अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 71/ मन्त्र 1
यदन्न॒मद्मि॑ बहु॒धा विरू॑पं॒ हिर॑ण्य॒मश्व॑मु॒त गाम॒जामवि॑म्। यदे॒व किं च॑ प्रतिज॒ग्रहा॒हम॒ग्निष्टद्धोता॒ सुहु॑तं कृणोतु ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अन्न॑म् । अद्मि॑ । ब॒हु॒ऽधा । विऽरू॑पम् । हिर॑ण्यम् । अश्व॑म् । उ॒त । गाम् । अ॒जाम् । अवि॑म्। यत् । ए॒व । किम् । च॒ । प्र॒ति॒ऽज॒ग्रह॑ । अ॒हम् । अ॒ग्नि: । तत् । होता॑ । सुऽहु॑तम् । कृ॒णो॒तु॒ ॥७१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यदन्नमद्मि बहुधा विरूपं हिरण्यमश्वमुत गामजामविम्। यदेव किं च प्रतिजग्रहाहमग्निष्टद्धोता सुहुतं कृणोतु ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अन्नम् । अद्मि । बहुऽधा । विऽरूपम् । हिरण्यम् । अश्वम् । उत । गाम् । अजाम् । अविम्। यत् । एव । किम् । च । प्रतिऽजग्रह । अहम् । अग्नि: । तत् । होता । सुऽहुतम् । कृणोतु ॥७१.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
दोषों के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(विरूपम्) अनेक रूपवाला (यत्) जो कुछ (अन्नम्) अन्न (बहुधा) प्रायः (अद्मि) मैं खाता हूँ, (उत) और (हिरण्यम्) सुवर्ण, (अश्वम्) घोड़ा, (गाम्) गौ, (अजाम्) बकरी, (अविम्) भेड़, और (यत् एव किम् च) जो कुछ भी (अहम्) मैंने (प्रतिजग्रह) ग्रहण किया है, (होता) दाता (अग्निः) सर्वव्यापक परमेश्वर (तत्) उसको (सुहुतम्) धार्मिक रीति से स्वीकार किया हुआ (कृणोतु) करे ॥१॥
भावार्थ
जो मनुष्य ज्ञानपूर्वक परमेश्वर को आत्मसमर्पण करते हैं, वे सुखी होते हैं ॥१॥
टिप्पणी
१−(यत्) (अन्नम्) भोजनम् (अद्मि) भक्षयामि (बहुधा) प्रायः (विरूपम्) विविधप्रकारम् (हिरण्यम्) सुवर्णम् (अश्वम्) तुरङ्गम् (गाम्) धेनुम् (अजाम्) छागीम् (अविम्) मेषम् (यत् एव किम् च) यत्किमपि द्रव्यजातम् (प्रतिजग्रह) ह्रस्वत्वं छान्दसम्। प्रतिजग्राह। प्राप (अहम्) उपासकः (अग्निः) सर्वव्यापकः परमेश्वरः (तत्) सर्वं पूर्वोक्तम् (होता) दाता (सुहुतम्) हु दानादनयोः−क्त। सुष्ठु धार्मिकरीत्या गृहीतम् (कृणोतु) करोतु ॥
विषय
'अन्नदोष व प्रतिग्रहदोष' परिहार
पदार्थ
१. (यत्) = जो (विरूपम्) = विविधरूपोंवाले (अन्नम्) = अन्न को (बहुधा) = बहुत प्रकार से (अहम् अधि) = मैं खा लेता हूँ। भूख की पीड़ा के कारण और भोज्याभोज्य विभाग के बिना जो मैंने खा लिया है, (तत्) = उस मेरे अन्नदोष को वह (होता अग्निः) = सब वस्तुओं को देनेवाला अग्रणी प्रभु (सुहृतं कृणोतु) = सुहुत करे। विवशता में मैं कुछ खा बैहूँ तो प्रभु के अनुग्रह और प्रेरणा से उसे यज्ञ का रूप देने का प्रयत्न करूँ-त्याग करके बचे को ही खाऊँ। २. इसीप्रकार मैं (हिरण्यम्) = सोना, (अश्वम्) = घोड़ा (उत) = और (गाम् अजाम् अविम्) = गौ, बकरी व भेड़ (यत् किंच एव) = जो कुछ भी-अस्वीकरणीय को भी दरिद्रयवश (प्रतिजग्रह) = ग्रहण कर लें. उसे वह सर्वप्रद अग्रणी प्रभु सुहुत करने की कृपा करें। प्रभुकृपा से मैं व्रत ग्रहण करूँ कि 'अभक्ष्य को नहीं खाऊँगा तथा अन्याय्य धन का ग्रहण नहीं करूँगा'।
भावार्थ
प्रभुकृपा से हमारे अन्नदोष व प्रतिग्रहण दोष दूर हों।
भाषार्थ
(बहुधा) बहुत प्रकार से (विरूपम्) भिन्न-भिन्न रूपों वाला अर्थात् सात्त्विक, राजस, तामस (अन्नम्) अन्न (यद् अदि्म) जो मैं खाता हूं; तथा (हिरण्यम्) सुवर्ण, (अश्वम्) अश्व, (उत) ओर (गाम्, अजाम् अविम्) गौ, बकरी, भेड़ (यद् एव) जो ही (किं च) कुच्छ (अहम्) मैंने (प्रति जग्रह) दानरूप में ग्रहण किया है, (तत्) उस सब को (होता) दाता (अग्निः) परमेश्वर (सुहुतम्) जाठराग्नि में उत्तमाहुतिरूप तथा दाता द्वारा उत्तम विधि पूर्वक दिया हुआ (कृणोतु) करे।
टिप्पणी
[मन्त्र में दो प्रकार की वस्तुओं का वर्णन हुआ है खाद्यवस्तुओं का, तथा दान में गृहीत वस्तुओं का। “अद्मि" द्वारा खाद्य वस्तुओं का, तथा "प्रतिजग्रह" द्वारा दान में गृहीत वस्तुओं का। व्यक्ति सबके दाता अग्नि नामक परमेश्वर से प्रार्थना करता है कि आगे से सदा सुहुत होने वाला सात्म्य अन्न मैं खाऊ और धर्म विधि से दान में प्राप्त का ग्रहण करूं, ऐसे कृपा तू कर। परमेश्वर ज्ञानाग्निस्वरूप है, उससे एतद्विषयक ज्ञान प्राप्ति की भी अभिलाषा सूचित की है, ताकि व्यक्ति विवेकपूर्वक अन्न खा सके, और विवेकपूर्वक प्रतिग्रह कर सके। मनु ने तो कहा है कि "प्रतिग्रहः प्रत्यवरः", कि "प्रतिग्रह श्रेष्ठ कर्म नहीं"। होता= हु दाने (जुहोत्यादिः)]।
विषय
दुष्ट अन्न का त्याग और उत्तम अन्न आदि पदार्थों को ग्रहण करने का उपदेश।
भावार्थ
(बहुधा) प्रायः (यत्) जो (अन्नम्) अन्न मैं (विरूपम्) नाना प्रकार का (अद्मि) खाता हूं (हिरण्यम् अश्वम् उत गाम् अजाम् अविम्) और सोना, घोड़ा, गाय, बकरी और भेड़ और (यत् एव किं च) अन्य जो कुछ भी (अहम्) मैं (प्रति जग्रह) दूसरे से लेता हूं, (तत्) उसको (होता अग्निः) देने वाला, सर्वप्रद परमेश्वर (सुहुतं कृणोतु) उत्तम आहुति के समान दान देने और स्वीकार करने योग्य बना दे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अग्निर्देवता। ३ विश्वेदेवाः। १-२ जगत्यौ। ३ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Self-Surrender and Gratitude
Meaning
Whatever food I eat, of many forms in many ways, whatever I have received in the form of gold, horses, cows, goats and sheep, whatever I have received and given in exchange, may Agni, Almighty performer of cosmic yajna, turn all that into the yajnic mode of consumption and fragrant production in the service of Divinity and accept it as homage.
Subject
Agnih
Translation
The food of various types, which I often eat, and the gold, horse, or cow, goat and sheep, whatever I have taken, may the adorable. Lord, the offerer, make all that properly obtained .
Translation
May self-refulgent God, the giver of all prosperity make for my benefit whatever food of varied taste and nature I eat and whatever gift in the form of Gold, Horse, Cow, Goat and Sheep I receive.
Translation
Whatever food of varied form and nature, I generally eat due to hunger, without caring to ascertain whether it is good or bad; whatever gift of gold horse, cow, goat or sheep, I receive on account of poverty, may God, the Giver, make it worthy of acceptance.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(यत्) (अन्नम्) भोजनम् (अद्मि) भक्षयामि (बहुधा) प्रायः (विरूपम्) विविधप्रकारम् (हिरण्यम्) सुवर्णम् (अश्वम्) तुरङ्गम् (गाम्) धेनुम् (अजाम्) छागीम् (अविम्) मेषम् (यत् एव किम् च) यत्किमपि द्रव्यजातम् (प्रतिजग्रह) ह्रस्वत्वं छान्दसम्। प्रतिजग्राह। प्राप (अहम्) उपासकः (अग्निः) सर्वव्यापकः परमेश्वरः (तत्) सर्वं पूर्वोक्तम् (होता) दाता (सुहुतम्) हु दानादनयोः−क्त। सुष्ठु धार्मिकरीत्या गृहीतम् (कृणोतु) करोतु ॥
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