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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 34/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - पशुपतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पशुगण सूक्त
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    य ईशे॑ पशु॒पतिः॑ पशू॒नां चतु॑ष्पदामु॒त यो द्वि॒पदा॑म्। निष्क्री॑तः॒ स य॒ज्ञियं॑ भा॒गमे॑तु रा॒यस्पोषा॒ यज॑मानं सचन्ताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । ईशे॑ । प॒शु॒ऽपति॑:। प॒शू॒नाम् । चतु॑:ऽपदाम् । उ॒त । य: । द्वि॒ऽपदा॑म् । नि:ऽक्री॑त: । स: । य॒ज्ञिय॑म् । भा॒गम् । ए॒तु॒ । रा॒य: । पोषा॑: । यज॑मानम् । स॒च॒न्ता॒म् ॥३४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य ईशे पशुपतिः पशूनां चतुष्पदामुत यो द्विपदाम्। निष्क्रीतः स यज्ञियं भागमेतु रायस्पोषा यजमानं सचन्ताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । ईशे । पशुऽपति:। पशूनाम् । चतु:ऽपदाम् । उत । य: । द्विऽपदाम् । नि:ऽक्रीत: । स: । यज्ञियम् । भागम् । एतु । राय: । पोषा: । यजमानम् । सचन्ताम् ॥३४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 34; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (4)

    विषय

    बन्ध से मुक्ति के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो (पशुपतिः) पशुओं [जीवों] का स्वामी परमेश्वर (चतुष्पदाम्) चौपाये, (उत) और (यः) जो (द्विपदाम्) दोपाये (पशूनाम्) जीवों का (ईशे=इष्टे) राजा है। (सः) वह परमेश्वर (निष्क्रीतः) अनुकूल होकर (यज्ञियम्) हमारे पूजायोग्य (भागम्) भजन वा अंश को (एतु) प्राप्त करे। (रायः) धन की (पोषाः) वृद्धियाँ (यजमानम्) पूजनीय कर्म करनेवाले को (सचन्ताम्) सींचती रहें ॥१॥

    भावार्थ

    परमेश्वर सब मनुष्यादि दोपाये और गौ आदि चौपाये और सब संसार का स्वामी है, वह मनुष्यों के धर्मानुकूल चलने से उनका (निष्क्रीतः) मोल लिया हुआ अर्थात् उनका इच्छावर्ती होकर उनको सब प्रकार का आनन्द देता है ॥१॥

    टिप्पणी

    १–ईशे। ईश ऐश्वर्ये। लोपस्त आत्मनेपदेषु। पा० ७।१।४१। इति तलोपः। अधीगर्थदयेशां कर्मणि। पा० २।३।५३। इति कर्मणि षष्ठी। ईष्टे। ईश्वरः स्वामी वर्तते। पशुपतिः। अर्जिदृशिकम्यमि०। उ० १।२७। इति दृशिर् प्रेक्षे–कु। पातेर्डतिः। उ० ४। इति पा रक्षणे–डति। पशूनां दृष्टिवतां दृष्टानां वा स्थावरजङ्गमानां जीवानां पाता रक्षिता परमेश्वरः। पशूनाम्। अ० १।२५।२। जीवानाम्। चतुष्पदाम्। संख्यासुपूर्वस्य। पा० ५।२।१४०। इति बहुव्रीहेः पादशब्दान्तस्य लोपः। पादः पत्। पा० ६।४।१३०। इति पाद् इत्यस्य पदादेशो भसंज्ञायाम्। गवादीनाम्। उत। अपि च। द्विपदाम्। पूर्ववत् सिद्धिः। मनुष्यादीनाम्। निष्क्रीतः। निः नितराम्+क्रीञ् मूल्यदानेन द्रव्यग्रहणे–क्त। प्रार्थनादिना अनुकूलीकृतः। यज्ञियम्। यज्ञर्त्विग्भ्यां घखञौ। पा० ५।१।७१। पूजाकर्मार्हम्। भागम्। भज भागसेवयोः–घञ्। अंशम्। भजनम्। एतु। गच्छतु। प्राप्नोतु। रायः। रातेर्डैः। उ० २।६६। इति रा दाने ग्रहणे च–डै। धनस्य। स्वर्णस्य। पोषाः। पुष पुष्टौ धृतौ च–घञ्। समृद्धयः। षष्ठ्याः पतिपुत्र०। पा० ८।३।५३। इति (रायस्पोषाः) अत्र सत्त्वम्। यजमानम्। यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु–शानच्। यष्टारम्। याजकम्। सचन्ताम्। षचङ् सेचने–लोट्। सिञ्चन्तु ॥

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    विषय

    पशुपति-निष्क्रय

    पदार्थ

    १. (य:) = जो (पशुपति:) = सब प्राणियों का स्वामी[पशूनां पतिः] अथवा सर्वद्रष्टा व सर्वरक्षक प्रभु [पशुश्चासौ पतिश्च] (पशूनां ईशे) = सब पशुओं का ईश है, (चतुष्पदाम्) = जो भी चार पैरवाले पशु हैं उनके तो वे पशुपति ईश है ही, (उत) = और (यः) = जो पशुपति (द्विपदाम्) = दो पाँवोंवाले मनुष्यों के भी ईश है, (सः) = वह पशुपति (निष्क्रीत:) = विषय-त्यागरूप मूल्य से पुनः प्राप्त किये हुए (यज्ञियं भागम्) = यज्ञ-सम्बन्धी भाग को (एतु) = प्राप्त हो, अर्थात् हम वैषयिक वृत्तियों से ऊपर उठकर यज्ञों का सेवन करनेवाले हों और इन यज्ञों द्वारा उस प्रभु की उपासना करें। २. इसप्रकार उपासना करनेवाले (यजमानम्) = यज्ञशील पुरुष को (रायस्पोषाः सचन्ताम्) = धनों की पुष्टि समेवत हो।

    भावार्थ

    प्रभु ही सबके ईश हैं। मनुष्य विषयों से पृथक होकर प्रभु को प्राप्त करता है और यज्ञों से उसका उपासन करता है। ऐसा करने पर यज्ञशील पुरुषों को धनों की कमी नहीं रहती।

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    भाषार्थ

    (यः) जो (पशुपति:) पशुपति (चतुष्पदाम् ) चार पैरोंवाले ( पशूनाम् ) पशुओं का (ईशे) अधीश्वर है, (उत) तथा (य:) जो ( द्विपदाम्१) दो पैरोंवालों का अधीश्वर है (सः) वह (निष्क्रीत:) मानो [ मेरी भक्ति द्वारा ] खरीदा गया (यज्ञियम्) मेरे ध्यान-यज्ञ को (भागम् एतु) भागी हो और (यजमानम्) उपासनायज्ञ-कर्ता मुझको (रायस्पोषाः) सम्पत्तियों की पुष्टियाँ (सचन्ताम्) प्राप्त हों।

    टिप्पणी

    [१. द्विपद पशु हैं, मनुष्य। जब तक आहार, निद्रा, भय, मैथुन से सम्पन्न मनुष्य रहते हैं, तब तक ये पशु ही हैं। आहारनिद्राभयमैथुनं च समानमेतत् पशुमिनंराणाम्। धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥]

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    विषय

    मोक्षमार्ग का उपदेश ।

    भावार्थ

    मुमुक्षु के लिये उपदेश करते हैं—(यः) जो विभूतियों का अभिलाषी आत्मा (पशूनां) अपनी इन्द्रियों द्वारा ज्ञान करने हारे (चतुष्पदां) चौपाये और (द्विपदां) दो पाये मनुष्य और पक्षियों पर भी (ईशे) अपना वश करता और उनका स्वामी हो जाता है। वह (पशुपतिः) ‘पशुपति ‘ कहता है । (सः) वह (निष्क्रीतः) सब प्रकार से स्वतन्त्र होकर (यज्ञियं) यज्ञयोग्य या परमात्मा सम्बन्धी (भागं) भाग, ऐश्वर्य को (एतु) प्राप्त हो और (रायः पोषाः) धनादि की समस्त विभूतियां और सामर्थ्य (यजमानं) उसी महान् यज्ञकर्ता आत्मसाधक को (सचन्तां) प्राप्त होते हैं ।

    टिप्पणी

    ‘येषां पशुपतिः’ इति पैप्प०, तै० सं०। (द्वि०) ‘यश्च द्विपदाम्’, ‘यजमानस्य सन्तु’ इति तै० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। पशुपतिर्देवता। पशुभागकरणम्। १-४ त्रिष्टुभः। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Way to Freedom, Moksha

    Meaning

    Pashupati, lord ruler and protector of living beings, humans, birds and animals, may, we pray, be kind and gracious to accept our homage offered by yajna and bless the yajamana with health, growth, progress and prosperity.

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    Subject

    Lord of Cattle

    Translation

    May the Lord of cattle and creatures (Pasupati), who rules over quadrupeds as well as bipeds, won over by our prayers, come to this part of the sacrifice. May rāyaspoga (riches and nourishment) in plenty favour the sacrificer.

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    Translation

    May this Pasupatih the fire (the animal beat) which-has its control over the animals—quadruped and which over biped, being favorable get its portion of Yajna. May the growth of prosperity attend the performer of Yajna.

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    Translation

    May God, Who is the Lord of souls, and is the Lord of animals, quadruped and biped, rendered favorable through prayer, and worthy of our adoration, accept our worship. May growth of wealth attend the sacrificer.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १–ईशे। ईश ऐश्वर्ये। लोपस्त आत्मनेपदेषु। पा० ७।१।४१। इति तलोपः। अधीगर्थदयेशां कर्मणि। पा० २।३।५३। इति कर्मणि षष्ठी। ईष्टे। ईश्वरः स्वामी वर्तते। पशुपतिः। अर्जिदृशिकम्यमि०। उ० १।२७। इति दृशिर् प्रेक्षे–कु। पातेर्डतिः। उ० ४। इति पा रक्षणे–डति। पशूनां दृष्टिवतां दृष्टानां वा स्थावरजङ्गमानां जीवानां पाता रक्षिता परमेश्वरः। पशूनाम्। अ० १।२५।२। जीवानाम्। चतुष्पदाम्। संख्यासुपूर्वस्य। पा० ५।२।१४०। इति बहुव्रीहेः पादशब्दान्तस्य लोपः। पादः पत्। पा० ६।४।१३०। इति पाद् इत्यस्य पदादेशो भसंज्ञायाम्। गवादीनाम्। उत। अपि च। द्विपदाम्। पूर्ववत् सिद्धिः। मनुष्यादीनाम्। निष्क्रीतः। निः नितराम्+क्रीञ् मूल्यदानेन द्रव्यग्रहणे–क्त। प्रार्थनादिना अनुकूलीकृतः। यज्ञियम्। यज्ञर्त्विग्भ्यां घखञौ। पा० ५।१।७१। पूजाकर्मार्हम्। भागम्। भज भागसेवयोः–घञ्। अंशम्। भजनम्। एतु। गच्छतु। प्राप्नोतु। रायः। रातेर्डैः। उ० २।६६। इति रा दाने ग्रहणे च–डै। धनस्य। स्वर्णस्य। पोषाः। पुष पुष्टौ धृतौ च–घञ्। समृद्धयः। षष्ठ्याः पतिपुत्र०। पा० ८।३।५३। इति (रायस्पोषाः) अत्र सत्त्वम्। यजमानम्। यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु–शानच्। यष्टारम्। याजकम्। सचन्ताम्। षचङ् सेचने–लोट्। सिञ्चन्तु ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (যঃ) যে (পশুপতিঃ) পশুপতি (চতুষ্পদাম্) চতুষ্পদী (পশূনাম্) পশুদের (ঈশে) অধীশ্বর, (উত) এবং (যঃ) যে (দ্বিপদাম্১) দ্বিপদী এর অধীশ্বর। (সঃ) সে (নিষ্ক্রীতঃ) অনুকূল হয়ে (যজ্ঞিয়ম্) আমার ধ্যান-যজ্ঞ এর (ভাগম্ এতু) ভাগী হোক এবং (যজমান) উপাসনাযজ্ঞ-কর্তা আমাকে (রায়স্পোষাঃ) সম্পত্তির পুষ্টি (সচন্তাম্) প্রাপ্ত হোক।

    टिप्पणी

    [১. দ্বিপদ পশু হল, মনুষ্য। যতক্ষণ পর্যন্ত আহার, নিদ্রা, ভয়, মৈথুনে মনুষ্য প্রবৃত্ত থাকে, ততক্ষণ পর্যন্ত সে পশুই হয়। আহারনিদ্রাভয়মৈথুনং চ সমানমেতৎ পশুমির্নরাণাম্। ধর্মো হি তেষামধিকো বিশেষো ধর্মেণ হীনাঃ পশুভিঃ সমানাঃ॥]

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    मन्त्र विषय

    বন্ধাৎ মোক্ষায়োপদেশঃ

    भाषार्थ

    (যঃ) যিনি (পশুপতিঃ) পশুদের [জীবদের] স্বামী পরমেশ্বর (চতুষ্পদাম্) চতুষ্পদ, (উত)(যঃ) যে (দ্বিপদাম্) দ্বিপদী (পশূনাম্) জীবদের (ঈশে=ইষ্টে) রাজা। (সঃ) সেই পরমেশ্বর (নিষ্ক্রীতঃ) অনুকূল হয়ে (যজ্ঞিয়ম্) আমাদের পূজাযোগ্য (ভাগম্) ভজন বা অংশকে (এতু) প্রাপ্ত হোক। (রায়ঃ) ধন-সম্পদের (পোষাঃ) বৃদ্ধি (যজমানম্) পূজনীয় কর্মকর্তাকে (সচন্তাম্) সীঞ্চিত করতে থাকুক ॥১॥

    भावार्थ

    পরমেশ্বর সকল মনুষ্যাদি দ্বিপদ ও গৌ আদি চতুষ্পদ এবং সকল সংসারের স্বামী, তিনি মনুষ্যদের ধর্মানুকূল চলার ক্ষেত্রে তাঁদের (নিষ্ক্রীতঃ) ইচ্ছাবর্তী হয়ে তাঁদের সকল প্রকারের আনন্দ প্রদান করেন॥১॥

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