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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 135 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 135/ मन्त्र 1
    ऋषिः - शुक्र देवता - वज्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - बलप्राप्ति सूक्त
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    यद॒श्नामि॒ बलं॑ कुर्व इ॒त्थं वज्र॒मा द॑दे। स्क॒न्धान॒मुष्य॑ शा॒तय॑न्वृ॒त्रस्ये॑व॒ शची॒पतिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒श्नामि॑ । बल॑म् । कु॒र्वे॒ । इ॒त्थम् । वज्र॑म् । आ । द॒दे॒ । स्क॒न्धान् । अ॒मुष्य॑ । शा॒तय॑न् । वृ॒त्रस्य॑ऽइव । शची॒ऽपति॑: ॥१३५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदश्नामि बलं कुर्व इत्थं वज्रमा ददे। स्कन्धानमुष्य शातयन्वृत्रस्येव शचीपतिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अश्नामि । बलम् । कुर्वे । इत्थम् । वज्रम् । आ । ददे । स्कन्धान् । अमुष्य । शातयन् । वृत्रस्यऽइव । शचीऽपति: ॥१३५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 135; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    खान-पान का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जो कुछ (अश्नामि) मैं खाता हूँ [उसे] (बलम्) बल (कुर्वे) बना देता हूँ, (इत्थम्) तब मैं (वज्रम्) वज्र को (आ ददे) ग्रहण करता हूँ। (अमुष्य) उस [शत्रु] के (स्कन्धान्) कन्धों को (शातयन्) तोड़ता हुआ, (इव) जैसे (शचीपतिः) कर्म वा बुद्धि का स्वामी [शूर] (वृत्रस्य) शत्रु वा अन्धकार के ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य पाचनशक्ति से भोजन को भलीभाँति पचावे, जिस से वह शारीरिक और आत्मिक बल बढ़ाकर उसे सुखदायक हो। इसी मन्त्र का विवरण मन्त्र २ तथा ३ में है ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(यत्) भोजनम् (अश्नामि) भुञ्जे (बलम्) (कुर्वे) करोमि (इत्थम्) एकम् (वज्रम्) वर्जकं शस्त्रम् (आ ददे) गृह्णामि (स्कधान्) स्कन्धादिशरीरावयवान् (अमुष्य) शत्रोः (शातयन्) शद्लृ शातने णिचि। शदेरगतौ तः। पा० ७।३।४२। इति तकारादेशः, शतृ प्रत्ययः। छिन्दन् (इव) यथा (शचीपतिः) अ० ३।१०।१२। कर्मणां प्रज्ञानां वा पालकः ॥

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    विषय

    अश्नामि बलं कुर्वे

    पदार्थ

    १. मैं (यत् अश्नामि) = जो खाता हूँ, उससे (बलं कुर्वे) = बल का सम्पादन करता हूँ। (इत्थम्) = इसप्रकार शक्ति के दृष्टिकोण से ही भोजन करता हुआ, अर्थात् स्वाद के लिए न खाता हुआ (वज्रम् आददे) = वनतुल्य दृढ़ शरीर का आदान करता हूँ। २. अब (अमुष्य) = उस शत्रु के (स्कन्धान्) = कन्धों को मैं इसप्रकार (शातयन्) = नष्ट कर डालता हूँ, (इव) = जैसेकि (शचीपतिः) = शक्तियों का स्वामी सूर्य (वृत्रस्य) = आच्छादन करनेवाले मेघ के अवयवों को छिन्न-भिन्न कर देता है।

    भावार्थ

    भोजन में स्वाद को मापक न बनाकर मैं स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से खाता हूँ। इसप्रकार शक्ति का सम्पादन करके, वज्रतुल्य दृढ़ शरीरवाला होकर मैं शत्रु के कन्धों को काट डालता हूँ।

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    भाषार्थ

    (यत्) जो (अश्नामि) मैं खाता हूं, (बलम्, कुर्वे) और बल को प्राप्त करता हूं या व्यायाम करता हूं, (इत्यम्) इस प्रकार (वज्रम) वज्र का (आददे) मैं ग्रहण करता हूं। (शचीपतिः) इन्द्र [विद्युत्] (इब) जैसे (वृत्रस्य) मेघ के (स्कन्धान्) अवयवों को काटता है, वैसे मैं (अमुष्य) उस शत्रु के स्कन्ध आदि अवयवों को (शातयन्) काटता हुआ होऊं।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में पुरुषविधि में शत्रु का वर्णन हुआ है, पुरुषविधि का अभिप्राय है "Personification", अर्थात् जड़ पदार्थों में मनुष्य के गुण आरोपित करना। इस विधि को वेदों में प्रायः अपनाया है। तथा देखो निरुक्त (७।२।६,७)। मन्त्र में शत्रु हैं काम, क्रोध, लोभ आदि। मन्त्र २,३ में भी शत्रु ये ही जानने चाहिये। वज्र का अभिप्राय है "ब्रह्मचर्य"। वृत्तस्य= तत्को वृत्रः मेघ इति नैरुक्ताः (निरुक्त २।५।१३)। नैरुक्त दृष्टि में जब वृत्र है मेघ, तब उसके स्कन्ध आदि अवयव वास्तविक संभव नहीं हो सकते, वे काल्पनिक ही हैं। इसी प्रकार काम, क्रोध, मोह आदि आध्यात्मिक शत्रुओं के अङ्गों की सत्ता भी काल्पनिक ही है।]

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    विषय

    वज्र द्वारा शत्रु नाश।

    भावार्थ

    मैं (यद् अश्नामि) जो खाऊं उससे (बलं कुर्वे) अपना बल सम्पादन करूं। और तब (शचीपतिः) शक्ति का स्वामी सूर्य जिस प्रकार (वृत्रस्य इव) वृत्र, मेघ को छिन्न भिन्न कर देता है आत्मा अज्ञान का नाश करता है उसी प्रकार मैं (अमुष्य) उस अमुक शत्रु के (स्कन्धान्) कन्धों या स्कन्ध अर्थात् सेना- दलों को (शातयन्) विनाश करता हुआ (इत्थं वज्रम् आददे) इस प्रकार से वज्र = तलवार या दण्ड को या पापों से मनुष्यों को बचाने वाले शासनदण्ड को (आ ददे) उठाऊं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुक्र ऋषिः। मन्त्रोक्ता वज्रो देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (यत्-अश्नामि-बलं कुर्वे) जो मैं खाऊं उससे स्वशरीर में बल धारण करता हूं बल का ह्रास हो ऐसा भोजनमात्र-स्वाद की दृष्टि या विधि से नहीं करू' (इत्थं वज्रम्) इस प्रकार बलरूप वज्र को (अमुष्य स्कन्धान्-शातयन्-आद) उस स्वास्थ्य विरोधी रोग के कारणों अवयवों को नाश के हेतु ग्रहण करता हूं (वृत्रस्य-इव शचीपतिः) जैसे मेघ क अवयवों को शचीपति कर्मस्वामी इन्द्र विद्यत् वज्र को लेकर नष्ट करता है ॥१॥

    विशेष

    ऋषिः-शुक्रः -(तेजस्वी "शुक्रं शोचतेर्ज्वलति कर्मण:) [ निरु० ८-१२] देवता-वज्रः- पाप से वर्जन कराने वाला आत्मपराक्रम [वीर्य एवं ओजः] "वीर्यं वै वज्र(शत० १।३।७।५ ) वज्रो वा ओजः [शत० ८।४।१।२७]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Strength

    Meaning

    Whatever I eat, I turn into strength, and thus I wield the Vajra, lustrous weapon of inviolable diamond quality breaking the shoulders of the enemy just like the sun breaking the dark clouds.

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    Subject

    Vajra : Bolt

    Translation

    What I eat (asnami) , may I turn that into strength, and may I take up the adamantine weapon, cleaving the shoulders of such and such person, like the Lord of actions those of the nescience (vrtra).

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    Translation

    Whatever I consume I turn to vigor and thus I hold the thunderbolt rending the shoulders of that enemy like the atmospheric electricity which shatters the cloud.

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    Translation

    Whatever I eat I turn to strength, and thus I grasp the reins of administration. I rend the shoulders of that foe, as the Sun shatters the cloud.

    Footnote

    ‘I’ refers to a king or ruler.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(यत्) भोजनम् (अश्नामि) भुञ्जे (बलम्) (कुर्वे) करोमि (इत्थम्) एकम् (वज्रम्) वर्जकं शस्त्रम् (आ ददे) गृह्णामि (स्कधान्) स्कन्धादिशरीरावयवान् (अमुष्य) शत्रोः (शातयन्) शद्लृ शातने णिचि। शदेरगतौ तः। पा० ७।३।४२। इति तकारादेशः, शतृ प्रत्ययः। छिन्दन् (इव) यथा (शचीपतिः) अ० ३।१०।१२। कर्मणां प्रज्ञानां वा पालकः ॥

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