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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 1
    ऋषिः - बरुः सर्वहरिर्वा देवता - हरिः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-३०
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    प्र ते॑ म॒हे वि॒दथे॑ शंसिषं॒ हरी॒ प्र ते॑ वन्वे व॒नुषो॑ हर्य॒तं मद॑म्। घृ॒तं न यो हरि॑भि॒श्चारु॒ सेच॑त॒ आ त्वा॑ विशन्तु॒ हरि॑वर्पसं॒ गिरः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । ते॒ । म॒हे । वि॒दथे॑ । शंसि॒ष॒म् । ह॒री इति॑ । ते॒ । व॒न्वे॒ । व॒नुष॑: । ह॒र्य॒तम् । मद॑म् ॥ घृ॒तम् । न । य: । हरि॑ऽभि: । चारु॑ । सेच॑ते । आ । त्वा॒ । वि॒श॒न्तु॒ । हरि॑ऽवर्पसम् । गिरि॑: ॥३०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र ते महे विदथे शंसिषं हरी प्र ते वन्वे वनुषो हर्यतं मदम्। घृतं न यो हरिभिश्चारु सेचत आ त्वा विशन्तु हरिवर्पसं गिरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । ते । महे । विदथे । शंसिषम् । हरी इति । ते । वन्वे । वनुष: । हर्यतम् । मदम् ॥ घृतम् । न । य: । हरिऽभि: । चारु । सेचते । आ । त्वा । विशन्तु । हरिऽवर्पसम् । गिरि: ॥३०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 30; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    बल और पराक्रम का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे शूर !] (महे) बड़े (विदथे) समाज के बीच (ते) तेरे (हरी) दुःख हरनेवाले दोनों बल और पराक्रम की (प्र शंसिषम्) मैं प्रशंसा करता हूँ, और (वनुषः ते) तुझ शूर के (हर्यतम्) कामनायोग्य (मदम्) आनन्द को (प्र वन्वे) माँगता हूँ। (यः) जो आप (हरिभिः) वीर पुरुषों के साथ (घृतम् न) जल के समान (चारु) रमणीय धन को (सेचते) बरसाते हैं, (हरिवर्पसम्) सिंहरूप (त्वा) उस तुझमें (गिरः) स्तुतियाँ (आ) सब ओर से (विशन्तु) प्रवेश करें ॥१॥

    भावार्थ

    बली, पराक्रमी, धनी, दानी पुरुष संसार में बड़ाई पाता है ॥१॥

    टिप्पणी

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-१०।९६।१-। इस सूक्त का मिलान करो ऋग्वेद-म० ३। सू० ४४ ॥ १−(प्र) (ते) तव (महे) मह पूजायाम्-घञर्थे क। महति (विदथे) अ० १।१३।४। विद ज्ञाने अथप्रत्ययः। समाजे (शंसिषम्) शंसु स्तुतौ-लडर्थे लुङ्, अडभावः। स्तौमि (हरी) दुःखहरणशीलौ बलपराक्रमौ (प्र ते) तव (वन्वे) वनु याचने-लट्। अहं याचे (वनुषः) जनेरुसिः। उ० २।११। वन हिंसायाम्-उसि। शत्रुहिंसकस्य शूरस्य (हर्यतम्) भृमृदृशियजि०। उ० ३।११०। हर्य कान्तौ-अतच्। कमनीयम् (मदम्) आनन्दम् (घृतम्) उदकम् (न) इव (यः) भवान् (हरिभिः) वीरमनुष्यैः (चारु) रमणीयं धनम् (सेचते) सिञ्चति। वर्षयति (आ) समन्तात् (त्वा) त्वाम् (विशन्तु) प्रविशन्तु। प्राप्नुवन्तु (हरिवर्पसम्) वृङ्शीङ्भ्यां रूपस्वाङ्गयोः पुट् च। उ० ४।२०१। वृङ् वरणे-असुन् पुट् च। वर्पो रूपनाम-निघ० ३।७। हरे सिंहस्य रूपमिव रूपं यस्य तम्। महाबलवन्तम् (गिरः) स्तुतयः ॥

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    विषय

    घृतं+चारु

    पदार्थ

    १. हे प्रभो! (महे विदथे) = महान् ज्ञानयज्ञ के निमित्त (ते हरी) = आपसे दिये गये इन्द्रियाश्वों का (प्रशंसिषम्) = शंसन करता हूँ। इनके द्वारा मैं इस जीवन-संग्राम में ज्ञानपूर्वक कर्म करता हुआ उन्नति-पथ पर आगे बढ़नेवाला बन्। २. (वनुष:) = शत्रुओं का हिंसन करनेवाले आपसे मैं (ते) = आपके द्वारा दिये जानेवाले (हर्यतम्) = चाहने योग्य [कमनीय] (मदम्) = सोमपानजनित मद को (प्रवन्वे) = प्रकर्षेण माँगता हूँ। ३. (यः) = जो आप (हरिभिः) = इन इन्द्रियाश्वों के द्वारा (घृतं न) = ज्ञानदीप्ति के समान (चारु) = यज्ञादि कर्मों के आचरण को (सेचते) = हममें सिक्त करते हैं, उन (हरिवर्षसम्) = तेजस्वी रूपवाले (त्वा) = आपको (गिरः) = हमारी स्तुतिवाणियाँ (आविशन्तु) = सर्वथा प्रविष्ट हों। आपका हम स्तवन करें। आप हमें ज्ञानदीप्ति व क्रियाशीलता प्राप्त कराएँ।

    भावार्थ

    प्रभु-प्रदत्त इन्द्रियों के महत्व को समझते हुए हम उनसे ज्ञान प्राप्त करते हुए सदा उत्तम कर्म करनेवाले बनें। सोम-रक्षण द्वारा इन्हें सशक्त बनाएँ। प्रभु-स्मरण करते हुए ज्ञान व कर्म का अपने में समुच्चय करें।

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    भाषार्थ

    हे परमेश्वर! (महे) बड़ी-बड़ी (विदथे) ज्ञान-गोष्ठियों में, मैं उपासक (ते हरी) आपके दिये पापहारी ऋग्वेद और सामवेद की (प्रशंसिषम्) प्रशंसा करता हूँ, उनका महत्त्व दर्शाता हूँ। (वनुषः) भजनीय (ते) आपके (हर्यतम्) वाञ्छनीय (मदम्) आनन्दरस की, (प्रवन्वे) मैं भक्तिपूर्वक याचना करता रहता हूँ। (यः) जो आप कि (हरिभिः) पापहारी ऋग्वेदीय स्तुतियों तथा सामवेद के सामगानों के कारण, हम उपासकों पर (घृतं न) घृत के सदृश पुष्टिदायक (चारु) और रचिकर आनन्दरस (सेचते) सींचते रहते हैं। उस (त्वा) आप (हरिवर्पसम्) मनोहारी रूपवाले में (गिरः) हमारी स्तुतियाँ (आ विशन्तु) प्रवेश पा जाएँ।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-integration

    Meaning

    O lord omnipotent, Hari, in your great cosmic yajna, I adore your forces of Rtam and Satyam. Lord of beauty, glory and bliss, I pray for the joy of your ecstatic bliss, which, beautiful and beatific with showers of joy, blesses life on earth as ghrta exalts the sacred fire. May our words of adoration and prayer reach your blissful presence immanent in the universe.

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    Translation

    O Ruler, in the assembly of learned and pious men Í praise your two horses, I ask for the glandness of yours who destroy the enemies and like water paurs things, with the men, to others in well manner. Let these praises touch the heart of you who become a good-looking form.

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    Translation

    O Ruler, in the assembly of learned and pious men I praise your two horses, I ask for the glandness of yours who destroy the enemies and like water paurs things, with the men, to others in well manner. Let these praises touch the heart of you who become a good-looking form.

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    Translation

    O God, king, learned person or electricity, I (a devotee) fully praise Thy two forces of protection and destruction in this great universe, wbichds a great sacrificial place or battlefield of life. I highly cherish Thy beautiful exhilaration, destroying the evil forces of the enemy. Thou showerest various forms of fortunes through Thy. blessing powers of speedy action, like waters from the clouds. Let all praises find their abode in Thee of charming splendour.

    Footnote

    cf. Rig, 10.96. (1-5).

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-१०।९६।१-। इस सूक्त का मिलान करो ऋग्वेद-म० ३। सू० ४४ ॥ १−(प्र) (ते) तव (महे) मह पूजायाम्-घञर्थे क। महति (विदथे) अ० १।१३।४। विद ज्ञाने अथप्रत्ययः। समाजे (शंसिषम्) शंसु स्तुतौ-लडर्थे लुङ्, अडभावः। स्तौमि (हरी) दुःखहरणशीलौ बलपराक्रमौ (प्र ते) तव (वन्वे) वनु याचने-लट्। अहं याचे (वनुषः) जनेरुसिः। उ० २।११। वन हिंसायाम्-उसि। शत्रुहिंसकस्य शूरस्य (हर्यतम्) भृमृदृशियजि०। उ० ३।११०। हर्य कान्तौ-अतच्। कमनीयम् (मदम्) आनन्दम् (घृतम्) उदकम् (न) इव (यः) भवान् (हरिभिः) वीरमनुष्यैः (चारु) रमणीयं धनम् (सेचते) सिञ्चति। वर्षयति (आ) समन्तात् (त्वा) त्वाम् (विशन्तु) प्रविशन्तु। प्राप्नुवन्तु (हरिवर्पसम्) वृङ्शीङ्भ्यां रूपस्वाङ्गयोः पुट् च। उ० ४।२०१। वृङ् वरणे-असुन् पुट् च। वर्पो रूपनाम-निघ० ३।७। हरे सिंहस्य रूपमिव रूपं यस्य तम्। महाबलवन्तम् (गिरः) स्तुतयः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    বলপরাক্রমোপদেশঃ

    भाषार्थ

    [হে বীর!] (মহে) বৃহৎ (বিদথে) সমাজের মধ্যে (তে) তোমার (হরী) দুঃখ হরণকারী বল এবং পরাক্রমের (প্র শংসিষম্) আমি প্রশংসা করি, ও (বনুষঃ তে) বীর তোমার (হর্যতম্) কামনাযোগ্য (মদম্) আনন্দকে (প্র বন্বে) যাচনা করি। (যঃ) যে তুমি (হরিভিঃ) বীরপুরুষদের সাথে (ঘৃতম্ ন) জলের ন্যায় (চারু) রমণীয় ধন (সেচতে) বর্ষিত করো, (হরিবর্পসম্) সিংহরূপ (ত্বা) সেই তোমার মধ্যে (গিরঃ) স্তুতিসমূহ (আ) সকল দিক হতে (বিশন্তু) প্রবেশ করে/করুক ॥১॥

    भावार्थ

    বলবান, পরাক্রমী, ধনী, দাতা পুরুষ সংসারে প্রশংসিত হয় ॥১॥ এই সূক্ত ঋগ্বেদে আছে-১০।৯৬।১-। এই সূক্ত মেলাও ঋগ্বেদ-ম০ ৩। সূ০ ৪৪ ॥

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    भाषार्थ

    হে পরমেশ্বর! (মহে) বৃহতী (বিদথে) জ্ঞান-গোষ্ঠির মধ্যে, আমি উপাসক (তে হরী) আপনার দ্বারা প্রদত্ত পাপহারী ঋগ্বেদ এবং সামবেদের (প্রশংসিষম্) প্রশংসা করি, মহত্ত্ব প্রদর্শিত/প্রকাশ করি। (বনুষঃ) ভজনীয় (তে) আপনার (হর্যতম্) বাঞ্ছনীয় (মদম্) আনন্দরসের, (প্রবন্বে) আমি ভক্তিপূর্বক যাচনা করতে থাকি। (যঃ) যে আপনি (হরিভিঃ) পাপহারী ঋগ্বেদীয় স্তুতি তথা সামবেদের সামগানের কারণে, আমাদের [উপাসকদের ওপর] (ঘৃতং ন) ঘৃতের সদৃশ পুষ্টিদায়ক (চারু) এবং রচিকর আনন্দরস (সেচতে) সীঞ্চন করেন। সেই (ত্বা) আপনার (হরিবর্পসম্) মনোহারী রূপের মধ্যে (গিরঃ) আমাদের স্তুতি (আ বিশন্তু) প্রবেশ প্রাপ্ত হোক/করুক।

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