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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 91 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 91/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९१
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    इ॒मां धियं॑ स॒प्तशी॑र्ष्णीं पि॒ता न॑ ऋ॒तप्र॑जातां बृह॒तीम॑विन्दत्। तु॒रीयं॑ स्विज्जनयद्वि॒श्वज॑न्यो॒ऽयास्य॑ उ॒क्थमिन्द्रा॑य॒ शंस॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒माम् । धिय॒म् । स॒प्तऽशी॑र्ष्णीम् । पि॒ता । न॒: । ऋ॒तऽप्र॑जाताम् । बृह॒तीम् । अ॒वि॒न्द॒त् ॥ तु॒रीय॑म् । स्वि॒त् । ज॒न॒य॒त् । वि॒श्वऽज॑न्य: । अ॒यास्य॑ । उ॒क्थम् । इन्द्रा॑य । शंस॑न् ॥९१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमां धियं सप्तशीर्ष्णीं पिता न ऋतप्रजातां बृहतीमविन्दत्। तुरीयं स्विज्जनयद्विश्वजन्योऽयास्य उक्थमिन्द्राय शंसन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमाम् । धियम् । सप्तऽशीर्ष्णीम् । पिता । न: । ऋतऽप्रजाताम् । बृहतीम् । अविन्दत् ॥ तुरीयम् । स्वित् । जनयत् । विश्वऽजन्य: । अयास्य । उक्थम् । इन्द्राय । शंसन् ॥९१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 91; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    परमात्मा के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (नः) हमारे (पिता) पिता [मनुष्य] ने (ऋतप्रजाताम्) सत्य [अविनाशी परमात्मा] से उत्पन्न हुई (सप्तशीर्ष्णीम्) [दो कान, दो नथने, दो आँखें, और एक मुख-अ० १०।२।६] सात गोलकों में शिर [आश्रय रखनेवाली,] (इमाम्) इस (बृहतीम्) बड़ी (धियम्) बुद्धि को (अविन्दत्) पाया है। और (विश्वजन्यः) उस सब मनुष्यों के हितकारी, (अयास्यः) शुभ कर्मों में स्थिति रखनेवाले मनुष्य ने (इन्द्राय) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर] की (स्वित्) ही (शंसन्) स्तुति करते हुए [तुरीयम्] बलयुक्त (उक्थम्) वचन को (जनयत्) प्रकट किया है ॥१॥

    भावार्थ

    परमात्मा की जिस सत्य वेदवाणी को पूर्वज लोग परम्परा से परीक्षा करके ग्रहण करते आये हैं, विद्वान् लोग उसी वेदवाणी पर चलकर परमेश्वर की स्तुति करते हुए अपने आत्मा को बढ़ावें ॥१॥

    टिप्पणी

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-१०।६७।१-१२ ॥ १−(इमाम्) प्रत्यक्षाम् (श्रियम्) प्रज्ञाम् (सप्तशीर्ष्णीम्) शीर्षंश्छन्दसि। पा० ६।१।६०। शीर्षन्निति शब्दान्तरं शिरःशब्देन समानार्थम्, ङीप्। कर्णौ नासिके चक्षणी मुखम्-अ० १०।२।६। इति सप्तसु छिद्रेषु शिर आश्रयो यस्यास्ताम् (पिता) जनकः (नः) अस्माकम् (ऋतप्रजाताम्) सत्यात् परमेश्वरात् प्रादुर्भूताम् (बृहतीम्) महतीम् (अविन्दत्) लब्धवान् (तुरीयम्) तुर वेगे-क। घच्छौ च। पा० ४।४।११७। तुर-छप्रत्ययः, तत्र भव इत्यर्थे। बलयुक्तम् (स्वित्) अवधारणे (जनयत्) अजनयत्। प्रकटीकृतवान् (विश्वजन्यः) सर्वजनहितः पुरुषः (अयास्यः) इण् गतौ-अच्+आस उपवेशने-क्यप्, टाप्। अयेषु शुभकर्मसु आस्या स्थितिर्यस्य सः (उक्थम्) वचनम् (इन्द्राय) परमैश्वर्यवते जगदीश्वराय (शंसन्) स्तुतिं कुर्वन् ॥

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    विषय

    तुरीयावस्था में पहुंचना

    पदार्थ

    १. (इमां धियम्) = इस कर्मों व बुद्धि का धारण करनेवाली-हमारे कर्तव्यों का प्रतिपादन करनेवाली तथा ज्ञान को बढ़ानेवाली (समशीणीम्) = गायत्री आदि सात छन्दोंरूप सिरोंवाली (ऋत प्रजाताम्) = ऋत के लिए प्रादुर्भूत हुई-हुई, यज्ञ आदि उत्तम कर्मों के प्रतिपादन के लिए उत्पन्न हुई-हुई (बृहतीम्) = वृद्धि की कारणभूत इस वेदवाणी को पिता-हम सबके पिता प्रभु ने (न:) = हमारे लिए (अविन्दत्) = प्राप्त कराया [अवेदयत]। २. इस वेदज्ञान को प्राप्त करके मनुष्य (विश्वजन्यः) = सब लोगों के हित को करनेवाला होता है। (अयास्यः) = अनथक श्रमवाला होता है। (इन्द्राय) = परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिए (उक्थम्) = स्तोत्रों का (शंसन्) = उच्चारण करनेवाला होता है। इसप्रकार जीवन को उत्तम बनाता हुआ (स्वित्) = निश्चय से (तरीयम्) = तुरीयावस्था को (जनयत्) = अपने में विकसित करता है। इस अवस्था में यह 'वैश्वानर-तैजस-व प्राज्ञ' बनकर 'शान्त-शिव अद्वैत' स्थिति में पहुँचता हैं।

    भावार्थ

    हम प्रभु से दी गई वेदवाणी को प्राप्त करें-इसके अनुसार लोकहित में प्रवत्त हों, अनथकरूप से कार्य करें, प्रभु का स्तवन करें और समाधि की स्थिति तक पहुँचने को अपना लक्ष्य बनाएँ।

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    भाषार्थ

    (सप्तशीर्ष्णीम्) शिरोभूत अर्थात् मुख्य ७ छन्दोंवाली, (ऋतप्रजाताम्) सत्यस्वरूप परमेश्वर से प्रकट हुई, या यथार्थज्ञान के प्रदान के लिए प्रकट हुई, (इमाम्) इस (धियम्) ज्ञानमयी (बृहतीम्) महा-वाणी अर्थात् वेदवाणी को, (नः पिता) हम सबके पिता परमेश्वर ने, (अविन्दत्) हमें दिया है (विश्वजन्यः) विश्वजन हितकारी परमेश्वर ने (अयास्यः) विना किसी प्रयास के (इन्द्राय) जीवात्मा के प्रति (उक्थम्) वैदिक-सूक्तियों का (शंसन्) कथन करते हुए, (तुरीयं स्वित्) केवल चतुर्थांश ज्ञान को (जनयत्) प्रकट किया है।

    टिप्पणी

    [तुरीयम्=यजुर्वेद के पुरुषसूक्त में परमेश्वर-पुरुष का वर्णन ‘चतुष्पाद’ रूप में हुआ है। उसका एक पाद अर्थात् चतुर्थांश जगद्रूप तथा अमृतत्व (मोक्ष) रूप है। इसी एक-पाद में समग्र भूमि और भूमिष्ठ तत्त्व, तथा भूत-भौतिक जगत् समाविष्ट हैं। परमेश्वर के अवशिष्ट तीन पादों का जगत् की रचना, स्थिति और प्रलय के साथ कोई सम्बन्ध नहीं, त्रिपादरूप में परमेश्वर जगत् से ऊर्ध्व है, और इसका एक पाद ही पुनः-पुनः आविर्भूत होता रहता है। इस दृष्टि से मन्त्र में वैदिकज्ञान को “तुरीय” कहा है। माण्डूक्योपनिषद् में परमेश्वर के “तुर्य” रूप का वर्णन है, तुर्य=तुरीय। अयास्यः—परमेश्वर से चारों वेद प्रकट हुए हैं। इन के प्रकाशन में परमेश्वर को कोई प्रयास नहीं करना पड़ता, जैसे कि श्वास-प्रश्वास में हमें यत्न या प्रयास नहीं करना पड़ता। श्वासोच्छ्वास क्रिया स्वभावः विना प्रयास के हो रही है, जागते सोते—यह क्रिया विना परिश्रम और प्रयत्न के हो रही है। इसी प्रकार चारों वेद परमेश्वर के निःश्वासरूप हैं, अप्रयत्न-साध्य हैं। यथा—“स यथाऽऽद्रैधाग्नेरभ्याहितात्पृथग् धूमा विनिश्चरन्ति, एवं वा अरेऽस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतत् यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरसः” (बृहदा০ उप০ २.४.१०)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brhaspati Devata

    Meaning

    Our father creator, omniscient lord divine, revealed for us this universal voice of knowledge spontaneously. Structured in seven metres, it is born of the lord’s awareness of Satyam and Rtam, i.e., the eternal and mutable truth of existence and its laws of evolution, sustenance and involution. He, the original source of the birth of the universe and its knowledge and language, also revealed the fourth and silent mode of existence in the transcendent state of Moksha beyond the earlier three of Dharma, Artha and Kama without effort and spoke it for Indra, the soul. Our father creator, omniscient lord divine, revealed for us this universal voice of knowledge spontaneously. Structured in seven metres, it is born of the lord’s awareness of Satyam and Rtam, i.e., the eternal and mutable truth of existence and its laws of evolution, sustenance and involution. He, the original source of the birth of the universe and its knowledge and language, also revealed the fourth and silent mode of existence in the transcendent state of Moksha beyond the earlier three of Dharma, Artha and Kama without effort and spoke it for Indra, the soul.

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    Translation

    The performer of Yajna desiring the well-being of world and firm in his intention says :— I firm in intention and desirous of universal well-being offering the adoration to Almighty God preach my fourth generation this vedic knowledge and speech which contains seven metres, is comprehensive, is produced by God and has been received by my grand-father and father.

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    Translation

    The performer of Yajna desiring the well-being of world and firm in his intention says -— I firm in intention and desirous of universal well-being offering the adoration to Almighty God preach my fourth generation this vedic knowledge and speech which contains seven metres, is comprehensive, is produced by God and has been received by my grand-father and father.

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    Translation

    The brave learned persons, glowing with spiritual splendor, sons of the Radiant, All-pervading God, preaching the true laws of nature, and deeply immersed in meditation of straightforward Godhead, upholding the highest state of spiritual knowledge and vision, are engrossed in perpetual meditation of the highest splendor of the Adorable God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-१०।६७।१-१२ ॥ १−(इमाम्) प्रत्यक्षाम् (श्रियम्) प्रज्ञाम् (सप्तशीर्ष्णीम्) शीर्षंश्छन्दसि। पा० ६।१।६०। शीर्षन्निति शब्दान्तरं शिरःशब्देन समानार्थम्, ङीप्। कर्णौ नासिके चक्षणी मुखम्-अ० १०।२।६। इति सप्तसु छिद्रेषु शिर आश्रयो यस्यास्ताम् (पिता) जनकः (नः) अस्माकम् (ऋतप्रजाताम्) सत्यात् परमेश्वरात् प्रादुर्भूताम् (बृहतीम्) महतीम् (अविन्दत्) लब्धवान् (तुरीयम्) तुर वेगे-क। घच्छौ च। पा० ४।४।११७। तुर-छप्रत्ययः, तत्र भव इत्यर्थे। बलयुक्तम् (स्वित्) अवधारणे (जनयत्) अजनयत्। प्रकटीकृतवान् (विश्वजन्यः) सर्वजनहितः पुरुषः (अयास्यः) इण् गतौ-अच्+आस उपवेशने-क्यप्, टाप्। अयेषु शुभकर्मसु आस्या स्थितिर्यस्य सः (उक्थम्) वचनम् (इन्द्राय) परमैश्वर्यवते जगदीश्वराय (शंसन्) स्तुतिं कुर्वन् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    পরমাত্মগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (নঃ) আমাদর (পিতা) পিতা [মনুষ্য] (ঋতপ্রজাতাম্) সত্য [অবিনাশী পরমাত্মা] হতে উৎপন্ন হয়ে (সপ্তশীর্ষ্ণীম্) [দুই কান, দুই নাসারন্ধ্র, দুই চোখ এবং এক মুখ -অ০ ১০।২।৬] সপ্ত গোলককে শির-এ [আশ্রয় প্রদায়ী] (ইমাম্) এই (বৃহতীম্) বৃহৎ (ধিয়ম্) বুদ্ধি (অবিন্দৎ) প্রাপ্ত হয়েছে। (বিশ্বজন্যঃ) সকল মনুষ্যের হিতকারী, (অয়াস্যঃ) শুভ কর্মে স্থিত মনুষ্য (ইন্দ্রায়) ইন্দ্রের [পরম ঐশ্বর্যবান জগদীশ্বরের] (স্বিৎ)(শংসন্) স্তুতি-গায়ন পূর্বক [তুরীয়ম্] বলযুক্ত (উক্থম্) বচন (জনয়ৎ) প্রকট করেছে॥১॥

    भावार्थ

    পরমাত্মা কৃত যে সত্য বেদবাণীকে পূর্বপুরুষরি পরম্পরার মাধ্যমে নিরীক্ষণপূর্বক গ্রহণ করে এসেছে, বিদ্বানগণ সেই বেদবাণীর পালন করে পরমেশ্বরের স্তুতি করে নিজ আত্মাকে সমৃদ্ধ করে/করুক ॥১॥ এই সূক্ত ঋগ্বেদ -১০।৬৭।১-১২ ॥ এ আছে।

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    भाषार्थ

    (সপ্তশীর্ষ্ণীম্) শিরোভূত অর্থাৎ মুখ্য ৭ ছন্দযুক্ত, (ঋতপ্রজাতাম্) সত্যস্বরূপ পরমেশ্বর দ্বারা প্রকটিত, বা যথার্থজ্ঞান প্রদানের জন্য প্রকটিত, (ইমাম্) এই (ধিয়ম্) জ্ঞানময়ী (বৃহতীম্) মহা-বাণী অর্থাৎ বেদবাণীকে, (নঃ পিতা) আমাদের সকলের পিতা পরমেশ্বর, (অবিন্দৎ) আমাদের প্রদান করেছেন (বিশ্বজন্যঃ) বিশ্বজন হিতকারী পরমেশ্বর (অয়াস্যঃ) কোনোরকম প্রয়াস ছাড়া (ইন্দ্রায়) জীবাত্মার প্রতি (উক্থম্) বৈদিক-সূক্তি-সমূহের (শংসন্) কথন করে, (তুরীয়ং স্বিৎ) কেবল চতুর্থাংশ জ্ঞান (জনয়ৎ) প্রকট করেছেন।

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