अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 1
नेच्छत्रुः॒ प्राशं॑ जयाति॒ सह॑मानाभि॒भूर॑सि। प्राशं॒ प्रति॑प्राशो जह्यर॒सान्कृ॑ण्वोषधे ॥
स्वर सहित पद पाठन । इत् । शत्रु॑: । प्राश॑म् । ज॒या॒ति॒ । सह॑माना । अ॒भि॒ऽभू: । अ॒सि॒ । प्राश॑म् । प्रति॑ऽप्राश: । ज॒हि॒ । अ॒र॒सान् । कृ॒णु॒ । ओ॒ष॒धे॒ ॥२७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
नेच्छत्रुः प्राशं जयाति सहमानाभिभूरसि। प्राशं प्रतिप्राशो जह्यरसान्कृण्वोषधे ॥
स्वर रहित पद पाठन । इत् । शत्रु: । प्राशम् । जयाति । सहमाना । अभिऽभू: । असि । प्राशम् । प्रतिऽप्राश: । जहि । अरसान् । कृणु । ओषधे ॥२७.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
बुद्धि से विवाद करे, इसका उपदेश।
पदार्थ
(शत्रुः) वैरी (प्राशम्) प्रश्नकर्ता [मुझ] को (न इत्) कभी न (जयाति) जीते, [हे बुद्धि] तू (सहमाना) जयशील और (अभिभूः) प्रबल (असि) है। (प्राशम्) [मुझ] प्रश्नकर्ता के (प्रतिप्राशः) प्रतिकूलवादियों को (जहि) मिटा दे, (ओषधे) हे ताप की पीनेवाली [ज्वरादिताप हरनेवाली औषध के समान बुद्धि उन सबको] (अरसान्) नीरस [फींका] (कृणु) कर ॥१॥
भावार्थ
इस सूक्त में ओषधि के उदाहरण से बुद्धि का ग्रहण है। ओषधि का अर्थ निरु० ९।२७। में किया है “ओषधियें ओषत्, दाह वा ताप को पी लेती हैं अथवा ताप में इनको पीते हैं, अथवा ये दोष को पी लेती हैं।” मन्त्र का आशय। जिस प्रकार शुद्ध परीक्षित ओषधि के सेवन करने से ज्वर आदि रोग नष्ट होते हैं, ऐसे ही मनुष्य के बुद्धिपूर्वक, प्रमाणयुक्त विवाद करने से बाहिरी और भीतरी प्रतिपक्षी हार जाते हैं ॥१॥
टिप्पणी
१–न। निषेधे। इत्। अवधारणे। एव। शत्रुः। अ० २।५।३। विपक्षः। प्रतिवादी। प्राशम्। क्विब् वचिप्रच्छिश्रि०। उ० २।५७। इति प्रच्छ ज्ञीप्सायाम्–क्विप्, दीर्घः संप्रसारणाभावश्च। च्छ्वोः शूडनुनासिके च। पा० ६।४।१९। इति च्छस्य शः। प्रष्टारं वादिनं माम्। जयाति। जयतेर्लेटि आडागमः। जयतु। अभिभवतु। सहमाना। अ० २।२५।२। जेत्री। अभिभूः। भुवः संज्ञान्तरयोः। प० ३।२।१७९। इति अभि+भू–क्विप्। अभिभवित्री। प्रति–प्राशः। प्रति+प्रच्छ–कर्तरि क्विप्। न लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतृनाम्। पा० २।३।६९। इति तृन् ग्रहणात्। तद्वाचके क्विपि प्रत्ययेऽपि (प्राशम्) इत्यस्य कर्मत्वम्। प्रतिकूलप्रष्टॄन्। प्रतिवादकान्। जहि। हन हिंसागत्योः–लोट्। नाशय। पराजितान् कुरु। अरसान्। नीरसान्। निर्वीर्यान्। कृणु। कुरु। ओषधे। अ० १।२३।१। उष दाहे–घञ्। ततो धेट् पाने–कि। ओषधय ओषद् धयन्तीति वौषत्येना धयन्तीति वा दोषं धयन्तीति वा–निरु० ९।२७। ओषं दाहं धयति पिबति नाशयतीति ओषधिः। यवादिधान्यम्। रोगनाशकद्रव्यम्। तापनाशिका बुद्धिः। तत्संबुद्धौ ॥
विषय
'प्राश' से रोगों का नाश
पदार्थ
१. (शत्रुः) = रोगकृमि के रूप में हमारा शातन करनेवाला यह (शत्रु प्राशम्) = प्रकृष्ट भोजनवाले पथ्यसेवी पुरुष को (न इत् जयाति) = निश्चय ही जीत नहीं पाता। २. हे पाटा नामक औषधे! तू भी (सहमाना) = शत्रुओं का मषर्ण करनेवाली और (अभिभूः असि) = रोगों को दबा लेनेवाली है। हे (ओषधे) = [दोषं धयति पिबति-आद्यक्षर लोप] दोष को पी जानेवाली ओषधे! तू (प्राशं) = प्रति (प्राश:) = पथ्य-सेवी के, शत्रु बनकर उसे खा जानेवाले, रोगों को (जहि) = नष्ट कर दे। इन सब रोग व रोगकृमियों को (अरसान् कृणु) = तू शुष्क कर दे। इनकी शक्ति को तू समाप्त कर दे।
भावार्थ
हम 'प्राश'-उत्कृष्ट पथ्य भोजनवाले बनें। ओषधि का उचित प्रयोग करें। इसप्रकार हमारे रोगरूप शत्रु शुष्क होकर समाप्त हो जाएंगे।
भाषार्थ
(प्राशम्) प्रकर्षरूप में भोजन१ करनेवाले को (शत्रु:) शत्रु (नेत्) नहीं (जयाति) जीते, (सहमाना अभिभूः असि) शत्रु को सहन करनेवाली तथा उसका पराभव करनेवाली तू है । (प्राशम्)२ प्रकर्षरूप में भोजन करने वाले को उद्दिष्ट करके (प्रतिप्राशः) प्रतिद्वन्द्वी प्राशों को (ओषधे) हे ओषधि तू (जहि) मार (अरसान् कुणु) और उन्हें रसविहीन कर। (ओषधिः= पाटा) (मन्त्र ४) ।
टिप्पणी
[प्राशम् =प्र+अश भोजने (क्र्यादिः)।] [१. अथर्व० (६।१३५।१-३)। २. प्राशं प्रष्टारं वादिनम्, "प्रच्छ ज्ञीष्सायाम्"। "क्विब्वचि" (अष्टा० वार्तिक ३।२।१७८), इत्यादिना क्विप्। “च्छ्वोः " (अष्टा० १।४।१९) इति सतुकस्य छकारस्य शकारः)। प्रतिप्राश:= प्रतिकूलप्रश्नकर्तृन प्रतिवादिनः (सायण)।]
विषय
ओषधि के दृष्टान्त से चितिशक्ति का वर्णन ।
भावार्थ
चितिशक्ति का ओषधि के दृष्टान्त से विवरण करते हैं। हे ओषधे ! ओषधि के समान शरीर के ओष=उष्णता को धारण कराने वाली जीवनशक्ते ! (शत्रुः) शत्रु या तेरे विलोपकारी पदार्थ भी (प्राशं) उत्तम रूप से व्यापक आत्मा को (न इत्) नहीं (जयाति) जीत सकता, क्योंकि तू (सहमाना) सहनशील, शत्रु का नाश करने और उसको (अभिभूः असि) दबा डालने में समर्थ है । (प्राशं प्रतिप्राशः) प्रबल रूप से हृदय में व्यापने वाले शोक, मोह, क्रोध आदि भावों को (प्रतिप्राशः) उनके विपरीत भावना द्वारा हृदय में व्याप्त होकर, वादी को प्रतिवादी के समान (जहि) विनाश कर और उनको (अरसान्) तुच्छ निर्बल (कृणु) कर।
टिप्पणी
(प्र०) ‘यच्छत्रून् समजयत्’, (तृ०) ‘साभून्प्रतिप्राशो जय रसाकृण्वोषधे’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कपिञ्जल ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। १-४ अनुष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory
Meaning
Hey Oshadhi, spirit of life, no enemy can win away my food of life, none can win over my understanding of life’s values, its questions and answers. All time challenger, all time subduer of doubts and irrelevancies, answer and silence all questions raised by negationists one by one. Render them all empty and meaningless. (The mantra may also be interpreted as a cure for depression and self-distrust.)
Subject
Osadhi - Herbs
Translation
Let not the enemy win at any cost in his missile-throw, because you are resister and overwhelmer. May send a counter missile against the missile. O herb, make my rivals sapless, dull and flat.
Translation
[N.B. In this hymn there has been given the description of herb— Pata. In the verse 3 it has been described that this should be used on hand and in the fourth verse it has been prescribed to eat. It can be used in these two ways.] The herb Pata is mighty and subdue of disease and any ante does not overcome your efficacy. This makes the diseases dull be coming counter-questioner to him who questions its efficacy.
Translation
Let not the enemy gain victory over me the debater, O intellect, thou art victorious and predominant. Refute the adversaries of mine, the debater. O intellect, efficacious like the medicine that removes fever, render all my opponents in the debate dull and flat!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१–न। निषेधे। इत्। अवधारणे। एव। शत्रुः। अ० २।५।३। विपक्षः। प्रतिवादी। प्राशम्। क्विब् वचिप्रच्छिश्रि०। उ० २।५७। इति प्रच्छ ज्ञीप्सायाम्–क्विप्, दीर्घः संप्रसारणाभावश्च। च्छ्वोः शूडनुनासिके च। पा० ६।४।१९। इति च्छस्य शः। प्रष्टारं वादिनं माम्। जयाति। जयतेर्लेटि आडागमः। जयतु। अभिभवतु। सहमाना। अ० २।२५।२। जेत्री। अभिभूः। भुवः संज्ञान्तरयोः। प० ३।२।१७९। इति अभि+भू–क्विप्। अभिभवित्री। प्रति–प्राशः। प्रति+प्रच्छ–कर्तरि क्विप्। न लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतृनाम्। पा० २।३।६९। इति तृन् ग्रहणात्। तद्वाचके क्विपि प्रत्ययेऽपि (प्राशम्) इत्यस्य कर्मत्वम्। प्रतिकूलप्रष्टॄन्। प्रतिवादकान्। जहि। हन हिंसागत्योः–लोट्। नाशय। पराजितान् कुरु। अरसान्। नीरसान्। निर्वीर्यान्। कृणु। कुरु। ओषधे। अ० १।२३।१। उष दाहे–घञ्। ततो धेट् पाने–कि। ओषधय ओषद् धयन्तीति वौषत्येना धयन्तीति वा दोषं धयन्तीति वा–निरु० ९।२७। ओषं दाहं धयति पिबति नाशयतीति ओषधिः। यवादिधान्यम्। रोगनाशकद्रव्यम्। तापनाशिका बुद्धिः। तत्संबुद्धौ ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(প্রাশম্) প্রকর্ষরূপে ভোজনকারীকে১ (শত্রু) শত্রু (নেৎ) না (জয়াতি) জয় করে/জয় করতে পারে, (সহমানা অভিভূঃ অসি) শত্রুকে সহ্যকারী এবং তাঁকে পরাজিতকারী তুমি হও। (প্রাশম্)২ প্রকর্ষরূপে ভোজনকারীকে উদ্দিষ্ট করে (প্রতিপ্রাশঃ) প্রতিদ্বন্দ্বী প্রাশদের (ওষধে) হে ঔষধি তুমি (জহি) নাশ করো (অরসান্ কুণু) এবং তাঁদের রসবিহীন করো। (ঔষধিঃ= পাটা) (মন্ত্র ৪)।
टिप्पणी
[প্রাশম্ =প্র + অশ ভোজনে (ক্র্যাদিঃ)।] [১. অথর্ব০ (৬।১৩৫।১-৩) । ২. প্রাশং প্রষ্টারং বাদিনম্, “প্রচ্ছ জীপ্সায়াম্"। "ক্বিব্বচি" (অষ্টা০ বার্তিক ৩।২।১৭৮), ইত্যাদিনা কিব্প্। "চ্ছ্বোঃ" (অষ্টা ১।৪ ১৯) ইতি সতুকস্য ছকারস্য শকারঃ)। প্রতিপ্রাশঃ= প্রতিকূলপ্রশ্নকর্তৃন্ প্রতিবাদিনঃ (সায়ণ)।]
मन्त्र विषय
বুদ্ধ্যা বিবাদঃ কর্ত্তব্য ইত্যুপদিশ্যতে
भाषार्थ
(শত্রুঃ) শত্রু (প্রাশম্) প্রশ্নকর্তা [আমাকে] যেন (ন ইৎ) না কখনো (জয়াতি) জয় করে, [হে বুদ্ধি] তুমি (সহমানা) জয়শীল ও (অভিভূঃ) প্রবল (অসি) হও। (প্রাশম্) [আমার] প্রশ্নকর্তার (প্রতিপ্রাশঃ) প্রতিকূলবাদীদের (জহি) বিনাশ/পরাজিত করো, (ওষধে) হে তাপ পানকারী [জ্বরাদিতাপ হরনকারী ঔষধির সমান বুদ্ধি সেই সকলকে] (অরসান্) নীরস [ক্ষীণ] (কৃণু) করো ॥১॥
भावार्थ
এই সূক্তে ঔষধির উদাহরণ দ্বারা বুদ্ধির গ্রহণ হয়েছে। ঔষধির অর্থ নিরু০ ৯।২৭। এ করা হয়েছে “ওষধিয়েং ওষৎ, দাহ বা তাপ পান করে নেয় অথবা তাপে এদের পান করে, অথবা ঔষধি দোষ পান করে।” মন্ত্রের উদ্দেশ্য। যেভাবে শুদ্ধ পরীক্ষিত ঔষধির সেবন করলে জ্বর আদি রোগ বিনষ্ট হয়, এভাবেই মনুষ্যের বুদ্ধিপূর্বক, প্রমাণযুক্ত বিবাদ করলে বাহ্যিক ও আন্তরিক প্রতিপক্ষ পরাজিত হয় ॥১॥
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