अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 56/ मन्त्र 1
ऋषिः - यमः
देवता - दुःष्वप्ननाशनम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - दुःस्वप्नानाशन सूक्त
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य॒मस्य॑ लो॒कादध्या ब॑भूविथ॒ प्रम॑दा॒ मर्त्या॒न्प्र यु॑नक्षि॒ धीरः॑। ए॑का॒किना॑ स॒रथं॑ यासि वि॒द्वान्त्स्वप्नं॒ मिमा॑नो॒ असु॑रस्य॒ योनौ॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय॒मस्य॑। लो॒कात्। अधि॑। आ। ब॒भू॒वि॒थ॒। प्रऽम॑दा। मर्त्या॑न्। प्र। यु॒न॒क्षि॒। धीरः॑। ए॒का॒किना॑। स॒ऽरथ॑म्। या॒सि॒। वि॒द्वान्। स्वप्न॑म्। मिमा॑नः। असु॑रस्य। योनौ॑ ॥५६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यमस्य लोकादध्या बभूविथ प्रमदा मर्त्यान्प्र युनक्षि धीरः। एकाकिना सरथं यासि विद्वान्त्स्वप्नं मिमानो असुरस्य योनौ ॥
स्वर रहित पद पाठयमस्य। लोकात्। अधि। आ। बभूविथ। प्रऽमदा। मर्त्यान्। प्र। युनक्षि। धीरः। एकाकिना। सऽरथम्। यासि। विद्वान्। स्वप्नम्। मिमानः। असुरस्य। योनौ ॥५६.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
निद्रा त्याग का उपदेश।
पदार्थ
[हे स्वप्न !] (यमस्य) यम [मृत्यु] के (लोकात्) लोक से (अधि) अधिकारपूर्वक (आ बभूविथ) तू आया है, (धीरः) धीर [धैर्यवान्] तू (प्रमदा) आनन्द के साथ (मर्त्यान्) मनुष्यों को (प्र युनक्षि) काम में लाता है। (असुरस्य) प्राणवाले [जीव] के (योनौ) घर में (स्वप्नम्) निद्रा (मिमानः) करता हुआ (विद्वान्) जानकार तू (एकाकिना) एकाकी [मृत्यु] के साथ (सरथम्) एक रथ में होकर (यासि) चलता है ॥१॥
भावार्थ
स्वप्न वा आलस्य के कारण अवसर चूककर मनुष्य कष्टों में पड़कर मृत्यु पाते हैं ॥१॥
टिप्पणी
इस सूक्त का अर्थ अधिक विचारो और मिलान करो-अ० का० ६। सू० ४६ तथा का० १६। सू० ५॥ १−(यमस्य) मृत्योः (लोकात्) स्थानात् (अधि) अधिकृत्य (आ बभूविथ) प्राप्तोऽसि (प्रमदा) प्रकृष्टसुखेन (मर्त्यान्) मनुष्यान् (प्र युनक्षि) प्रयुक्तान् करोषि (धीरः) धैर्यवांस्त्वम् (एकाकिना) एकादाकिनिच्चासहाये। पा० ५।३।५२। एक-आकिनिच्। असहायेन मृत्युना (सरथम्) समाने रथे भूत्वा (यासि) गच्छसि (विद्वान्) जानन् (स्वप्नम्) निद्राम् (मिमानः) निर्मिमाणः कुर्वन् (असुरस्य) प्राणवतो प्राणवतो जीवस्य (योनौ) गृहे ॥
भाषार्थ
(यमस्य) जागरित वृत्तियों से उपराम वाले (लोकात्) लोक अर्थात् चित्त से (अधि) अधिकारपूर्वक हे स्वप्न! तू (आ बभूविथ) आ प्रकट हुआ है। (धीरः) स्वाप्निक कर्मों का प्रेरक तू (मर्त्यान्) मनुष्यों को (प्रमदा) प्रमाद से (प्र युनक्षि) युक्त कर देता है। (असुरस्य) प्राणवान् अर्थात् जीवित मर्त्य के (योनौ) शरीर-गृह में (स्वप्नम्) सुषुप्ति का (मिमानः) निर्माण करता हुआ, (विद्वान्) और चित्त में विद्यमान होता हुआ तू (एकाकिना) जागरित वृत्तियों से वञ्चित हुए, और इसलिये अकेले हुए जीवात्मा के साथ (सरथम्) एक ही चित्तरथ में (यासि) विचरता है।
टिप्पणी
[यमस्य= यम उपरमे अर्थात् जागरित वृत्तियों का उपराम= अभाव। स्वप्नावस्था में जागरित चित्तवृत्तियां नही होतीं। अधि= स्वप्न मानो निजाधिकारपूर्वक चित्त में प्रवेश पा लेता है। समय पर न चाहते हुए को भी स्वप्न आ घेरता है। धीरः=धी कर्मनाम (निघं० २.१)+ ईरः प्रेरक (ईर् गतौ)। असुरस्य= “असुरिति प्राणनाम, अस्तः शरीरे भवति, तेन तद्वान् असुरः” (निरु० ३.२.८)। योनौ= गृहनाम (निघं० ३.४)। सरथम्= निज प्रतिबिम्ब या शक्तिरूप से जीवात्मा चित्त में विद्यमान होता है, और उसी चित्त में स्वप्न भी विद्यमान होता है। इसलिये जीवात्मा और मन “समान” अर्थात् एक चित्तरथ में विचर रहे होते हैं। स्वप्नं मिमानः=स्वप्नावस्था के बाद सुषुप्ति की अवस्था अवश्य आती है, चाहे स्वल्पकाल के लिये ही आए। इसलिये स्वप्नावस्था, सुषुप्त्यवस्था का निर्माण करती है।]
विषय
'धीर' स्वप्न
पदार्थ
१. हे स्वप्न ! तू (यमस्य लोकात् अधि) = यम के लोक से (आबभूविथ) = प्रकट हुआ है, अर्थात् स्वप्न की उत्पत्ति ही मानो मृत्युलोक से होती है-यह शीघ्रमृत्यु का कारण बनता है। हे दु:ष्वप्न! तू आकर (धीर:) = [धियम् ईरयति] बुद्धि को काम्पित कर देनेवाला होता हुआ, अर्थात् किसी से भी भयभीत न होता हुआ (प्रमदा:) = स्त्रियों को (मर्त्यान्) = और पुरुषों को (प्रयुनक्षि) = अपने से जोड़ता है। २. अब (विद्वान्) = नानाप्रकार की बातों को जानता हुआ तू [स्वप्न में न जाने कब के संस्कार जाग उठते हैं] (एकाकिना) = अकेले उस स्वप्नद्रष्टा पुरुष के साथ (सरथं यासि) = इस समान शरीररूप रथ में गति करता है। हे दुःस्वप्नाभिमानिन् देव! तू (असुरस्य) = [असुः प्राणः, तद्वान् असुर:] प्राणवान् आत्मा के (योनौ) = उपलब्धि स्थान हृदय में (स्वप्नम्) = कष्टमय, अनिष्टफलप्रद स्वप्न को (मिमान:) = निर्मित करता हुआ है। यह दुःस्वप्न की देवता इस स्वप्नद्रष्टा को यमलोक में ले-जाती है।
भावार्थ
स्वप्न हमारी बुद्धियों को कम्पित कर देता है। हृदय में भय पैदा करता हुआ यह शीघ्र मृत्यु का कारण बनता है।
इंग्लिश (4)
Subject
Svapna
Meaning
O Dream, you arise from the subconscious state of the mind (below the state of wakefulness and above the state of deep sleep) and, yourself unmoved and unchanging, you join people with the sports of their own mind. Joining them as one with their state, you move with their lone spirit playing in the same sphere of the mind with the same sports as they, structuring further dreams in the life of the dreamer’s mind at work.
Subject
Svapna: Dream
Translation
From the world of the controller Lord you have come. Self possessed, you unite mortals with pleasure. Fashioning dream in the abode of the life-enjoyer. knowing full well, you go on a common chariot with the lonely person.
Translation
As the fodder is given to horse standing in stable so we at every consecutive day offering the oblations to this fire and having close contact with it, enjoying with wealth, growth and knowledge may not be troubled.
Translation
O man, you are fully capable of controlling your vital breaths from the very central place, governing all the sense-organs in brain, self-controlled, thou setest the people on the right path, with joy and pleasure. Fully knowing and measuring the harmful state of laziness and sleepiness, used in the shattered place of the indulgent persons, thou passes on, along with your body, all alone.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
इस सूक्त का अर्थ अधिक विचारो और मिलान करो-अ० का० ६। सू० ४६ तथा का० १६। सू० ५॥ १−(यमस्य) मृत्योः (लोकात्) स्थानात् (अधि) अधिकृत्य (आ बभूविथ) प्राप्तोऽसि (प्रमदा) प्रकृष्टसुखेन (मर्त्यान्) मनुष्यान् (प्र युनक्षि) प्रयुक्तान् करोषि (धीरः) धैर्यवांस्त्वम् (एकाकिना) एकादाकिनिच्चासहाये। पा० ५।३।५२। एक-आकिनिच्। असहायेन मृत्युना (सरथम्) समाने रथे भूत्वा (यासि) गच्छसि (विद्वान्) जानन् (स्वप्नम्) निद्राम् (मिमानः) निर्मिमाणः कुर्वन् (असुरस्य) प्राणवतो प्राणवतो जीवस्य (योनौ) गृहे ॥
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