अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 125/ मन्त्र 1
वन॑स्पते वी॒ड्वङ्गो॒ हि भू॒या अ॒स्मत्स॑खा प्र॒तर॑णः सु॒वीरः॑। गोभिः॒ संन॑द्धो असि वी॒डय॑स्वास्था॒ता ते॑ जयतु॒ जेत्वा॑नि ॥
स्वर सहित पद पाठवन॑स्पते । वी॒डुऽअ॑ङ्ग: । हि । भू॒या: । अ॒स्मत्ऽस॑खा । प्र॒ऽतर॑ण: । सु॒ऽवीर॑: । गोभि॑: । सम्ऽन॑ध्द: । अ॒सि॒ । वी॒डय॑स्व । आ॒ऽस्था॒ता । ते॒ । ज॒य॒तु॒ । जेत्वा॑नि ॥१२५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
वनस्पते वीड्वङ्गो हि भूया अस्मत्सखा प्रतरणः सुवीरः। गोभिः संनद्धो असि वीडयस्वास्थाता ते जयतु जेत्वानि ॥
स्वर रहित पद पाठवनस्पते । वीडुऽअङ्ग: । हि । भूया: । अस्मत्ऽसखा । प्रऽतरण: । सुऽवीर: । गोभि: । सम्ऽनध्द: । असि । वीडयस्व । आऽस्थाता । ते । जयतु । जेत्वानि ॥१२५.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सेना और सेनापति के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(वनस्पते) हे किरणों के पालन करनेवाले सूर्य के समान राजन् ! वीड्वङ्गः) बलिष्ठ अङ्गोंवाला तू (हि) ही (प्रतरणः) बढ़ानेवाला (सुवीरः) अच्छे-अच्छे वीरों से युक्त (अस्मत्सखा) हमारा मित्र (भूयाः) हो। तू (गोभिः) बाणों और वज्रों से (संनद्धः) अच्छे प्रकार सजा हुआ (असि) है, [हमें] (वीडयस्व) दृढ बना, (ते) तेरा (आस्थाता) श्रद्धावान् सेनापति (जेत्वानि) जीतने योग्य शत्रुओं की सेनाओं को (जयन्तु) जीते ॥१॥
भावार्थ
परस्पर नित्य सम्बन्धवाले सूर्य और किरणों के समान राजा, सेना और प्रजा का परस्पर नित्य संबन्ध होवे, और जितेन्द्रिय बलवान् राजा के समान सेना और प्रजा भी जितेन्द्रिय और बलवान् होवें ॥१॥ मन्त्र १-३ कुछ भेद से ऋ० ६।४७।२६−२८ और यजुर्वेद २९।५२-५४ में है। इन का भाष्य महर्षि दयानन्द सरस्वती के आधार पर किया गया है ॥१॥
टिप्पणी
१−(वनस्पते) अ० १।३५।३। वनानां किरणानां पालकः सूर्य इव राजन् (वीड्वङ्गः) वीडु बलम् निघ० २।९। बलिष्ठाङ्गः (हि) (भूयाः) भवेः (अस्मत्सखा) अस्माकं मित्रम् (प्रतरणः) प्रतारकः। प्रवर्धकः (सुवीरः) कल्याणवीरः−निरु० ९।१२। सुष्ठु वीरयुक्तः (गोभिः) इषुभिः। वज्रैः। स्वर्गेषुपशु- वज्रदिङ्नेत्रघृणिभूजले−इत्यमरः, २३।२५। (सन्नद्धः) सम्यक् सज्जः (असि) (वीडयस्व) वीडयतिः संस्तम्भकर्मा−निरु० ५।१६। यद्वा, वीर विक्रान्तौ, रस्य डः। दृढान् कुरु (आस्थाता) आस्थया श्रद्धया युक्तः (ते) तव (जयतु) (जेत्वानि) कृत्यार्थे तवैकेन्०। पा० ३।४।१४। जि जये−त्वन्। जेतव्यानि शत्रुसैन्यानि ॥
विषय
बीड्वङ्गः वीडयस्व
पदार्थ
१. अथर्वा अपने शरीर को सम्बोधित करते हुए कहता है कि हे (वनस्पते) = वानस्पतिक पदार्थों के सेवन से बने हुए देह! तू (हि) = निश्चय से वीडु (अङ्गः भूया:) = दृढ़ अङ्गोंवाला हो। (अस्मत् सखा) = तू हमारा मित्र हो, (प्रतरण:) = संसार-सागर को तैरनेवाला व (सुवीर:) = उत्तम वीरतावाला हो। २. (गोभिः सन्नद्धः असि) = तू ज्ञानरश्मियों से सम्बद्ध है, (वीडयस्व) = तु पराक्रम कर (ते आस्थाता) = तुझ शरीर-रथ पर स्थित होनेवाला यह जीवात्मा [रथी] जेत्यानि जेत्वनी शत्रुओं को (जयतु) = जीतनेवाला बने।
भावार्थ
वनस्पति-विकार यह शरीर हमारा साथी हो। यह दृढ़ अङ्गोंवाला बने, ज्ञान की रश्मियों से सम्बद्ध हो। इसपर अधिष्ठित जीव जेतव्य शत्रुओं को जीतनेवाला बने।
भाषार्थ
(वनस्पते) राष्ट्र के वनों के स्वामिन हे राजन् ! (वीड्वङ्ग) प्रबल युद्ध नीति के अङ्गों वाला (हि) ही (भूयाः) तू हो जा, (अस्मत्सखा) हम प्रजाजनों का मित्रभूत तू (प्रतरण:) कष्टों से तैराने वाला, (सुवीर:) तथा उत्तमवीर योद्धाओं वाला तू है। (गोभिः) वज्रों से (सन्नद्धः) सुसज्जित (असि) तू है, (आस्थाता) तुझ पर आस्था अर्थात श्रद्धा रखने वाला सेनापति (जेत्वानि) जेतव्य परकीय सैन्यों पर (जयतु) विजय पाए।
टिप्पणी
[सूक्त में राजा, सेनापति और सैन्यरथ का मिश्रित वर्णन है। युद्ध नीति के अङ्ग= सन्धि विग्रह, यान, आसन, संश्रय, द्वेष– ये युद्ध नीति के ६ अङ्ग है (मनुस्मृति ७।१६०)। गोभिः- गौः= पशुः, इन्द्रियम, सुखम्, किरणः, "वज्रम्" चन्द्रमाः, भूमि, वाणी, जल वा (उणा० २।६८, दयानन्द)। अथवा राष्ट्र के ८ अङ्ग= स्वामी, अमात्य, सुहृद्, कोष, दुर्ग और सैन्य तथा प्रजावर्ग। वोडु बलनाम ( निघं० २।९)।]
विषय
युद्ध का उपकरण रथ और देह।
भावार्थ
युद्ध के उपकरण रथ का वर्णन करते हैं। हे (वनस्पते) बनस्पति, काष्ठ के बने रथ ! तू (वीड्वङ्गः) दृढ़ अंगों वाला (हि) ही (भूयाः) रह। तू (अस्मत्सखा) हमारा मित्र (सुवीरः) उत्तम बलशाली वीरों से युक्त होकर युद्ध में (प्र तरणः) पार पहुँचाने वाला है। तू (गोभिः) गो-चर्म को बनी रस्सियों से (संनद्धः) खूब अच्छी प्रकार जकड़ा हुआ (असे) है तू (वीडयस्व) पर्याप्त रूप से हमें भी दृढ़ कर और (ते आस्थाता) तुझ पर चढ़ने वाला (जेत्वानि जयतु) विजय प्राप्त करे। आत्मा, देह और ईश्वर भी रथ कहाता है। जैसे—तं वा एतं रसं सन्तं रथ इत्याचक्षते, रसतमं ह वै तद् रथन्तरं॥ श०। ६। २। ३६॥ वैश्वानरो वै देवतया रथः। तै० २। २। ५४॥ गौ० पू० २। २१॥ अध्यात्म पक्ष में—हे (वनस्पते) वन संभजनीय, सेवनीय, पदार्थों के स्वामिन् देह ! तू (वीड्वङ्गोः हि भूयाः) दृढ़ांग हो (अस्मत्-सखा) हमारा मित्रवत् उपकारी बन, (सुवीरः) शुभ वीर्यवान् होकर (प्रतरणः) इस संसार सागर को पार कर सकने का साधन बन। तू इस संसार में (गोभिः) इन्द्रियों से (संनद्धः) संबद्ध है, तू (वीडयस्व) समस्त पराक्रम कर, (ते आस्थाता) तेरा अधिष्ठाता, इन्द्र, आत्मा जेत्वानि जयतु) जीतने योग्य पदार्थों पर वश करे॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः वनस्पतिर्देवता। १, ३ त्रिष्टुभौ, २ जगती। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory Chariot
Meaning
Hero and protector of the land and forests, brilliant as the sun, friend and heroic leader crossing over crises and challenges, be strong of body and power. Committed you are to the land and traditions of humanity. Grow stronger, expand in power and strengthen us too. And may your commander win all the battles.
Subject
Vanaspatih (verb)
Translation
May the chariot made of strong wood be wholesome; may it be our friend; our protector, and manned by brave men. May it show forth its strength, compact with the straps of leather and let its rider be victorious in the battle. (Also Rg. VI.47.26)
Translation
[N.B. This hymn under interpretation is concerned with Vanaspati, the tree and the thing made of wood of the tree. It is the apparent sence of the hymn. According to the rule of traditional interpretation the means of warfare are praised with the king and king vice versa. Here the chariot has been praised and therefore, in the context of warfare this hymn directly praises the king also. This method has been adopted in accordance with the rule laid down by Yaskacharya in his Niruktam.] O King! you standing in resemblance with beamed sun are of strong limbs and hence the hero and the man who furthers us. Be friendly to us, you are equipped with the arrows and deadly weapon, let us make firm and strong and let your commander win over whatever are to be won.
Translation
O King, Powerful like the Sun, be our friend, conqueror of foes, yoked with brave, victorious heroes, firm and strong in body. Thou art the possessor of various parts of Earth, make us strong. May thy Commander-in-chief win foes deserving defeat!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(वनस्पते) अ० १।३५।३। वनानां किरणानां पालकः सूर्य इव राजन् (वीड्वङ्गः) वीडु बलम् निघ० २।९। बलिष्ठाङ्गः (हि) (भूयाः) भवेः (अस्मत्सखा) अस्माकं मित्रम् (प्रतरणः) प्रतारकः। प्रवर्धकः (सुवीरः) कल्याणवीरः−निरु० ९।१२। सुष्ठु वीरयुक्तः (गोभिः) इषुभिः। वज्रैः। स्वर्गेषुपशु- वज्रदिङ्नेत्रघृणिभूजले−इत्यमरः, २३।२५। (सन्नद्धः) सम्यक् सज्जः (असि) (वीडयस्व) वीडयतिः संस्तम्भकर्मा−निरु० ५।१६। यद्वा, वीर विक्रान्तौ, रस्य डः। दृढान् कुरु (आस्थाता) आस्थया श्रद्धया युक्तः (ते) तव (जयतु) (जेत्वानि) कृत्यार्थे तवैकेन्०। पा० ३।४।१४। जि जये−त्वन्। जेतव्यानि शत्रुसैन्यानि ॥
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