अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 40/ मन्त्र 1
ऋषिः - अथर्वा
देवता - द्यावापृथिवी, सोमः, सविता, अन्तरिक्षम्, सप्तर्षिगणः,
छन्दः - जगती
सूक्तम् - अभय सूक्त
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अभ॑यं द्यावापृथिवी इ॒हास्तु॒ नोऽभ॑यं॒ सोमः॑ सवि॒ता नः॑ कृणोतु। अभ॑यं नोऽस्तू॒र्वन्तरि॑क्षं सप्तऋषी॒णां च॑ ह॒विषाभ॑यं नो अस्तु ॥
स्वर सहित पद पाठअभ॑यम् । द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑ । इ॒ह । अ॒स्तु॒ । न॒: । अभ॑यम् । सोम॑: । स॒वि॒ता । न॒: । कृ॒णो॒तु॒ । अभ॑यम् ॥ न॒: । अ॒स्तु॒। उ॒रु । अ॒न्तरि॑क्षम् । स॒प्त॒ऽऋ॒षी॒णाम् । च॒ । ह॒विषा॑ । अभ॑यम् । न: । अ॒स्तु॒ ॥४०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अभयं द्यावापृथिवी इहास्तु नोऽभयं सोमः सविता नः कृणोतु। अभयं नोऽस्तूर्वन्तरिक्षं सप्तऋषीणां च हविषाभयं नो अस्तु ॥
स्वर रहित पद पाठअभयम् । द्यावापृथिवी इति । इह । अस्तु । न: । अभयम् । सोम: । सविता । न: । कृणोतु । अभयम् ॥ न: । अस्तु। उरु । अन्तरिक्षम् । सप्तऽऋषीणाम् । च । हविषा । अभयम् । न: । अस्तु ॥४०.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शत्रुओं से रक्षा के लिये उपदेश।
पदार्थ
(द्यावापृथिवी) हे सूर्य और पृथिवी ! (इह) यहाँ पर (नः) हमारे लिये (अभयम्) अभय (अस्तु) होवे, (सोमः) बड़े ऐश्वर्यवाला (सविता) सब का उत्पन्न करनेवाला परमेश्वर (नः) हमारे लिये (अभयम्) अभय (कृणोतु) करे। (उरु) बड़ा (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष (नः) हमारे लिये (अभयम्) अभय (अस्तु) होवे, (च) और (सप्तऋषीणाम्) सात व्यापनशीलों वा दर्शनशीलों के [अर्थात् त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन, और बुद्धि, अथवा दो कान, दो नथने, दो आँख, और मुख इन सात छिद्रों के] (हविषा) ठीक-ठीक दान और ग्रहण से (नः) हमारे लिये (अभयम्) अभय (अस्तु) होवे ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य प्रयत्न करे कि संसार के सब पदार्थ और अपने शरीर के सब अवयव यथावत् उपकार करके शान्तिप्रद होवें ॥१॥
टिप्पणी
१−(अभयम्) भयराहित्यम् (द्यावापृथिवी) हे सूर्यभूलोकौ (इह) अत्र (अस्तु) (नः) अस्मभ्यम् (अभयम्) (सोमः) परमैश्वर्यवान् (सविता) सर्वोत्पादको जगदीश्वरः (नः) (कृणोतु) करोतु (अभयम्) भयरहितम्। शान्तम् (नः) (अस्तु) (उरु) विस्तीर्णम् (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (सप्तऋषीणाम्) अ० ४।११।९। त्वक्चक्षुश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धीनाम्। अथवा, शीर्षण्यानां सप्तच्छिद्राणाम् (च) (हविषा) यथावद् दानेन ग्रहणेन च (अभयम्) (नः) (अस्तु) ॥
विषय
अभय
पदार्थ
१. हे (द्यावापृथिवी) = मस्तिष्करूप धुलोक तथा शरीररूप पृथिवीलोक! तुम दोनों के अनुग्रह से (इह) = यहाँ (न:) = हमारे लिए (अभयम् अस्तु) = अभय हो। मस्तिष्क की उचलता व शरीर की दृढ़ता हमारे जीवन को निर्भय बनाती है। (सोमः सविता) = चन्द्र और सूर्य (न: अभयं कृणोतु) = हमारे लिए अभयता करें। चन्द्रमा के समान हमारा मन मंगलदायक हो [चन्द्रमा मनो भूत्वा हृदयं प्राविशत्] तथा सूर्य के समान हमारी आँख ज्योतिर्मय हो [सूर्यश्चक्षुर्भूत्वा अक्षिणी प्राविशत्]। २. (न:) = हमारे लिए (उरु अन्तरिक्षम्) = यह विशाल हृदयाकाश (अभयम्) = निर्भयता देनेवाला हो। हमारे हदय संकुचित न हों, (च) = और (सप्तऋषीणाम्) = सप्तर्षियों [दो कान, दो आँख, दो नासिका छिद्र व मुख] की (हविषा) = हवि के द्वारा-देकर बचे हुए को खाने के द्वारा (न:) = हमारे लिए (अभयं अस्तु) = निर्भयता हो। सदा यज्ञशेष का सेवन इन सप्तर्षियों को सदा नीरोग रखता है। इनका स्वास्थ्य ही हमें मृत्यु-भय से बचाता है।
भावार्थ
हमारा मस्तिष्क ज्ञानसूर्य से उज्ज्वल हो, शरीर पृथिवी के समान दृढ़ हो, मन चन्द्रमा के समान शीतल, बुद्धि सूर्य के समान तेजोदीत तथा हृदय अन्तरिक्ष के समान विशाल हो। हमारी इन्द्रियाँ हवि का ग्रहण करनेवाली बनें-यज्ञशेष का सेवन करती हुई ये इन्द्रियाँ नौरोग हों। इसप्रकार हमें 'अभय' प्राप्त हो।
भाषार्थ
(द्यावापृथिवी) हे द्युलोक तथा पृथिवी (इह) यहां (अभयम्, अरतु) अभय हो, (नः) हमारे लिये (सोमः) चन्द्रमा (अभयम्) अभय (कृणोतु) करे, (नः) हमारे लिये (सविता) सूर्य अभय करे। ( उरु) विस्तृत (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष (न:) हमारे लिये (अभयम् ) भय रहित ( अस्तु ) हो, (सप्त ऋषीणाम्, च) और सप्त ऋषियों की (हविषा) हवि: द्वारा (नः) हमारे लिये (अभयम, अस्तु) अभय हो।
टिप्पणी
[मन्त्र में प्राकृतिक शक्तियों से भय रहित होने की प्रार्थना परमेश्वर से की गई है। सप्त ऋषि के ४ अर्थ सम्भव हैं, १, द्युलोकस्थ सप्तर्षि मण्डल (२) शरीरस्थ सप्त ऋषि "षडिन्द्रियाणि विद्या सप्तमी” (निरक्त १२।४।३७); तथा (यजु० ३४।५५)। (३) आदित्य की सप्तविध रश्मियां जो कि वर्षा ऋतु में इन्द्रधनुष में दृष्टिगोचर होती हैं। (४) राष्ट्रशासन में परामर्श दाता, राजा के ऋषिकोटि के सप्त सचिव। इस परामर्श को (हविषा) द्वारा निर्दिष्ट किया है। सप्त ऋषियों द्वारा प्रदत्त परामर्श हवि रूप है राष्ट्रयज्ञ में; जिसे कि सप्त ऋषि स्वेच्छा पूर्वक देते हैं, वेतनवृत्ति से बद्ध हुए नहीं। मन्त्र में ये चतुर्थ संख्या के सप्तऋषि अभिप्रेत है]।
विषय
अभय और कल्याण की प्रार्थना।
भावार्थ
(द्यावापृथिवी) द्यौः और पृथिवी, आस्मान् और ज़मीन इस संसार में (नः अभयं अस्तु) हमारे लिए भय रहित हों (सोमः) चन्द्र और (सविता) सब का प्रेरक सूर्य (नः) हमें (अभयं कृणोतु) भय रहित करें। (उरु अन्तरिक्षम् नः अभयम्) यह विशाल अन्तरिक्ष = वातावरण भी हमारे लिए भय रहित रहे। (सप्त-ऋषीणां च हविषा) सप्त ऋषियों, सातों प्राणों के बल और ज्ञान से (अभयं नः अस्तु) हमें सर्वत्र ही अभय रहे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१, २ अभयकामः, ३ स्वस्त्ययनकामश्वाथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ता देवताः। १, २ जगत्यौ, ३ ऐन्द्री अनुष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Fearlessness
Meaning
O heaven and earth, let there be freedom from fear for us here. May Soma, divine spirit of peace, and Savita, lord creator and inspirer give us the gift of fearlessness. Let the wide sky and space be free from fear for us, and may there be total freedom from fear for us by yajnic dedication of the seven sages. (The seven sages are five organs of perception, mind and intelligence, because they help us to ‘see’ and know. Further all the divinities mentioned and invoked in this sukta are objective ‘organs’ of divinity as well as inside our persoality : The sun is in the eye, moon in the mind, space quarters in the ear, vayu or wind in the skin, agni in the speech, apah in the taste, earth in the solidity of the body, and light region in the brain. So right action by the person with the body system and the external divinities of nature are related. Our action through our organs creates vibrations of cause and effect in nature which affects us too. Hence prayer to the divinities for freedom from fear implies that we too have to act without violating the laws of nature and of humanity. Life within and life outside both are organismically related. Prayer implies action too.)
Subject
As given in Verses
Translation
O heaven and earth, may there be freedom from fear (abhayam) here, may the blissful Lord and the inspirer Lord grant freedom from fear to us. May the vast midspace be free from fear for us; and may there be freedom from fear to us with the sacrificial offerings of the seven seers.
Translation
May the heaven and earth be safe from any fear for us, let the sun be in safety for us and let the moon be a place of safety for us. May the wide firmament be safe for us and may seven vital breaths be the source of safety for us by their operations.
Translation
O Heaven and Earth make us free from fear. May the Moon and Sun grant us freedom from fear. May the vast space make us fearless. May we be free from fear through the sacrifice of the Seven Rishis.
Footnote
Seven Rishis: Two eyes, two ears, two nostrils, and the mouth, or skin, eye, ear, tongue, nose, mind and intellect.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(अभयम्) भयराहित्यम् (द्यावापृथिवी) हे सूर्यभूलोकौ (इह) अत्र (अस्तु) (नः) अस्मभ्यम् (अभयम्) (सोमः) परमैश्वर्यवान् (सविता) सर्वोत्पादको जगदीश्वरः (नः) (कृणोतु) करोतु (अभयम्) भयरहितम्। शान्तम् (नः) (अस्तु) (उरु) विस्तीर्णम् (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (सप्तऋषीणाम्) अ० ४।११।९। त्वक्चक्षुश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धीनाम्। अथवा, शीर्षण्यानां सप्तच्छिद्राणाम् (च) (हविषा) यथावद् दानेन ग्रहणेन च (अभयम्) (नः) (अस्तु) ॥
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