अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 22/ मन्त्र 1
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - तक्मनाशनः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - तक्मनाशन सूक्त
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अ॒ग्निस्त॒क्मान॒मप॑ बाधतामि॒तः सोमो॒ ग्रावा॒ वरु॑णः पू॒तद॑क्षाः। वेदि॑र्ब॒र्हिः स॒मिधः॒ शोशु॑चाना॒ अप॒ द्वेषां॑स्यमु॒या भ॑वन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नि: । त॒क्मान॑म् । अप॑ । बा॒ध॒ता॒म् । इ॒त: । सोम॑: । ग्रावा॑ । वरु॑ण: । पू॒तऽद॑क्षा । वेदि॑: । ब॒र्हि: । स॒म्ऽइध॑: । शोशु॑चाना: । अप॑ । द्वेषां॑सि । अ॒मु॒या॒ । भ॒व॒न्तु॒ ॥२२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निस्तक्मानमप बाधतामितः सोमो ग्रावा वरुणः पूतदक्षाः। वेदिर्बर्हिः समिधः शोशुचाना अप द्वेषांस्यमुया भवन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठअग्नि: । तक्मानम् । अप । बाधताम् । इत: । सोम: । ग्रावा । वरुण: । पूतऽदक्षा । वेदि: । बर्हि: । सम्ऽइध: । शोशुचाना: । अप । द्वेषांसि । अमुया । भवन्तु ॥२२.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
रोग नाश करने का उपदेश।
पदार्थ
(अग्निः) ज्ञानवान्, (सोमः) तत्त्व मन्थन करनेवाला, (ग्रावा) सूक्ष्मदर्शी, (वरुणः) वरणयोग्य, (पूतदक्षाः) पवित्रबल करनेवाला, (शोशुचानाः) बहुत जलते हुए (समिधः) इन्धन के समान (बर्हिः) प्रकाशमान (वेदिः) पण्डित (इतः) यहाँ से (तक्मानम्) दुःखित जीवन करने हारे ज्वर को (अप बाधताम्) निकाल देवे। (द्वेषांसि) हमारे सब अनिष्ट (अमुया) उधर (अप भवन्तु) हट जावें ॥१॥
भावार्थ
जिस प्रकार सद्वैद्य रोगों की चिकित्सा करता है, उसी प्रकार सब मनुष्य आत्मदोषों का प्रतीकार करें ॥१॥
टिप्पणी
१−(अग्निः) विद्वान् (तक्मानम्) अ० १।२५।१। कृच्छ्रजीवनकरं ज्वरम् (अप बाधताम्) निवारयतु (इतः) अस्माद् देशात् पुरुषाद्वा (सोमः) तत्त्वमन्थिता (ग्रावा) अ० ५।२०।१०। शास्त्रविज्ञापकः। सूक्ष्मदर्शी (वरुणः) वरणयोग्यः। श्रेष्ठः (पूतदक्षाः) दक्ष वृद्धौ शैघ्र्ये च−असुन्। दक्षो बलनाम−निघ० २।९। पूतं पवित्रं दक्षो बलं यस्मात् सः (वेदिः) हृपिषिरुहिवृतिविदि०। उ० ४।११९। इति विद ज्ञाने−इन्। पण्डितः (बर्हिः) बृंहेर्नलोपश्च। उ० २।१०९। इति बृहि वृद्धौ दीप्तौ च−इसि। प्रवृद्धं कर्म। दीप्तियुक्तः (समिधः) सम्+ञिइन्धी दीप्तौ−क्विप्। इन्धनानि (शोशुचानाः) अ० ४।११।३। देदीप्यमानाः (अप) अपगतानि (द्वेषांसि) अप्रियाणि वस्तूनि (अमुया) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति विभक्तेर्याच्। परस्मिन्देशे (भवन्तु) सन्तु ॥
विषय
नीरोगता, पवित्र बल, निद्वेषता
पदार्थ
१. (अग्निः) = शरीर की उचित (ऊष्मा इत:) = यहाँ से शरीर से (तक्मानम्) = जीवन को कष्टमय बनानेवाले रोग को (अपबाधताम्) = दूर रोकनेवाली हो। (सोमः) = शरीरस्थ वीर्य धातु ग्रावा-[अश्मा भवतु नस्तुनः] पत्थर के समान दृढ़ शरीर, (वरुण:) = द्वेष का निवारण-निद्वेषता-ये सब (पूतदक्षा:) = शरीर के बल को पवित्र करनेवाले हों। २. (वेदिः) = यज्ञ की वेदि, (बर्ही:) = वेदि को आस्तीर्ण करनेवाली कुशा घास, (समिधः) = समिधाएँ-ये सब (शोशुचाना:) = हमारे घरों में दीस होती हुई हों। यज्ञों के द्वारा ही रोगरूप शत्रुओं का प्रणोदन होगा। अमुया इस सारी प्रक्रिया से (द्वेषांसि अपभवन्तु) = द्वेष हमारे घरों से दूर हो जाएँ। वस्तुत: स्वस्थ शरीर व यज्ञादि कर्म निषता को उत्पन्न करते हैं।
भावार्थ
शरीर की उचित ऊष्मा हमें नीरोग बनाए। वीर्य-दृढ़ शरीर व निट्टेषता हमारे बलों को पवित्र करें। वेदि, कुशा व समिधाएँ आदि सब यज्ञ-सामग्री हमारे घरों में दीप्त हों, जिससे हमारे जीवन एकदम द्वेषशून्य बनें।
भाषार्थ
(अग्निः) यज्ञियाग्नि, (सोमः) सोम औषधि, (ग्रावा) विद्वान् वैद्य, (पूतदक्षाः वरुणः ) पवित्रकारी बलवाला उत्तम जल (इतः) इस रोगी या स्थान से (तक्मानम्)१ जीवन-कष्टप्रद ज्वर को (अपवाधताम्) हटाएँ। (वेदिः वर्हिः) वेदी और कुशास्तरण, (समिधः) यज्ञिय [वृक्षों की] समिधाएँ (शोशुचानाः) अग्नि द्वारा चमकती हुई (भवन्तु) हों, ( अमुया) उस विधि से (द्वेषांसि) द्वेषकारी रोगकीटाणु (अप) अपगत हों।
टिप्पणी
[तक्मा=तकि कृच्छ्रजीवने (भ्वादिः)। ग्रावा=विद्वांसो हि ग्रावाणः (श०ब्रा० ३.९.३.४) वरुणः= उत्तमं जलम् (उणा० ३.५३, दयानन्द): शुद्धजल, जलचिकित्सा के लिए। अमुया=अमुना (सुपां सुलुक, अष्टा० ७.१.३९) द्वारा "या"। वेदि: और बर्हि:=यज्ञनिमित्त बैठने के लिए। समिधः= यज्ञिय वृक्षों को। यज्ञिय वृक्ष=आम, पलाश, शमी, पीपल, बड़, गूलर, बिल्व (संस्कारविधि, दयानन्द)। यज्ञिय वृक्षों की समिधाएँ भी रोगनाशक हैं।] [१. सूक्त में तक्मा का वर्णन पुरुषविध में हुआ है। कविता शैली में तक्मा को चेतन "कल्पित" कर वर्णित किया है, देखो मन्त्र १३ की व्याख्या। " तक्मा" का अर्थ है "जीवन को कृच्छ्र्रमय कर देनेवाला ज्वर", चाहे वह मलेरिया हो, सिर का ज्वर हो, अन्य प्रकार का ज्वर हो।]
विषय
ज्वर का निदान और चिकित्सा।
भावार्थ
(अग्नि:) अग्नि, (सोमः) सोम, (ग्रावा) सोम को कूटने वाले प्रस्तर, (वरुणः) वरुण ये सब (पूत-दक्षाः) पवित्र बल वाले हों ओर (वेदिः) यज्ञमय वेदि, (बर्हिः) धान्य या कुशा, (समिधः) काष्ठ, लकड़ियें (शोशुचानाः) देदीप्यमान होकर (तक्मा नम्) ज्वर को (अप बाधताम्) दूर करें, आने से रोकें और हमारे (द्वेषांसि) द्वेष के पात्र जिन को हम अच्छा नहीं समझते वे (अप भवन्तु) दूर रहें। अग्नि = उष्ण गुण के पदार्थ, सोमः=शीत गुण के पदार्थ, ग्रावा = वह पदार्थ जो इन दोनों पदार्थों को अपने में घोल लें, वरुणः = जलमय पदार्थ वेदिः=शरीर स्वतः, बर्हिः = औषधियां और समिधः = काष्ठ इन सब तेजस्वी पदार्थों के समुचित प्रयोग से ज्वर का विनाश करना चाहिये।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वङ्गिरसो ऋषयः। तक्मनाशनो देवता। १, २ त्रिष्टुभौ। (१ भुरिक्) ५ विराट् पथ्याबृहती। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Cure of Fever
Meaning
May the yajna fire, soma herb, grava, the soma crush, the cloud, Varuna, pure water, the yajna vedi, the holy grass, all bright and pure in strength, join to give us good health and thus keep away all physical and mental negativities.
Subject
Cure for fever
Translation
May the sacrificial fire, Soma herb, the crushing stone, the venerable Lord skilled in purifying, the sacrificial altar, the sacred grass and brightly glowing fuel sticks (samidhah) drive the fever away from here. May the malignancies keep at a distance away yonder.
Translation
May this fire of yajna remove fever from here, may the Soma herb, cloud and water which are pure cure fever, may yajna vedi Kusha and burning yajna samidhah remove the TROUBLES.
Translation
Hence, let a learned, discriminating, far-seeing, venerable physician, possessing healing power, brilliant like the glowing fuel, banish fever. Let all hateful things stay at a distance yonder.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(अग्निः) विद्वान् (तक्मानम्) अ० १।२५।१। कृच्छ्रजीवनकरं ज्वरम् (अप बाधताम्) निवारयतु (इतः) अस्माद् देशात् पुरुषाद्वा (सोमः) तत्त्वमन्थिता (ग्रावा) अ० ५।२०।१०। शास्त्रविज्ञापकः। सूक्ष्मदर्शी (वरुणः) वरणयोग्यः। श्रेष्ठः (पूतदक्षाः) दक्ष वृद्धौ शैघ्र्ये च−असुन्। दक्षो बलनाम−निघ० २।९। पूतं पवित्रं दक्षो बलं यस्मात् सः (वेदिः) हृपिषिरुहिवृतिविदि०। उ० ४।११९। इति विद ज्ञाने−इन्। पण्डितः (बर्हिः) बृंहेर्नलोपश्च। उ० २।१०९। इति बृहि वृद्धौ दीप्तौ च−इसि। प्रवृद्धं कर्म। दीप्तियुक्तः (समिधः) सम्+ञिइन्धी दीप्तौ−क्विप्। इन्धनानि (शोशुचानाः) अ० ४।११।३। देदीप्यमानाः (अप) अपगतानि (द्वेषांसि) अप्रियाणि वस्तूनि (अमुया) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति विभक्तेर्याच्। परस्मिन्देशे (भवन्तु) सन्तु ॥
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