अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 26/ मन्त्र 1
अव॑ मा पाप्मन्त्सृज व॒शी सन्मृ॑डयासि नः। आ मा॑ भ॒द्रस्य॑ लो॒के पाप्म॑न्धे॒ह्यवि॑ह्रुतम् ॥
स्वर सहित पद पाठअव॑ । मा॒ । पा॒प्म॒न् । सृ॒ज॒ । व॒शी । सन् । मृ॒ड॒या॒सि॒ । न॒: । आ । मा॒ । भ॒द्रस्य॑ । लो॒के । पा॒प्म॒न् । धे॒हि॒ । अवि॑ऽह्रुतम् ॥२६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अव मा पाप्मन्त्सृज वशी सन्मृडयासि नः। आ मा भद्रस्य लोके पाप्मन्धेह्यविह्रुतम् ॥
स्वर रहित पद पाठअव । मा । पाप्मन् । सृज । वशी । सन् । मृडयासि । न: । आ । मा । भद्रस्य । लोके । पाप्मन् । धेहि । अविऽह्रुतम् ॥२६.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
कष्ट त्यागने के लिये उपदेश।
पदार्थ
(पाप्मन्) हे पापी विघ्न ! (मा) मुझे (अव सृज) छोड़ दे और (वशी) वश में पड़नेवाला (सन्) होकर तू (नः) हमें (मृडयासि) सुख दे (पाप्मन्) हे पापी विघ्न ! (भद्रस्य) आनन्द के (लोके) लोक में (मा) मुझे (अविह्रुतम्) पीड़ा रहित (आ) अच्छे प्रकार (धेहि) रख ॥१॥
भावार्थ
जो मनुष्य पुरुषार्थ से विघ्नों को हटाते हैं, वे आनन्द पाते हैं ॥१॥
टिप्पणी
१−(मा) माम् (पाप्मन्) अ० ३।३१।१। हे दुःखप्रद विघ्न (अव सृज) विमोचय (वशी) अ० १।२१।१। आयत्तः (सन्) (मृडयासि) अ० ५।२२।९। सुखयेः (नः) अस्मान् (आ) समन्तात् (मा) माम् (भद्रस्य) कल्याणस्य (लोके) स्थाने (धेहि) स्थापय (अविह्रुतम्) ह्रु ह्वरेश्छन्दसि। पा० ७।२।३१। इति ह्वृ कौटिल्ये निष्ठायां ह्रुभावः। अपीडितम् ॥
विषय
पाप का अभिभव
पदार्थ
१. हे (पाप्मन्) = पाप के भाव! (मा) = मुझे (अवसृज) = दूर से ही छोड़ दे। (वशी सन्) = पूर्णरूप से वश में आया हुआ तू (न: मृडयासि) = हमें सुखी कर। पाप के भाव को पूर्णरूप से वशीभूत करने पर ही सुख होना सम्भव है। २. हे (पाप्मन्) = पाप के भाव ! (मा) = मुझे (अविह्रूतम्) = सरल, निष्कपटरूप में (भद्रस्य लोके) = सुख व कल्याण के लोक में (आधेहि) = स्थापित करें।
भावार्थ
पापभाव को पूर्णरूप से वश में करके निष्कपट जीवन बिताते हुए हम सुखी जीवनवाले हों।
भाषार्थ
(पाप्मन्) हे पाप ! (मा) मुझे (अवसृज) छोड़ दे, ( वशी सन् ) वश में हुआ तू (नः) हमें (मृडयासि) सुखी कर (मा) मुझे (पाप्मन्) हे पाप ! (भद्रस्य) कल्याणी और सुखी ( लोके) समाज में (अविह्रुतम्) कुटिल कर्मों से रहित करके (आधेहि) स्थापित कर।
टिप्पणी
[मा, नः= अस्मदो द्वयोश्च (अष्टा० १।२।५९) द्वारा एकवचन के स्थान में बहुवचन। पाप जब वशीभूत हो जाता है, तब व्यक्ति कुटिलकर्म नहीं करता और कल्याणी तथा सुखी सामाजिक जीवन व्यतीत करता है। अविह्रुतम्= अ+ वि+ह्रु कौटिल्ये। मान्त्रिक कथन में कविता में पाप सम्बोधित हुआ है।]
Bhajan
आज का वैदिक भजन 🙏 1089
ओ३म् अव॑ मा पाप्मन्त्सृज व॒शी सन्मृ॑डयासि नः।
आ मा॑ भ॒द्रस्य॑ लो॒के पाप्म॑न्धे॒ह्यवि॑ह्रुतम् ॥
अथर्ववेद 6/26/1
ऐ पाप ! मुझको छोड़ दे
तो चैन आ जाए,
चैन आ जाए
जब तक मैं तेरे वश में था
दु:ख दर्द ही पाए
प्रभु के नियम से कर्मों के,
तद्रूप फल पाए,
तद्रूप फल पाए,
दु:ख में तो ईश्वर भक्त को,
सही राह दिखाए,
सही राह दिखाए,
प्रभु प्रेरणायें भक्त को,
निष्पाप बनाए,
निष्पाप बनाए,
जब तक मैं तेरे वश में था
दु:ख दर्द ही पाए
ऐ पाप ! मुझको छोड़ दे
तो चैन आ जाए,
चैन आ जाए
जब तक मैं तेरे वश में था
दु:ख दर्द ही पाए
ऐ पाप! तेरे सङ्ग में,
ना इतना भटकता,
ना इतना भटकता,
फिर क्या भला है,
क्या बुरा है ,
कैसे समझता,
कैसे समझता,
प्रतिपक्ष के इन भावों से,
अब पुण्य ही भाये,
अब पुण्य ही भाये,
जब तक मैं तेरे वश में था
दु:ख दर्द ही पाए
ऐ पाप ! मुझको छोड़ दे
तो चैन आ जाए,
चैन आ जाए
जब तक मैं तेरे वश में था
दु:ख दर्द ही पाए
जितना गिराया गर्त में,
उतना ही उठा दे,
उतना ही उठा दे,
प्रभु प्रेरणायें भर भर के,
तू मुझको जगा दे,
तू मुझको जगा दे,
स्थिर कर दे पुण्य-लोक में,
कल्याण हो जाए,
कल्याण हो जाए,
जब तक मैं तेरे वश में था
दु:ख दर्द ही पाए
ऐ पाप ! मुझको छोड़ दे
तो चैन आ जाए,
चैन आ जाए
जब तक मैं तेरे वश में था
दु:ख दर्द ही पाए
रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
रचना दिनाँक :- 3.11.2002 1.55 pm
राग :- पहाड़ी
गायन समय रात्रि का प्रथम प्रहर, ताल कहरवा ८ मात्रा
शीर्षक :- पाप को वश में करने से सुख प्राप्ति 665वां भजन
तर्ज :- तदबीर से बिगड़ी हुई, तकदीर बना ले
705-0106
तद्रूप = समान रूप से
प्रतिपक्ष का भाव = उल्टा भाव (जैसे यदि पाप से पलट कर पुण्य करने का ही भाव आ जाए और फिर पुनः पाप की ओर लौटने का मन ना बने) उसे प्रतिपक्ष का भाव कहते हैं
गर्त = खड्डा
Vyakhya
प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
पाप को वश में करने से सुख प्राप्ति
ऐ पाप ! तू अब मुझे छोड़ दे तूने मुझे बहुत देर अपने वश में रखा, अब तो मेरा तुझे वश में करने का समय आ गया है। तेरे वशीभूत होकर मैंने बहुत दु:ख पाए अब तो मेरे सुख पाने का समय आ गया है। ऐ पाप ! तुझसे पाये दु:ख ही अब मेरे सुख के कारण हो जाएं। यह तो ईश्वरीय नियम है कि दु:ख के बाद सुख आते हैं और पाप की प्रतिक्रिया में पुण्य का प्रादुर्भाव होता है। अब तो उस प्रतिक्रिया का समय आ गया है। तुझसे दु:ख पा पाकर आज मैं सीधा हो गया हूं, अकुटिल हो गया हूं।
मेरी कुटिलता, टेढ़ापन झूठ,पाखंड ये सब मुझे तुझ पाप की ओर ले जाने वाले थे, पर आज अकुटिल, सरल, सीधा, सच्चा होकर मैं तो अब भद्र के लोक की ओर चल पड़ा हूं।
ऐ पाप ! यदि मैं तुझमें ग्रस्त होकर इतना ना भटकता, इतना दु:ख ना पाता तो मैं कभी भी कुटिलता की, असत्य जीवन की बुराई को अनुभव ना कर पाता और कभी पुण्य का सच्चा पुजारी ना बन सकता। इस तरह हे पाप ! तू ही आज मुझे भद्र के लोक में स्थापित कर रहा है। ऐ पाप ! तू अब अकुटिल हुए मुझे कल्याण के लोक में पहुंचा दे।
मैं जितना पक्का बेशर्म-पापी था उतना ही कट्टर, दृढ़, सच्चा, पुण्यात्मा मुझे बना दे। जितना ही गहरा में पाप के गर्त में गया हुआ था उतना ही ऊंचा तू मुझे पुण्य के लोक में स्थिर कर दे।
विषय
पाप के भावों पर वश करना।
भावार्थ
हे (पाप्मन्) पाप के भाव ! (मा अवसृज) मुझसे परे रह। तू (वशी सन्) वश में आकर (नः) हमारे (मृढयासि) सुख का कारण हो। हे पाप्मन् ! पाप के भाव (मां) मुझको (अविह्रुतम्) सरल, निष्कपट रूप में (भद्रस्य लोके) सुख, कल्याणमय लोक में (आ धेहि) रहने दे। मनुष्य सदा यही भावना करे कि पाप मुझसे परे रहें और मैं सदा उस पर वश करके रहूं। सरल, निष्कपट रूप से कल्याणमय लोक में निवास करूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। पाम्पा देवता। १, ३ अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom from Sin
Meaning
O evil, sin and wickedness of thought, will and emotion, be off, leave me to myself. O strength of mind, will and emotion, under control of the spirit, be good, give us peace and well being of life. O sinful disturbance, let me be in the state of natural goodness free from crookedness and suffering.
Subject
Papman (Wickedness)
Translation
O wickedness (papman) may you leave us free. Exerting control over us, you make us happy. O wickedness, may you establish me unharmed in the world of goodness (bhadrasya loke).
Translation
Let the intention of sin leave me free (from its clutches) let it make me happy being under my control, let it set me unaflicted in the state of happiness.
Translation
Get away from me, O sin, do thou, the mighty, pity us. Set me uninjured in the world of happiness, O sin!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(मा) माम् (पाप्मन्) अ० ३।३१।१। हे दुःखप्रद विघ्न (अव सृज) विमोचय (वशी) अ० १।२१।१। आयत्तः (सन्) (मृडयासि) अ० ५।२२।९। सुखयेः (नः) अस्मान् (आ) समन्तात् (मा) माम् (भद्रस्य) कल्याणस्य (लोके) स्थाने (धेहि) स्थापय (अविह्रुतम्) ह्रु ह्वरेश्छन्दसि। पा० ७।२।३१। इति ह्वृ कौटिल्ये निष्ठायां ह्रुभावः। अपीडितम् ॥
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