। पार कर्मसमाप्तौ−पचाद्यच्, अथवा पॄ पूर्तौ−घञ्। परतीरे। प्रान्तभागे, सीमाप्रदेशे। पृदाक्वः। पर्दतेर्नित्। सम्प्रसारणमल्लोपश्च। उ० ३।८०। इति पर्द अपानशब्दे−काकु, रेफस्य सम्प्रसारणं अकारलोपश्च। स्त्रियाम् ऊङ्। उदात्तस्वरितयोर्यणः स्वरितोऽनुदात्तस्य। पा० ८।२।४। इति स्वरितः। पर्दते कुत्सितं शब्दयति सा पृदाकूः सर्पिणी व्याघ्री वा। सर्पिण्यो व्याघ्र्य इव वा दुष्टस्वभावाः शत्रुसेनाः। त्रि-सप्ताः। १।१।१। त्रि+षप समवाये−क्त। त्रिषु उच्चमध्यमनीचस्थानेषु सम्बद्धाः स्थिताः। निः-जरायवः। निर्+जरायवः। १।११।४। षिद्भिदादिभ्योऽङ् पा० ३।३।१०४। इति जॄ-ष्, वयोहानौ−अङ्, टाप्। ऋदृशोऽङि गुणः। पा० ७।४।१६। इति गुणः। जरा, वार्द्धक्यम्, शरीर−निर्बलत्वम्। किंजरयोः श्रिणः। उ० १।४। इति जरा+इण् गतौ−ञुण्। जरां जीर्णताम् एति जरायुः, गर्भवेष्टनचर्म। निर्गता जरायोः, गर्भवेष्टनाद् याः। निर्गतगर्भवेष्टनाः। घातस्थानात् प्रादुर्भूताः। तासाम्। पृदाकूरूपाणां शत्रु-सेनानाम्। जरायु-भिः। पूर्ववत्, जरा+इण्−ञुण्। गर्भवेष्टनैः। गुप्तकपटचेष्टाभिः−इति यावत्। वयम्। योद्धारः पुरुषाः। अक्ष्यौ। १।८।३। अशू व्याप्तौ−क्सि। यद्वा, अक्षु व्याप्तौ−इन्, ततो ङीप्। छान्दसं रूपम्। पूर्ववत् स्वरितः। अक्षिणी, उभे मानसिकमास्तिकनेत्रे। अपिव्ययामसि। व्येञ् संवरणे। इदन्तो मसि। पा० ७।१।४६। इति मस इदन्तता। अपिव्ययामः, आच्छादयामः, स्वबुद्धिबलैः प्रमोहयामः। अघायोः। १।२०।२। अघं परहिंसनमिच्छतीति अघायुः। अनिष्टचारिणः। पापात्मानः। परि-पन्थिनः। छन्दसि परिपन्थिपरिपरिणौ पर्यवस्थातरि। पा० ५।२।८९। इति परि+पथि गतौ−णिनि। निपातितः। युद्धे प्रत्यवस्थातुः, प्रतिकूलाचारिणः, शत्रोः ॥

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    विषय

    द्वयावी, यातुधान व किमीदी

    पदार्थ

    १. (देवः) = ज्ञान के प्रकाशवाला, (अग्नि:) = उन्नति का साधक, (रक्षोहा) = राक्षसीभावों को नष्ट करनेवाला, (अमीवचातनः) = रोगों को दूर करनेवाला यह ज्ञानी (उपप्रागात्) = समाज में हमें समीपता से प्राप्त होता है और अपने ज्ञान-उपदेशों से (द्वयाविन:) = 'मन में कुछ और वाणी में कुछ इसप्रकार दो विरोधी भावों के धारण करनेवाले छली-कपटी पुरुषों को (यातुधानान्) = औरों के लिए पीड़ा का आधान करनेवाले पुरुषों को तथा (किमीदिन:) = [किम् अदि] "जिनकी भोगों की कामना शान्त नहीं होती' उन्हें (अपदहन) = सुदूर दग्ध करनेवाला होता है। २. प्रचारक की विशेषताएँ निम्न है-[क] वह ज्ञानी हो [देवः], [ख] स्वयं उन्नत हो [अग्निः], [ग] अपने राक्षसीभावों को विनष्ट कर चुका हो [ रक्षोहा]। [घ] नीरोग हो [अमीवचातनः]। इस प्रचारक को तीन बातों का विशेषरूप से प्रचार करना है-[क] द्वयावी मत बनो। जो तुम्हारे मन में हो, वही तुम्हारी वाणी में हो। 'मन में कुछ हो, ऊपर से कुछ और कहो'-यह बात न हो। [ख] यातुधान मत बनो। औरों को पीड़ित मत करो, तुम्हें स्वयं भी तो पीड़ा इष्ट नहीं है। [ग] हर समय खाते ही न रहो, भोगासक्त न हो जाओ, "किमीदी' मत बनो।

    भावार्थ

    अग्नि [ज्ञानी प्रचारक] को चाहिए कि वह ऐसे ढंग से प्रचार करे कि समाज से 'द्वयावी, यातुधान व किमीदी' पुरुष दूर हो जाएँ।

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    भाषार्थ

    (अमू:) वे जो (पारे) हमारी दैशिक सीमा से पार (निर्जरायवः) जरावस्था से रहित, (त्रिषप्ताः) त्रिविध या सप्तविध (पृदाक्वः) सर्पणियों के सदृश [शत्रुसेनाएँ] हैं। (तासाम् ) उन सेनाओं की (जरायुभिः) वस्तुतः जीर्णतावस्थाओं के कारण, (वयम्) हम (अक्ष्यौ अपि ) दोनों आंखों को भी (व्ययामसि) संवृत कर देते हैं, ढाँप देते हैं, सेनाएँ जोकि (अघायो:) अप अर्थात् पाप के परिणामरूपी हननकर्म को चाहनेवाले, (परिपन्थिनः) परिवर्जित पथवाले [शत्रुराजा] की हैं।

    टिप्पणी

    [मन्त्रस्थ जरायु पद गर्भस्थ शिशु का आवरण करनेवाली झिल्ली का वाचक नहीं। प्रकरणानुसार जरायु पद भिन्नार्थक है। शत्रुसेनाएँ त्रिविध हैं, [पदाति, अश्वारोही तथा रथाश्वारोही] । तथा सप्तविध हैं सप्ताङ्ग प्रकृति, यथा स्वाम्यामात्यसुहृत्कोशराष्ट्रदुर्गवलानि (आप्टे)। ये सप्त भी शत्रु राजा की सेनाओं के उपकारी होने से सेनारूप कहे हैं। परि= अपपरी वर्जने (अष्टा० १।४।२८) युद्ध का पथ अर्थात् मार्ग वैदिक राजनीति में परिवर्जित है, यह केवल आपद्धर्म१ है। आँखों को संवृत करना अर्थात् ढाँपना वैदिक तामसास्त्रों द्वारा होता है (अथर्व० ३।२।५,६)।] [१. शत्रु द्वारा आक्रमण होने पर तत्प्रतीकाररूप है। आत्मरक्षार्थ है।]

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    विषय

    सेना-सञ्चालन।

    भावार्थ

    (अमूः) ये (पारे) नदी के पार ( त्रिसप्ताः ) नदी तरकर पार गये हुए और दूरतक फैले हुए (पृदाकूः) सर्प समान भयंकर सेनाएं हैं जिन्होंने ( निर्जरायवः ) कचुली के समान अपने २ कवचें उतारे हुए हैं (तासां) उनके ( जरायुभिः ) कवचों पर छापा मारकर उन कवचों द्वारा ( वयम् ) हम लोग ( अघायोः ) हमारी हत्या करने की चेष्टा में यत्नवान् ( परिपन्थिनः ) शत्रु के ( अक्ष्यौ ) आंखों को ( अपि वि अयामसि ) हम धूल डालते हैं, उन्हें चकित कर देते हैं।

    टिप्पणी

    ( द्वि० ) ‘यच्छत सप्रथ’ इति सायणाभिमतः पाठः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    स्वस्त्ययनकामोऽथर्वा ऋषिः। चन्द्रमा इन्द्राग्नी च देवता। १ पथ्यापंक्तिः, २, ३, ४ अनुष्टुभः। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Ruler’s Army

    Meaning

    Yonder there across on the shore stands the thrice seven army of the deadly enemy in battle array like cobras out of their den. Let us deal with them by the tactics of their own camouflage and shut the eyes and advance of the deadly enemies.

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    Subject

    Indrani

    Translation

    There on the other bank are thrice-seven (trisaptah) she pythons, just having cast their sloughs. With their sloughs we cover the eyes of the evil-intending highway robber.

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    Translation

    Let us throw dust in the eyes of army of the dreadful enemy through the trick of seizing of those contingents of the enemy army which taking their armours like the Venomous reptiles free from old skins, are spreading far off after swimming the river.

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    Translation

    There on the bank arc stationed in three positions, armies ferocious like serpents, having cast their armours as serpents do their slough. Attacking their discarded armours, we dazzle with them the eyes of a terrible foe.

    Footnote

    Three positions: the upper, middle and lower. The word त्रिषप्ता has been translated by some commentators as three times seven, i.e., infinite. Them refers to the discarded armours of the enemy. षप्ता means स्थिताः

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−अमूः। परिदृश्यमानाः, ताः। पारे। पार कर्मसमाप्तौ−पचाद्यच्, अथवा पॄ पूर्तौ−घञ्। परतीरे। प्रान्तभागे, सीमाप्रदेशे। पृदाक्वः। पर्दतेर्नित्। सम्प्रसारणमल्लोपश्च। उ० ३।८०। इति पर्द अपानशब्दे−काकु, रेफस्य सम्प्रसारणं अकारलोपश्च। स्त्रियाम् ऊङ्। उदात्तस्वरितयोर्यणः स्वरितोऽनुदात्तस्य। पा० ८।२।४। इति स्वरितः। पर्दते कुत्सितं शब्दयति सा पृदाकूः सर्पिणी व्याघ्री वा। सर्पिण्यो व्याघ्र्य इव वा दुष्टस्वभावाः शत्रुसेनाः। त्रि-सप्ताः। १।१।१। त्रि+षप समवाये−क्त। त्रिषु उच्चमध्यमनीचस्थानेषु सम्बद्धाः स्थिताः। निः-जरायवः। निर्+जरायवः। १।११।४। षिद्भिदादिभ्योऽङ् पा० ३।३।१०४। इति जॄ-ष्, वयोहानौ−अङ्, टाप्। ऋदृशोऽङि गुणः। पा० ७।४।१६। इति गुणः। जरा, वार्द्धक्यम्, शरीर−निर्बलत्वम्। किंजरयोः श्रिणः। उ० १।४। इति जरा+इण् गतौ−ञुण्। जरां जीर्णताम् एति जरायुः, गर्भवेष्टनचर्म। निर्गता जरायोः, गर्भवेष्टनाद् याः। निर्गतगर्भवेष्टनाः। घातस्थानात् प्रादुर्भूताः। तासाम्। पृदाकूरूपाणां शत्रु-सेनानाम्। जरायु-भिः। पूर्ववत्, जरा+इण्−ञुण्। गर्भवेष्टनैः। गुप्तकपटचेष्टाभिः−इति यावत्। वयम्। योद्धारः पुरुषाः। अक्ष्यौ। १।८।३। अशू व्याप्तौ−क्सि। यद्वा, अक्षु व्याप्तौ−इन्, ततो ङीप्। छान्दसं रूपम्। पूर्ववत् स्वरितः। अक्षिणी, उभे मानसिकमास्तिकनेत्रे। अपिव्ययामसि। व्येञ् संवरणे। इदन्तो मसि। पा० ७।१।४६। इति मस इदन्तता। अपिव्ययामः, आच्छादयामः, स्वबुद्धिबलैः प्रमोहयामः। अघायोः। १।२०।२। अघं परहिंसनमिच्छतीति अघायुः। अनिष्टचारिणः। पापात्मानः। परि-पन्थिनः। छन्दसि परिपन्थिपरिपरिणौ पर्यवस्थातरि। पा० ५।२।८९। इति परि+पथि गतौ−णिनि। निपातितः। युद्धे प्रत्यवस्थातुः, प्रतिकूलाचारिणः, शत्रोः ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (অমূঃ) এই (ত্রিষপ্তা) তিন স্থানে দণ্ডায়মান (নির্জরায়বঃ) জরায়ু হইতে নির্গত (পৃদাক্বাঃ) সর্পিণী রূপ শত্রুসৈন্য (পারে) পর পারে রহিয়াছে। (তাসাং) তাহাদের মধ্যে (জরায়ুভিঃ) জরায়ু রূপ গুপ্ত প্রচেষ্টা যুক্ত (অঘায়োঃ) দুর্বুদ্ধি (পরিপন্থিঃ) বিপরীত আচরণযুক্ত শত্রুর (অক্ষ্যৌ) দুই চক্ষুকে (বয়ং) আমরা (অপি ব্যামসি) আবৃত করিতেছে।।

    भावार्थ

    উচ্চ, নীচ, মধ্যম এই তিন স্থানে দণ্ডায়মান জরায়ু হইতে নির্গত সর্পিণীর ন্যায় শত্রুসৈন্য পরপারে রহিয়াছে। তাহাদের মধ্যে জরায়ুরূপ গুপ্ত প্রচেষ্টা যুক্ত, দুবুদ্ধি, বিপরীত আচরণ যুক্ত শত্রুর দুই চক্ষুকে আমরা আবৃত করি।
    সর্পিণী মাতৃগর্ভ হইতে মুক্ত হইয়া যেমন চারিদিকে উপদ্রবের সৃষ্টি করে শত্রুসৈন্যও সেইরূপ সৈন্যাবাস হইতে মুক্ত হইয়া যুদ্ধস্থলে আসিয়া নানারূপ উপদ্রবের সৃষ্টি করে। রাজা শত্রু সৈন্যের গুপ্ত রহস্য জানিয়া তাহাদিগকে সম্পূর্ণ নিষ্ক্রিয় অবস্থায় রাখিবে।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    অমূঃ পারে পৃদাকৄথ্রিষপ্তা নির্জরায়বঃ। তাসাং জরায়ুভির্বয়মক্ষ্যা ও বপি ব্যয়ামস্য ঘায়োঃ পরিপন্থিনঃ।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    অর্থবা (দ্বস্ত্যয়নকামঃ)। ইন্দ্রাণী। পথ্যা পঙ্ক্তিঃ

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    मन्त्र विषय

    (যুদ্ধপ্রকরণম্) যুদ্ধের প্রকরণ

    भाषार्थ

    (অমূঃ) সেই (ত্রিষপ্তাঃ) তিন [উঁচু, মধ্যম এবং নিম্ন] স্থানে স্থিত, (নির্জরায়বঃ) জরায়ু [গর্ভের ঝিল্লী] থেকে নির্গত (পৃদাক্বঃ) সর্পিণী [বা বাঘিনী] রূপ শত্রুসেনাগণ (পারে) অপর দিকে [বর্তমান] রয়েছে। (তাসাম্) তাদের (জরায়ুভিঃ) জরায়ুরূপ গুপ্ত চেষ্টাগুলোর সাথে [বর্তমান] (অঘায়োঃ) খারাপ চিন্তাশীল, (পরিপন্থিনঃ) বিপরীত আচরণসম্পন্ন শত্রুর (অক্ষ্যৌ) উভয় চক্ষুকে (বয়ম্) আমরা (অপি ব্যযামসি) আবৃত করি ॥১॥

    भावार्थ

    যখন শত্রু সেনা নিজের স্থান থেকে বের হয়ে ঘাত স্থানে এসে এমনভাবে দাঁড়াবে, যেরূপ সর্পিণী বা বাঘিনী মায়ের গর্ভ থেকে বের হয়ে বহু উপদ্রব সৃষ্টি করে, তখন যুদ্ধকুশল সেনাপতি শত্রুসেনার গুপ্ত কপট চেষ্টাসমূহের মর্ম বুঝে এমন হৈ-চৈ সৃষ্টি করবেন যে শত্রু সেনার উভয় চোখ, হৃদয় এবং মস্তিষ্ক কাজ করা বন্ধ করে দেবে এবং তারা ভয় পেয়ে পরাজয় স্বীকার করবে ॥১॥ সায়ণভাষ্যে (নির্জরায়বঃ) এর স্থানে [নির্জরা ইব] শব্দ রয়েছে॥

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    भाषार्थ

    (অমূঃ) যারা (পারে) আমাদের দেশের সীমারেখার বাইরে (নির্জরায়বঃ) জরাবস্থারহিত, (ত্রিষপ্তাঃ) ত্রিবিধ বা সপ্তবিধ (পৃদাক্বঃ) সর্পিণীর সদৃশ [শত্রুসেনা] রয়েছে। (তাসাম্) সেই সেনাদের (জরায়ুভিঃ) বস্তুতঃ জীর্ণতাবস্থার কারণে, (বয়ম্) আমরা (অক্ষ্যৌ অপি) দুই চোখকেও (ব্যায়ামসি) সংবৃত করে দেই, আবৃত/আচ্ছাদিত করি, সেনারা যারা (অঘায়োঃ) অঘ অর্থাৎ পাপের পরিণামরূপী হননকর্মের অভিলাষী, (পরিপন্থিনঃ) পরিবর্জিত পথানুগামী [শত্রুরাজা] এর।

    टिप्पणी

    [মন্ত্রস্থ জরায়ু পদ গর্ভস্থ শিশুর আবরণী ঝিল্লীর বাচক নয়। প্রকরণানুসারে জরায়ু পদ ভিন্নার্থক। শত্রুসেনা ত্রিবিধ হয়, [পদাতিক, অশ্বারোহী তথা রথাশ্বারোহী]। এবং সপ্তবিধ হল সপ্তাঙ্গ প্রকৃতি, যথা স্বাম্যামাত্যসুহৃৎকোশরাষ্ট্রদুর্গবলানি (আপ্টে)। এই সাতটিও শত্রু রাজার সেনাদের উপকারী হওয়ায় সেনারূপ বলা হয়েছে। পরি= অপপরী বর্জনে (অষ্টা০ ১।৪।৮৭) যুদ্ধের পথ অর্থাৎ মার্গ বৈদিক রাজনীতিতে পরিবর্জিত, ইহা কেবল আপদ্ধর্ম১। চোখকে সংবৃত করা অর্থাৎ আচ্ছাদিত করে দেওয়া বৈদিক তামশাস্ত্রের দ্বারা হয় (অথর্ব০ ৩।২।৫, ৬)।] [১. শত্রু দ্বারা আক্রমণ হলে তৎপ্রতিকাররূপ। আত্মরক্ষার্থ।]

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