अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 47/ मन्त्र 1
तमिन्द्रं॑ वाजयामसि म॒हे वृ॒त्राय॒ हन्त॑वे। स वृषा॑ वृष॒भो भु॑वत् ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । इन्द्र॑म् । वा॒ज॒या॒म॒सि॒ । म॒हे । वृ॒त्राय॑ । हन्त॑वे ॥ स: । वृषा॑ । वृ॒ष॒भ: । भु॒व॒त् ॥४७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
तमिन्द्रं वाजयामसि महे वृत्राय हन्तवे। स वृषा वृषभो भुवत् ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । इन्द्रम् । वाजयामसि । महे । वृत्राय । हन्तवे ॥ स: । वृषा । वृषभ: । भुवत् ॥४७.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(तम्) उस (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] को (महे) बड़े (वृत्राय) रोकनेवाले वैरी के (हन्तवे) मारने को (वाजयामसि) हम बलवान् करते हैं [उत्साही बनाते हैं], (सः) वह (वृषा) पराक्रमी (वृषभः) श्रेष्ठ वीर (भुवत्) होवे ॥१॥
भावार्थ
प्रजागण राजा को शत्रुओं के मारने के लिये सहाय करें, और राजा भी प्रजा की भलाई के लिये प्रयत्न करे ॥१॥
टिप्पणी
मन्त्र १-३ ऋग्वेद में है-८।९३ [सायणभाष्य ८२]।७-९; कुछ भेद से सामवेद-उ० ।१। तृच १०। मन्त्र १। पू० २।३। और यह तृच आगे है-अथ० २०।१३७।१२-१४ ॥ १−(तम्) प्रसिद्धम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं राजानम् (वाजयामसि) बलवन्तं कुर्मः। उत्साहयामः (महे) द्वितीयार्थे चतुर्थी। महान्तम् (वृत्राय) आवरकं, शत्रुम् (हन्तवे) मारयितुम् (सः) (वृषा) पराक्रमी (वृषभः) श्रेष्ठो वीरः (भुवत्) भवेत् ॥
विषय
वृत्र-हनन व सुख-वर्षण
पदार्थ
१. हम (तम् इन्द्रम्) = सब शत्रुओं के संहारक उस प्रभु को (वाजयामसि) = अपने अन्दर गतिवाला करते हैं, अर्थात् उस प्रभु का पूजन करते हैं। वे प्रभु हमारे (महे वृत्राय) = महान् शत्र वृत्र के (हन्तवे) = विनाश के लिए होते हैं। ज्ञान की आवरणभूत वासना को वे प्रभु ही विनष्ट करते हैं। (सः) = वे प्रभु (वृषा) = सब सुखों का वर्षण करनेवाले व शक्तिशाली हैं। हमारे शत्रुओं को नष्ट करके हमारे लिए (वृषभः भवत्) = सुखों का वर्षण करनेवाले होते हैं।
भावार्थ
हम प्रभु का पूजन करें। प्रभु हमारे शत्रुओं का विनाश करके हमपर सुखों का वर्षण करेंगे।
भाषार्थ
(वृत्राय) आत्मिक शक्तियों पर आवरण डालनेवाले (महे) महावृत्र अर्थात् अविद्या के (हन्तवे) हनन के लिए, (तम् इन्द्रम्) उस परमेश्वर की हम (वाजयामसि) अर्चनाएँ करते हैं। (सः) वह (वृषा) आनन्दरसवर्षी (वृषभः) हम पर सुखों की वर्षा करनेवाला (भुवत्) हो।
टिप्पणी
[महे वृत्राय—महावृत्र है अविद्या, अर्थात् अनित्य, अशुचि, दुःख और अनात्मा को नित्य, शुचि, सुख और आत्मा समझ बैठना। यथा—अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या (योग २.५); तथा अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम् (योग २.४); अर्थात् अविद्या जन्मभूमि है अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश की। वाजयामसि, वाजति=अर्चतिकर्मा (निघं০ ३.१४)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
That Indra, dynamic and enlightened mind and intelligence, we cultivate and strengthen for the elimination of the great waste, deep ignorance and suffering prevailing in the world. May that light and mind be exuberant and generous for us with showers of enlightenment.
Translation
We praise the strength of Almighty God to dispel great darkness of ignorance. He is vigorous and the pourer of wealth.
Translation
We praise the strength of Almighty God to dispel great darkness of ignorance. He is vigorous and the pourer of wealth.
Translation
Let us enhance the glory of the Mighty Lord of Destruction for the destruction of the great obscuring demon of ignorance. Let the most Powerful God shown His blessings on us.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
मन्त्र १-३ ऋग्वेद में है-८।९३ [सायणभाष्य ८२]।७-९; कुछ भेद से सामवेद-उ० ।१। तृच १०। मन्त्र १। पू० २।३। और यह तृच आगे है-अथ० २०।१३७।१२-१४ ॥ १−(तम्) प्रसिद्धम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं राजानम् (वाजयामसि) बलवन्तं कुर्मः। उत्साहयामः (महे) द्वितीयार्थे चतुर्थी। महान्तम् (वृत्राय) आवरकं, शत्रुम् (हन्तवे) मारयितुम् (सः) (वृषा) पराक्रमी (वृषभः) श्रेष्ठो वीरः (भुवत्) भवेत् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(তম্) সেই (ইন্দ্রম্) ইন্দ্রকে [পরম ঐশ্বর্যবান রাজাকে] (মহে) বৃহৎ (বৃত্রায়) প্রতিহতকারী শত্রুদের (হন্তবে) হননের জন্য (বাজয়ামসি) আমরা বলবান করি [উৎসাহ প্রদান করি], (সঃ) সেই (বৃষা) পরাক্রমী (বৃষভঃ) শ্রেষ্ঠবীর (ভুবৎ) হোক ॥১॥
भावार्थ
প্রজাগণ রাজার শত্রু হননে সহায়তা করুক, এবং রাজাও প্রজার কল্যাণের জন্য প্রচেষ্টা করে/করুক ॥১॥ মন্ত্র ১-৩ ঋগ্বেদে আছে-৮।৯৩ [সায়ণভাষ্য ৮২]।৭-৯; কিছুটা আলাদাভাবে আছে সামবেদ-উ০ ।১। তৃচ ১০। মন্ত্র ১। পূ০ ২।৩। এবং এই তৃচ আছে-অথ০ ২০।১৩৭।১২-১৪ ॥
भाषार्थ
(বৃত্রায়) আত্মিক শক্তির ওপর আবরণকারী (মহে) মহাবৃত্র অর্থাৎ অবিদ্যার (হন্তবে) হননের জন্য, (তম্ ইন্দ্রম্) সেই পরমেশ্বরের আমরা (বাজয়ামসি) অর্চনা করি। (সঃ) সেই (বৃষা) আনন্দরসবর্ষী (বৃষভঃ) আমাদের ওপর সুখের বর্ষণকারী (ভুবৎ) হন।
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