अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 46/ मन्त्र 1
ऋषिः - अङ्गिरस्
देवता - दुःष्वप्ननाशनम्
छन्दः - ककुम्मती विष्टारपङ्क्तिः
सूक्तम् - दुःष्वप्ननाशन
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यो न जी॒वोऽसि॒ न मृ॒तो दे॒वाना॑ममृतग॒र्भोऽसि॑ स्वप्न। व॑रुणा॒नी ते॑ मा॒ता य॒मः पि॒ताररु॒र्नामा॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठय: । न । जी॒व : । असि॑ । न । मृ॒त: । दे॒वाना॑म् । अ॒मृ॒त॒ऽग॒र्भ: । अ॒सि॒ । स्व॒प्न॒ । व॒रु॒णा॒नी । ते॒ । मा॒ता । य॒म: । पि॒ता । अर॑रु: । नाम॑ । अ॒सि॒ ॥४६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यो न जीवोऽसि न मृतो देवानाममृतगर्भोऽसि स्वप्न। वरुणानी ते माता यमः पिताररुर्नामासि ॥
स्वर रहित पद पाठय: । न । जीव : । असि । न । मृत: । देवानाम् । अमृतऽगर्भ: । असि । स्वप्न । वरुणानी । ते । माता । यम: । पिता । अररु: । नाम । असि ॥४६.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
स्वप्न के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(स्वप्न) हे स्वप्न ! (यः) जो तू (न) न तो (जीवः) जीवित और (न) न (मृत) मृतक (असि) है, [परन्तु] (देवानाम्) इन्द्रियों के (अमृतगर्भः) अमरपन का आधार (असि) तू है। (वरुणानी) वरुण अर्थात् ढकनेवाले अन्धकार की शक्ति, रात्रि (ते) तेरी (माता) माता और (यमः) नियम में चलानेवाला सूर्य (पिता) पिता है, और तू (अररुः) हिंसक (नाम) नाम (असि) है ॥१॥
भावार्थ
स्वप्न अवस्था में शरीर के कुछ अङ्ग चेष्टा करते रहते हैं और कुछ चेष्टा बिना हो जाते हैं, इससे स्वप्न जीवन और मरण के बीच में है। स्वप्न इन्द्रियों को सुख देता है अर्थात् दिन में परिश्रम करनेवालों को रात्रि में सोने से सुख मिलता है परन्तु नियमविरुद्ध सोने से आयु घटती है ॥१॥
टिप्पणी
१−(यः) यस्त्वम् (न) निषेधे (जीवः) प्राणधारकः (असि) (न) (मृतः) मृतकः। त्यक्तप्राणः (देवानाम्) इन्द्रियाणाम् (अमृतगर्भः) अमरणस्य सुखस्य गर्भ आधारः (असि) (स्वप्न) स्वपो नन्। पा० ३।३।९१। इति ञिष्वप् शये−नन्। यद्वा। कॄवृजॄ०। उ० ३।१०। इति नन्। हे निद्रे (वरुणानि) वृणोति आच्छादयतीति वरुणः, अन्धकारः अ० १।३।३। इन्द्रवरुणभवशर्व०। पा० ४।१।४९। इति वरुण−ङीपानुकौ। वरुणस्य अन्धकारस्य पत्नी पालयित्री शक्तिः। रात्रिः (ते) तव (माता) जननी (यमः) नियामकः सूर्यः (पिता) पालकः। जनकः (अररुः) अर्तेररुः। उ० ४।७६। इति ऋ गतिहिंसनयोः−अरु। हिंसकः। वयोनाशकः (असि) ॥
विषय
स्वप्न का स्वरूप
पदार्थ
१. हे (स्वप्न) = स्वप्न! (य:) = जो तू (न जीव: असि ) = न तो जीवित है, (न मृतः) = न ही मृत है प्राणधारक भी नहीं है, त्यक्तप्राण भी नहीं है। तू (देवानाम्) = इन्द्रियों के अधिष्ठातृभूत अग्नि आदि देवों का (अमृतगर्भ: असि:) = अमृतमय गर्भ है। यह स्वप्न जाग्रदवस्था के इन्द्रिजन्य अनुभवों से जनित वासनाओं से उत्पन्न होता है और वासनाएँ स्थयी है, अत: यह स्वप्न भी सदा से चला ही आता है। २. (वरुणानि) = [रात्रिर्वरुण:-ऐ० ४.१०, वारुणी रात्रिः-तै०१.७.१०.१] रात्रि (ते माता) = तेरी माता है। प्रायः रात्रि में सोने पर ही स्वप्नों का क्रम आरम्भ होता है। (यमः) = पिता-शरीर का नियन्ता आत्मा ही तेरा पिता है। आत्मा के शरीर में होने पर ही ये स्वप्न होते हैं, अत: आत्मा को इनका पिता कहा गया है। (अररुः नाम असि) = 'अररु' तेरा नाम है। तू [ऋ गती] तीव्र गतिवाला-क्षणस्थायी है।
भावार्थ
शरीरस्थ आत्मा रात्रि के समय स्वप्नों का अनुभव करता है। ये स्वप्न न वास्तविक हैं, न ही एकदम काल्पनिक। इन्द्रियों के व्यापारों से उत्पन्न संस्कार इसे सदा जन्म देनेवाले होते हैं। यह बड़ी तीव्र गतिवाला है। क्षण में ही कहीं-का-कहीं जा पहुँचता है।
भाषार्थ
(स्वप्न) हे स्वप्न ! (यः) जो (न जीव: असि) न जीवित तू है, (न मृतः) न मृत है, अपितु (देवानाम्१) इन्द्रियों का (अमृतगर्भः असि) न मरने वाला गर्भरूप है, पुत्ररूप है। (वरुणानी) रात्री (ते) तेरी (माता) माता है, (यमः) नियन्ता२-दिन तेरा (पिता) पिता है, (अररु:) अररु (नाम) नाम वाला (असि) तू है।
टिप्पणी
[स्वप्न, जीव अर्थात् प्राणधारी नहीं, “जीव प्राणधारणे" (भ्वादिः)। न मृत है, क्योंकि जाग्रदवस्था के अनुभवों के संस्काररूप में यह मन में स्थिर रहता है। वरुणानी है रात्री, यथा "अहोरात्रौ मित्रावरुणौ" (ता० २५॥१०॥१०)। स्वप्न रात्री में प्रकट होता है अतः रात्री माता है। दिन के अनुभवों के संस्कारों के कारण स्वप्न की स्थिति होती है, अतः दिन इसका पिता है, दिन द्वारा प्रदत्त संस्काररूपी वीर्य से स्वप्न जन्म पाता है। अररुः३= अरम्, अलम्, पर्याप्त "रुङ् गतिरेषणयोः" (भ्वादिः)। स्वप्नावस्था में मन भिन्न-भिन्न स्थानों में "गति करता" जाता आता, और भय में "रेषण" कष्टानुभव करता, विचलित होता रहता है, अतः स्वप्न अररुः है]। [१. "नैनद् देवा आप्नुयुः" (यजु० ४०।४), देवा: इन्द्रियाणि (महीधर)। २. दिन यम है, दिन के समय प्राणियों की गतिविधि व्यवस्था को नियन्त्रित करने वाला। ३. अरम् = अलम्, रलयोरभेदात्; अलम्= पर्याप्तम्]
विषय
स्वप्न का रहस्य।
भावार्थ
स्वप्न का रहस्य बतलाते हैं। हे स्वप्न (यः) जो (न जीवः असि) तू न जीवित, जागृत दशा है और (न मृतः) न मृत = सुषुप्त दशा है अपितु (देवानाम्) इन्द्रियगण जिस दशा में (अमृतगर्भः असि) अमृत = आत्मा के गर्भ = भीतर में छुपे रहते हैं। तब वह दशा है उस समय इन्द्रियगण बाह्य विषयों का ज्ञान नहीं करते। हे स्वप्न ! (ते माता) तुझे स्वप्न की जननी, माता, उत्पादक भी स्वतः (वरुणानी) वरुण की स्त्री आत्मा की शक्ति, चितिशक्ति चेतना ही है और स्वयं (यमः) सब इन्द्रिय और शरीर का नियामक आत्मा ही स्वप्न का (पिता) पालक या बीजप्रद है। तू (अररुः नाम असि) ‘अररु’ नाम वाला है। निरन्तर गतिशील, अति तीव्र गति वाला, क्षणावस्थायी है अथवा शीघ्र ही विस्मृत हो जाता है। लम्बे से लम्बा स्वप्न सेकण्ड में उत्पन्न होकर समाप्त भी हो जाता है। स्वप्नकाल में इन्द्रियां प्राण में, प्राण मन में लीन हो जाता है। स्वप्नकाल में मनसहित इन्द्रियगण आत्मा में रहकर भी केवल मन की गति से सब पूर्वानुभूत संस्कारों की जागृति होती रहती है। उस समय इन्द्रियां प्राणमय आत्मा में गर्भित रहती हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अंगिरा ऋषिः। स्वप्नो दुःस्वप्ननाशनं वा देवता। १ ककुम्मती विष्टारपंक्तिः, २ त्र्यवसाना शक्वरीगर्भा पञ्चपदा जगती। ३ अनुष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Dream
Meaning
O dream you are neither alive, i.e., in the living state of wakefulness, nor dead, i.e., in the state of deep sleep. You are the immortal child of the senses and mind in the dream state.
Subject
Cure for Evil Dreams
Translation
You, who are neither alive nor dead, are full of ambrosia for the enlightened ones. Varunani ( venerability) is your mother; Yama (law and justice) is your father; and you are Araruh by name.
Translation
This dream which is neither in wakeful phase nor in the phase of sound sleep, is stored with the experience of sence organs. The mentality is its mother and the soul its father and name is Araru, that whichever passes away.
Translation
O dream, thou art neither living nor dead. Thou art the source of solace to the organs. Night, the queen of darkness, is thy mother, and the Sun, the regulator, is thy father. Thou art the enemy of longevity.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(यः) यस्त्वम् (न) निषेधे (जीवः) प्राणधारकः (असि) (न) (मृतः) मृतकः। त्यक्तप्राणः (देवानाम्) इन्द्रियाणाम् (अमृतगर्भः) अमरणस्य सुखस्य गर्भ आधारः (असि) (स्वप्न) स्वपो नन्। पा० ३।३।९१। इति ञिष्वप् शये−नन्। यद्वा। कॄवृजॄ०। उ० ३।१०। इति नन्। हे निद्रे (वरुणानि) वृणोति आच्छादयतीति वरुणः, अन्धकारः अ० १।३।३। इन्द्रवरुणभवशर्व०। पा० ४।१।४९। इति वरुण−ङीपानुकौ। वरुणस्य अन्धकारस्य पत्नी पालयित्री शक्तिः। रात्रिः (ते) तव (माता) जननी (यमः) नियामकः सूर्यः (पिता) पालकः। जनकः (अररुः) अर्तेररुः। उ० ४।७६। इति ऋ गतिहिंसनयोः−अरु। हिंसकः। वयोनाशकः (असि) ॥
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