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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 110 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 110/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - अग्निः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
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    प्र॒त्नो हि कमीड्यो॑ अध्व॒रेषु॑ स॒नाच्च॒ होता॒ नव्य॑श्च॒ सत्सि॑। स्वां चा॑ग्ने त॒न्वं पि॒प्राय॑स्वा॒स्मभ्यं॑ च॒ सौभ॑ग॒मा य॑जस्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒त्न: । हि । कम् । ईड्य॑: । अ॒ध्व॒रेषु॑ । स॒नात् । च॒ । होता॑ । नव्य॑: । च॒ । स॒त्सि॒ । स्वाम् । च॒ । अ॒ग्ने॒ । त॒न्व᳡म् । प्रि॒प्राय॑स्व । अ॒स्मभ्य॑म् । च॒ । सौभ॑गम् । आ । य॒ज॒स्व॒ ॥११०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रत्नो हि कमीड्यो अध्वरेषु सनाच्च होता नव्यश्च सत्सि। स्वां चाग्ने तन्वं पिप्रायस्वास्मभ्यं च सौभगमा यजस्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रत्न: । हि । कम् । ईड्य: । अध्वरेषु । सनात् । च । होता । नव्य: । च । सत्सि । स्वाम् । च । अग्ने । तन्वम् । प्रिप्रायस्व । अस्मभ्यम् । च । सौभगम् । आ । यजस्व ॥११०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 110; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ऐश्वर्य बढ़ाने के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे विद्वान् आचार्य ! (प्रत्नः) प्राचीन, [अनुभवी] (च) और (नव्यः) नूतन [उद्योगी,] (ईड्यः) स्तुतियोग्य (च) और (होता) दाता होकर (सनात्) सदा से (अध्वरेषु) सन्मार्ग देनेवाले वा हिंसारहित व्यवहारों में (हि) अवश्य (कम्) सुख से (सत्सि) तू बैठता है। (च) निश्चय करके (स्वाम्) अपने (तन्वम्) शरीर को (पिप्रायस्व) प्रीतियुक्त कर (च) और (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (सौभगम्) अनेक सुन्दर ऐश्वर्य (आ) आकर (यजस्व) दान कर ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य वृद्ध, अनुभवी उत्साही, उत्तम आचार्य से नम्रतापूर्वक उत्तम शिक्षा ग्रहण करके अपना ऐश्वर्य बढ़ावें ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−म० ८।११।१० ॥

    टिप्पणी

    १−(प्रत्नः) नश्च पुराणे प्रात्। वा० पा० ५।४।२५। इति प्र−तप्। प्रत्नः पुराणः−निरु० १२।३˜२। प्राचीनः। अनुभवी (हि) अवश्यम् (कम्) सुखेन (ईड्यः) स्तुत्यः (अध्वरेषु) अ० ३।१६।६। सन्मार्गदातृषु हिंसारहितेषु वा व्यवहारेषु (सनात्) सत्यम् (च) समुच्चये। अवधारणे (होता) दाता (नव्यः) अचो यत्। पा० १।३।९७। णु स्तुतौ−यत्। नूतनः। पुरुषार्थी (सत्सि) सीदसि (स्वाम्) स्वकीयाम् (अग्ने) हे विद्वन्। आचार्य (तन्वम्) शरीरम् (प्रिप्रायस्व) प्री प्रीतौ णिचि छान्दसं रूपम्। प्रसन्नां कुरु (अस्मभ्यम्) सेवकेभ्यः (सौभगम्) समूहे−अण्। बह्वैश्वर्याणां समूहम् (आ) आगत्य (यजस्व) देहि ॥

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    विषय

    प्रभु का शरीररूप 'आत्मा' [स्वां तन्वम्]

    पदार्थ

    १. हे प्रभो! आप (प्रत्न:) = सनातन हैं, (हि) = निश्चय से (कम्) = आनन्दस्वरूप आप (ईयः) = स्तुति के योग्य है (च) = और (अध्वरेषु) = यज्ञों में आप ही (सनात्) = सदा से (होता) = आहुति देनेवाले हैं आपके द्वारा ही सब यज्ञ परिपूर्ण होते हैं, (च) = और (नव्य:) = आप अपने इस शरीर को, अर्थात् मैं जो आपका शरीर हूँ, उसे (पिप्रायस्व) = प्रीणित कीजिए। आपकी कृपा से मैं अपना पूरण कर सकूँ (च) = और आप (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (सौभगम्) = सौभाग्य को (आयजस्व) = सर्वथा प्राप्त कराइए।

    भावार्थ

    प्रभु सनातन है, सदा स्तुत्य हैं, वे ही सब यज्ञों के होता हैं, वे ही स्तुत्य हैं। हम प्रभु के शरीररूप हैं, हममें प्रभु का निवास है। प्रभु इस शरीर का पूरण करें और हमें सौभाग्य प्रदान करें।

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    भाषार्थ

    (हि) निश्चय से [अग्निः, परमेश्वर] (अध्वरेषु) हिंसारहित [आध्यात्मिक] यज्ञों में (ईड्यः) स्तुत्य है, (प्रत्नः) वह पुराना है, [पुरातनकाल से विद्यमान है] (सनात् च) और सनातन काल का (नव्यः च) तथा अभिनवकाल का (होता) दाता है। (सत्सि) तू हमारे हृदयों में स्थित है। (अग्ने) अग्निनामक परमेश्वर ! (स्वाम् तन्वम्) निज विस्तृत स्वरूप को (पिप्रायस्व) हमारे हृदयों में पूर्णरूप में प्रकट कर, (च) और (अस्मभ्यम्) हमारे लिए (सौभगम्) सौभाग्य (आ यजस्व) आध्यात्मिक यज्ञ में प्रदान कर।

    टिप्पणी

    [कम्= पदपूरणः, "पदपूरणास्ते मिताक्षरेषु अनर्थकाः कम्; ईम् इत् उ इति" निरुक्त १।३।९)। अथवा "कम्" सुखस्वरूप परमेश्वर "ईड्य:" स्तुत्य है। अध्वरेषु "ध्वरतिहिंसाकर्मा [अकार:] त प्रतिषेधः" (निरुक्त १।३।८)। होता= दाता, हु दानादनयोः (जुहोत्यादिः)। अग्ने= परमेश्वर (यजु० ३२।१)। विप्रायस्व= प्रा पूरण (अदादिः)। आ यजस्व= यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु (भ्वादिः)।]

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    विषय

    सन्तान की रक्षा और सुशिक्षा।

    भावार्थ

    (प्रत्नः) अति पुरातन, पुराण पुरुष (हि कम्) ही निश्चय से (अध्वरेषु) हिंसारहित यज्ञों में, देवपूजा के अवसरों में, (ईड्यः) स्तुति करने योग्य है। हे परमात्मन् ! और तू (सनात्) चिरकाल से (च) ही (होता) सब का दाता है, (च) और (नव्यः च) सदा नवीन, अजर, अमर अथवा सदा स्तुति करने योग्य होकर (सत्सि) हमारे हृदयों में विराजता है। हे अग्ने ! परमेश्वर ! आप (स्वाम्) अपने (तन्वम्) विशाल ब्रह्माण्ड को (पिप्राय) पूर्ण कर रहे हो, उसमें व्यापक हो, आप (अस्मभ्यं च) हमारे लिये (सौभगम्) उत्तम समृद्धि (आ यजस्व) प्रदान करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। अग्निर्देवता। १ पंक्तिः। २-३ त्रिष्टुभौ। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    New Born Human

    Meaning

    Self-refulgent Agni, ancient and eternal, happily adorable in yajnic programmes of humanity, ever a beneficent giver, your presence pervades and always sits anew on the vedi. Be kind and gracious. Be kind and gracious to this person, this social order, a new manifestation of your own self, bless it with joy and fulfilment, and bring us all good fortune and prosperity.

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    Subject

    Agnih

    Translation

    O you are the ancient one, joy incarnate, praise-worthy, you are present at thie sacrifices as the priest of old and modern times. O fire-divine, may you swell yourself (with our offerings) and bestow good fortune on us.

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    Translation

    O learned teacher! you are efficient in the procedure of performing yajna and are praise-worthy in the yajnas, you are benevolent always and accomplished with all information’s. O learned one! make your policy friendly to all and bestow upon us all prosperity.

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    Translation

    Ancient, verily Meet for praise at scarifies, Primordial Benefactor, Ever young, Ageless, art Thou present in our hearts, O God. O Lord, Thou pervadest the entire universe, Thy body; grant us felicity.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(प्रत्नः) नश्च पुराणे प्रात्। वा० पा० ५।४।२५। इति प्र−तप्। प्रत्नः पुराणः−निरु० १२।३˜२। प्राचीनः। अनुभवी (हि) अवश्यम् (कम्) सुखेन (ईड्यः) स्तुत्यः (अध्वरेषु) अ० ३।१६।६। सन्मार्गदातृषु हिंसारहितेषु वा व्यवहारेषु (सनात्) सत्यम् (च) समुच्चये। अवधारणे (होता) दाता (नव्यः) अचो यत्। पा० १।३।९७। णु स्तुतौ−यत्। नूतनः। पुरुषार्थी (सत्सि) सीदसि (स्वाम्) स्वकीयाम् (अग्ने) हे विद्वन्। आचार्य (तन्वम्) शरीरम् (प्रिप्रायस्व) प्री प्रीतौ णिचि छान्दसं रूपम्। प्रसन्नां कुरु (अस्मभ्यम्) सेवकेभ्यः (सौभगम्) समूहे−अण्। बह्वैश्वर्याणां समूहम् (आ) आगत्य (यजस्व) देहि ॥

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