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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 82 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 82/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-८२
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    यदि॑न्द्र॒ याव॑त॒स्त्वमे॒ताव॑द॒हमीशी॑य। स्तो॒तार॒मिद्दि॑धिषेय रदावसो॒ न पा॑प॒त्वाय॑ रासीय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । इ॒न्द्र॒ । याव॑त: । त्वम् । ए॒ताव॑त् । अ॒हम् । ईशी॑य ॥ स्तो॒तार॑म् । इत् । दि॒धि॒षे॒य॒ । र॒द॒व॒सो॒ इति॑ रदऽवसो । न । पा॒प॒ऽत्वाय॑ । रा॒सी॒य॒ ॥८२.१‍॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदिन्द्र यावतस्त्वमेतावदहमीशीय। स्तोतारमिद्दिधिषेय रदावसो न पापत्वाय रासीय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । इन्द्र । यावत: । त्वम् । एतावत् । अहम् । ईशीय ॥ स्तोतारम् । इत् । दिधिषेय । रदवसो इति रदऽवसो । न । पापऽत्वाय । रासीय ॥८२.१‍॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 82; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    राजपुरुषों और प्रजाजनों के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (रदावसो) हे धनों के खोदनेवाले ! (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (त्वम्) तू (यावतः) जितने धन का [स्वामी है, उसमें से] (अहम्) मैं (एतावत्) इतने का (ईशीय) स्वामी हो जाऊँ, (यत्) जितने से (स्तोतारम्) गुणव्याख्याता [विद्वान्] को (इत्) अवश्य (दिधिषेय) पोषण करूँ और (पापत्वाय) पाप होने के लिये [उसको] (न)(रासीय) दूँ ॥१॥

    भावार्थ

    राजा प्रजा परस्पर ऐसी प्रीति रक्खें कि सब लोग विद्वान् होवें और पदार्थों के गुण जानकर धर्म से एक-दूसरे का पालन करें और कभी पाप कर्म न करें ॥१॥

    टिप्पणी

    दोनों मन्त्र ऋग्वेद में हैं-७।३२।१८, १९। साम० उ० ९”।२।९, मन्त्र १ साम०-पू० ४।२।८ ॥ १−(यत्) यावता धनेन (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (यावतः) यत्परिमाणस्य धनस्य (त्वम्) ईशिषे इति शेषः, तस्मात् इति च (एतावत्) षष्ठ्या लुक्। एतावतो धनस्य (अहम्) (ईशीय) ईश्वरः स्वामी भवेयम् (स्तोतारम्) गुणव्याख्यातारं विद्वांसम् (इत्) अवश्यम् (दिधिषेय) धि धारणे-सन्, विधिलिङ् आत्मनेपदं छान्दसम्। धर्तुमिच्छेयम्। धरेयम् (रदावसो) रद विलेखने-अच्। रदति उत्खनति वसूनि धनानि यस्तत्-सम्बुद्धौ (न) निषेधे (पापत्वाय) पापस्य भावाय (रासीय) दद्याम् ॥

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    विषय

    धन से पुण्य वृद्धि

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (यत्) = यदि (यावत:) = जिसने धन के (त्वम्) = [ईशीय] आप ईश हैं, (एतावत्) = इतने धन का (अहम्) = मैं (ईशीय) = स्वामी होऊँ तो (इत) = निश्चय से (स्तोतारम्) = प्रभु के स्तोता का ही (दिधेषेय) = मैं धारण करूँ। २. हे रदावसो सब धनों के देनेवाले प्रभो। मैं (पापत्वाय) = पाप की वृद्धि के लिए (न रासीय) = कभी भी देनेवाला न होऊँ। मेरा धन उत्तम कार्यों के विस्तार का ही कारण बने। मेरे धन से कभी पापवृद्धि न हो।

    भावार्थ

    यदि मैं प्रभु के अनुग्रह से धनों का स्वामी बनें तो सदा स्तोतजनों के लिए न कि पापियों के लिए उस धन का देनेवाला बनें।

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    भाषार्थ

    (इन्द्र) हे परमेश्वर! (यावतः) जितने ऐश्वर्य के (त्वम्) आप अधीश्वर हैं, (एतावत्) इतने ऐश्वर्य का (यद्) यदि (ईशीय) मैं अधीश्वर बन जाऊँ, तो मैं आप के (स्तोतारम्) स्तोता का (इत्) ही केवल (दिधिषेय) धारण-पोषण करूँ। (रदावसो) हे सम्पत्तियों के दाता! मैं आप की दी हुई सम्पत्तियों को (पापत्वाय) पापी को पाप कर्म करने के लिए (न रासीय) न दूं। [रदावसो=रा (दाने)+दा (दाने)+वसु (सम्पत्ति)]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    Indra, lord ruler of the world, giver of wealth and excellence, as much as you grant, so much I wish I should control and rule. I would hold it only to support the devotees of divinity and would not spend it away for those who indulge in sin and evil.

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    Translation

    O bounteous Almighty God, had I been the lord of abundant riches as you possess as your own I would have supported the devotee and would not have abondoned to him who does Sins.

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    Translation

    O bounteous Almighty God, had I been the lord of abundant riches as you possess as your own I would have supported the devotee and would not have abandoned to him who does sins.

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    Translation

    O Mighty Lord of fortunes, if I become the master of as much wealth as Thou hast, I would maintain and nourish the praise-singer alone and would not, O Scatterer of Wealth, give it away for sin and evil.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    दोनों मन्त्र ऋग्वेद में हैं-७।३२।१८, १९। साम० उ० ९”।२।९, मन्त्र १ साम०-पू० ४।२।८ ॥ १−(यत्) यावता धनेन (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (यावतः) यत्परिमाणस्य धनस्य (त्वम्) ईशिषे इति शेषः, तस्मात् इति च (एतावत्) षष्ठ्या लुक्। एतावतो धनस्य (अहम्) (ईशीय) ईश्वरः स्वामी भवेयम् (स्तोतारम्) गुणव्याख्यातारं विद्वांसम् (इत्) अवश्यम् (दिधिषेय) धि धारणे-सन्, विधिलिङ् आत्मनेपदं छान्दसम्। धर्तुमिच्छेयम्। धरेयम् (रदावसो) रद विलेखने-अच्। रदति उत्खनति वसूनि धनानि यस्तत्-सम्बुद्धौ (न) निषेधे (पापत्वाय) पापस्य भावाय (रासीय) दद्याम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজপ্রজাজনকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (রদাবসো) হে ভূ-তলস্থ ধন উন্মোচনকারী ! (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র ! [পরম ঐশ্বর্যবান্ রাজন্] (ত্বম্) তুমি (যাবতঃ) যত সম্পদের [স্বামী, তার মধ্য থেকে] (অহম্) আমি (এতাবৎ) এত ধনের (ঈশীয়) স্বামী/অধিকারী হই, (যৎ) যা দ্বারা আমি (স্তোতারম্) গুণব্যাখ্যাতা [বিদ্বান্]কে (ইৎ) অবশ্যই (দিধিষেয়) পোষণ করি এবং (পাপত্বায়) পাপ হওয়ার সম্ভাবনায় [তা] (ন) না (রাসীয়) প্রদান করি॥১॥

    भावार्थ

    রাজা প্রজা পরস্পরের প্রতি এমন প্রীতিভাব রাখবে যেন সকল মনুষ্য বিদ্বানে হয় এবং পদার্থসমূহের গুণ জ্ঞাত হয়ে ধার্মাচরণপূর্বক একে অপরের পালন করে এবং কদাপি পাপ কর্ম যেন না করে॥১॥ উভয় মন্ত্র ঋগ্বেদে বিদ্যমান-৭।৩২।১৮, ১৯। সাম০ উ০ ৯।২।৯, মন্ত্র ১ সাম০-পূ০ ৪।২।৮ ॥

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    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (যাবতঃ) যত ঐশ্বর্যের (ত্বম্) আপনি অধীশ্বর, (এতাবৎ) তত ঐশ্বর্যের (যদ্) যদি (ঈশীয়) আমি অধীশ্বর হই, তবে আমি আপনার (স্তোতারম্) স্তোতার (ইৎ) ই কেবল (দিধিষেয়) ধারণ-পোষণ করবো। (রদাবসো) হে সম্পত্তির দাতা! আমি আপনার প্রদত্ত সম্পত্তি-সমূহকে (পাপত্বায়) পাপীকে পাপ কর্ম করার জন্য (ন রাসীয়) না দেবো/প্রদান করবো। [রদাবসো=রা (দানে)+দা (দানে)+বসু (সম্পত্তি)]

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