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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 121 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 121/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कौशिक देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सुकृतलोकप्राप्ति सूक्त
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    वि जि॑हीष्व लो॒कं कृ॑णु ब॒न्धान्मु॑ञ्चासि॒ बद्ध॑कम्। योन्या॑ इव॒ प्रच्यु॑तो॒ गर्भः॑ प॒थः सर्वाँ॒ अनु॑ क्षिय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । जि॒ही॒ष्व॒ । लो॒कम् । कृ॒णु॒ । ब॒न्धात् । मु॒ञ्चा॒सि॒ । बध्द॑कम् । योन्या॑:ऽइव । प्रऽच्यु॑त: । गर्भ॑: । प॒थ: । सर्वा॑न् । अनु॑ । क्षि॒य॒ ॥१२१.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि जिहीष्व लोकं कृणु बन्धान्मुञ्चासि बद्धकम्। योन्या इव प्रच्युतो गर्भः पथः सर्वाँ अनु क्षिय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । जिहीष्व । लोकम् । कृणु । बन्धात् । मुञ्चासि । बध्दकम् । योन्या:ऽइव । प्रऽच्युत: । गर्भ: । पथ: । सर्वान् । अनु । क्षिय ॥१२१.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 121; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मोक्ष पाने का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे पुरुष !] (वि जिहीष्व) विविध प्रकार से चल, (लोकम्) समाज को (कृणु) बना, (बद्धकम्) बड़े बँधुवे (आत्मा) को (बन्धात्) बन्ध से (मुञ्चासि) तू छुड़ा दे (योन्याः) गर्भाशय से (प्रच्युतः) बाहर निकले हुए (गर्भः इव) बालक के समान (सर्वान्) सब (पथः अनु) मार्गों की ओर (क्षिय) चल ॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्य जैसे-जैसे प्रयत्न करता है, वैसे-वैसे दुःखबन्धन से छूट कर आनन्द भोगता है, जैसे गौ आदि का बच्चा गर्भ से उत्पन्न होकर प्रसन्नता से विचरता है ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(वि) विविधम् (जिहीष्व) ओहाङ् गतौ। गच्छ (लोकम्) स्थानम्। समाजम् (कृणु) कुरु (बन्धात्) दुःखबन्धनात् (मुञ्चासि) लेटि रूपम्। विमोचय (बद्धकम्) कुत्सितबन्धं गतम् (योन्याः) गर्भाशयात् (इव) यथा (प्रच्युतः) बहिर्निगतः (गर्भ) बालकः (पथः) मार्गान् (सर्वान्) समस्तान् (अनु) अनुलक्ष्य (क्षिय) क्षि निवासगत्योः। गच्छ ॥

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    विषय

    बालक की भाँति निर्दोष

    पदार्थ

    १. हे मनुष्य! तू (विजिहीष्व) = विशिष्टरूप से अपने कर्तव्यकर्मों में गतिवाला हो। (लोकं कृणु) = अपने जीवन को प्रकाशमय बना। (बद्धकम्) = कुत्सित विषयों में बद्ध इस मन को (बन्धात् मुख्यासि) = तू बन्धन से मुक्त करता है। २. (योन्या:) = माता के गर्भाशय से (प्रच्युत:) = बाहर आये हुए (गर्भ: इव) = गर्भस्थ बालक की भाँति (सर्वान् पथ:) = सब मार्गों को (अनुक्षिय) = अनुकूलता से आक्रान्त कर। एक बालक की भाँति निर्दोषभाव [ As innocent as a child] से मागों का आक्रमण कर।

    भावार्थ

    हम मन को विषयों से मुक्त करते हुए ज्ञान के प्रकाश में कर्तव्य-मार्गों पर चलें। उत्पन्न हुए-हुए बालक की भाँति हमारा जीवन निर्दोष हो।

    विशेष

    ज्ञानाग्नि में अपने को परिपक्व करनेवाला यह 'भृगु' बनता है। अगले दो सूक्त इसी के हैं।

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    भाषार्थ

    (विजिहीष्व) [हे अविद्या !] तू विगत हो जा, हट जा (लोकम्, कृणु) और हे तारक ज्ञान तू आलोक अर्थात् प्रकाश कर, (बद्धकम्) बन्धे जीवात्मा को (बन्धात्) शारीरिक बन्ध से (मुञ्चासि) तू मुक्त कर। हे जीवात्मन् ! तु (सर्वान् पथः) सब पथों में (अनुक्षिय) गमन कर, तथा उनमें निवास कर, (इव) जैसे कि (योन्याः) माता की योनि से (प्रच्युतः) च्युत हुआ, पैदा हुआ (गर्भः) नवजात शिशु [अनिरुद्धगति से] हिलता जुलता है।

    टिप्पणी

    [जैसे नवजात शिशु स्वयमेव अनिरुद्ध गति करता है, वैसे तू भी अनिरुद्धगति से सब पथों में गमन कर। पथ नाना है सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, ग्रह, नक्षत्र आदि की गतियों के पथ नाना है, इन पथों में तू गमन कर। मुक्त जीवात्मा स्वेच्छापूर्वक इन मार्गों में गति करता है। विजिहीष्व= वि + ओहाङ् गतौ (जुहोत्यादिः)। क्षिय= क्षि निवासगत्यो (तुदादिः)। “पथः अनु क्षिय" पर ऋग्वेद के निम्न मन्त्र विशेष प्रकाश डालते हैं। यथा– मुनयो वातरशना, वातस्यानु ध्रार्जि यन्ति ॥२॥ मुनि वायुरूपी रस्सी द्वारा, वायु की गति के अनुसार अन्तरिक्ष में विचरते हैं। उन्मदिता मौने येन वातां आ तस्थिमा वयम् ।।३।। मुनिभाव में अति मोद प्राप्त करते हुए हम वायुओं पर आस्थित हुए हैं। अन्तरिक्षेण पतति विश्वा रूपावचाकशत मुनिः ।।४।। मुनि अन्तरिक्ष द्वारा उड़ता है, और सब रूपों को जो नीचे भूमि पर हैं, उन्हें देखता है। वातस्याश्वो वायोः सखा। उभौ समुद्राचा क्षेति, यश्च पूर्व उतापरः ।।५।। वायु इसका अश्व है, वायु का यह सखा है। यह दोनों समुद्रो पर आ निवास करता है, जो कि पूर्व का समुद्र है और अपर अर्थात् पश्चिम का है। [ये उद्धरण ऋग्वेद मण्डल १०, सूक्त १३६; मन्त्र १ से ७ में से हैं। इन द्वारा भी यह ज्ञात होता है कि मुनि या योगी अन्तरिक्ष में भिन्न-भिन्न पथों मैं गति कर सकते हैं।]

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    विषय

    त्रिविध बन्धन से मुक्ति।

    भावार्थ

    हे जीव ! इस बन्धनमय लोक = शरीर को (वि जिहीष्व) विशेष ज्ञानपूर्वक निःसंग हो, परित्याग कर। अथवा (वि जिहीष्व) नाना शरीरों में गति कर, (लोकं कृणु) और अपने प्राप्त होने योग्य उत्तम लोक को स्वयं अपने कर्मबल से सम्पादन कर, (बद्धकम्) अपने आप बँधे हुए अपने को तू (बन्धात्) बन्धन से (मुञ्चासि) छुड़ा। और (योन्याः) योनि से (प्रच्युतः) पूर्ण रूप से बाहर आये हुए (गर्भः-इव) बालक के समान (सर्वान्) सब (पथः) मार्गों में, लोकों में (अनु) अपनी इच्छा अनुकूल (क्षिय) निवास कर, उनमें विचर। मुक्तात्मा यथासंकल्प लोकों में विचरते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कौशिक ऋषिः। मन्त्रोक्तदैवत्यम्। १-२ त्रिष्टुभौ। ३, ४ अनुष्टुभौ। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Bondage

    Meaning

    Set out on way to freedom, create a new world of freedom and joy, release the souls in chains from the binding fetters and, like a new born baby free from the womb, try all the paths of possibility in freedom of action and free choice.

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    Translation

    Move on. Make place. Release the bound one from bonds. Like a new-born, having emerged from the womb, may you follow all the ways (you like)

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    Translation

    O soul! leave this body, make your place, release yourself bound as captive from the bond and like a newly born infant freely dwell in all the pathways.

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    Translation

    O soul, roam in different bodies. Make room for thy advancement. Release thy imprisoned self from bodily fetters: Freed, like an infant newly born, dwell in all pathways where thou wilt!

    Footnote

    Pathways: Worlds. An emancipated soul is free to roam in any place he likes, say the Sun, Moon, Venus, Mercury, etc.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(वि) विविधम् (जिहीष्व) ओहाङ् गतौ। गच्छ (लोकम्) स्थानम्। समाजम् (कृणु) कुरु (बन्धात्) दुःखबन्धनात् (मुञ्चासि) लेटि रूपम्। विमोचय (बद्धकम्) कुत्सितबन्धं गतम् (योन्याः) गर्भाशयात् (इव) यथा (प्रच्युतः) बहिर्निगतः (गर्भ) बालकः (पथः) मार्गान् (सर्वान्) समस्तान् (अनु) अनुलक्ष्य (क्षिय) क्षि निवासगत्योः। गच्छ ॥

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