अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 92/ मन्त्र 1
वात॑रंहा भव वाजिन्यु॒ज्यमा॑न॒ इन्द्र॑स्य याहि प्रस॒वे मनो॑जवाः। यु॒ञ्जन्तु॑ त्वा म॒रुतो॑ वि॒श्ववे॑दस॒ आ ते॒ त्वष्टा प॒त्सु ज॒वं द॑धातु ॥
स्वर सहित पद पाठवात॑ऽरंहा: । भ॒व॒ । वा॒जि॒न् । यु॒ज्यमा॑न: । इन्द्र॑स्य । या॒हि॒ । प्र॒ऽस॒वे । मन॑:ऽजवा: । यु॒ञ्जन्तु॑ । त्वा॒ । म॒रुत॑: । वि॒श्वऽवे॑दस: । आ । ते॒ । त्वष्टा॑ । प॒त्ऽसु । ज॒वम् । द॒धा॒तु॒ ॥९२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
वातरंहा भव वाजिन्युज्यमान इन्द्रस्य याहि प्रसवे मनोजवाः। युञ्जन्तु त्वा मरुतो विश्ववेदस आ ते त्वष्टा पत्सु जवं दधातु ॥
स्वर रहित पद पाठवातऽरंहा: । भव । वाजिन् । युज्यमान: । इन्द्रस्य । याहि । प्रऽसवे । मन:ऽजवा: । युञ्जन्तु । त्वा । मरुत: । विश्वऽवेदस: । आ । ते । त्वष्टा । पत्ऽसु । जवम् । दधातु ॥९२.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(वाजिन्) हे अन्न वा बलवाले राजन् ! (युज्यमानः) सावधान होकर (वातरंहाः) वायु के समान वेगवाला (भव) हो, और (इन्द्रस्य) परम ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर की (प्रसवे) आज्ञा में (मनोजवाः) मन के समान गतिवाला होकर (याहि) चल। (विश्ववेदसः) समस्त विद्याओं वा धनोंवाले (मरुतः) दोषों के नाश करनेवाले विद्वान् लोग (त्वा) तुझको (युञ्जन्तु) [राज कार्य में] युक्त करें, (त्वष्टा) सूक्ष्मदर्शी मनुष्य (ते) तेरे (पत्सु) पगों में (जवम्) वेग को (आ) अच्छे प्रकार (दधातु) धारण करे ॥१॥
भावार्थ
राजा परमेश्वर की वेदविहित आज्ञा में चलकर और नीतिज्ञ विद्वानों से मेल करके राज्य की रक्षा करे और यान विमान द्वारा अभीष्ट देशों में जाकर यथायत् कार्य सिद्ध करे ॥१॥ मन्त्र १, २ कुछ भेद से यजुर्वेद में है−अ० ९ म० ८, ९ ॥
टिप्पणी
१−(वातरंहाः) रमेश्च। उ० ४।२१४। इति रमु क्रीडायाम्−असुन् हुक् च। रंहो वेगः। वायुवद्वेगयुक्तो (भव) (वाजिन्) वाज−इनि। वाजोऽन्नम्−निघ० २।७। बलम्−२।९। अन्नवन्। बलवन् राजन् (युज्यमानः) समाहितः सन् (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतो जगदीश्वरस्य (याहि) गच्छ (प्रसवे) षू प्रेरणे−अप्। अनुज्ञायाम् (मनोजवाः) जु रंहसि−असुन्। मनोवद्वेगवान्−(युञ्जन्तु) राजकार्ये संयोजयन्तु (त्वा) त्वाम् (मरुतः) अ० १।२०।१। दोषनाशकाः। विद्वांसः। ऋत्विजः−निघ० ३।१८। (विश्ववेदसः) विद−असुन् सर्वज्ञाः। सर्वधनाः (आ) समन्तात् (ते) तव (त्वष्टा) अ० २।५।६। सूक्ष्मदर्शी मनुष्यः (पत्सु) पादेषु (जवम्) वेगम् (दधातु) स्थापयतु ॥
विषय
वातरंहाः
पदार्थ
१. हे (वाजिन्) = शक्तिशालिन् ! (युज्यमान:) = चित्तवृत्ति को एकाग्न करता हुआ तू (वातरंहा भव) = वायु के समान वेगवाला हो-स्फूर्ति से सब कार्यों को करनेवाला हो। (मनोजवा:) = मन के वेगवाला-प्रबल मानसिक शक्तिवाला तू (इन्द्रस्य) = परमैश्वर्यशाली प्रभु की (प्रसवे) = प्रेरणा में (याहि) = गति कर । २. (विश्ववेदसः) = सम्पूर्ण ज्ञानवाले (मरुतः) = मितरावी-कम बोलनेवाले-ज्ञानी पुरुष (त्वा युजन्तु) = प्रेरणा देते हुए तुझे कर्तव्यों में नियुक्त करें। (त्वष्टा) = निर्माता प्रभु (ते पात्सु) = तेरे पैरों में (जवं दधातु) = वेग धारण करें-तुझे शक्ति दें।
भावार्थ
प्रभु से शक्ति प्राप्त करके, ज्ञानियों से मार्गदर्शन कराया जाकर तु दृढ मानस शक्तिवाला होकर, कार्यों में स्फूर्ति से व्याप्त होनेवाला हो।
भाषार्थ
(वाजिन्) हे वेग वाले अश्व ! (वातरंहाः) झंझावायु के वेग वाला (भव) तू हो जा, (युज्यमानः) जुता जाता हुआ [तैय्यार किया जाता हुआ] तू (इन्द्रस्य) सम्राट् की (प्रसवे) प्ररेणा पर (मनजवाः) मनोवेगी हुआ (याहि) युद्धभूमि में जा। (विश्ववेदसः) समग्र युद्ध विद्या के जानने वाले (मरुतः) मारने में कुशल सैनिक (त्वा युञ्जन्तु) तुझे युक्त करें [संनाह साज द्वारा तैय्यार करें], (वाटा) कारीगर-परमेश्वर (ते) तेरे (पत्सु) पैरों में (जवम्) वेग (आ दधातु) स्थापित करे।
टिप्पणी
[इन्द्रश्च सम्राट् (यजु० ८।३७)। मरुतः= मारयति वा स मरुत्, मनुष्यजातिः (उणा० १।ओ४; दयानन्द), तथा "मरुतो यन्त्वग्रम्" (यजू० १७॥४०)। मन्त्र में "वाजिन्" पद जात्येकवचन में है। युद्ध भूमि में तो वाजी पर्याप्त संख्या में चाहिये, एक अश्व विजय कैसे दे सकता है (मन्त्र २) "समने पारयिष्णुः"]।
विषय
प्राणरूप अश्व का वर्णन।
भावार्थ
हे (वाजिन्) वाज, बल, ज्ञान से युक्त प्राण ! (युज्यमानः) तू इस देह में नियुक्त होकर (वात-रंहाः भव) वायु के वेग वाला हो। और (मनोजवाः) मानसिक वेग से गतिमान् होकर तू (इन्द्रस्य) इस आत्मा के (प्रसवे) उत्तम ज्ञान-सम्पादन और इन्द्रियों के और शरीर के संचालन के कार्य में (याहि) गति कर। (त्वा) तुझे (मरुतः) ज्ञानी पुरुष (विश्व-वेदसः) सब ज्ञानों को प्राप्त करनेवाले तपस्वी (युञ्जन्तु) योगाभ्यास द्वारा नियुक्त करें। (त्वष्टा) स्वयं इन्द्र आत्मा (ते) तेरे (पत्सु) समस्त चरणों, गमन साधनों में (जवम्) वेग का (दधातु) आधान करे। इन्द्रो वै त्वष्टा। (ऐ० ६। १०) शरीर का प्राण; प्राण वायु के वेग से चलता है। परन्तु मानसिक बल से प्रेरित होकर वह शरीर के सब कार्यों को चलाता है। विद्वान् लोग उन प्राणों को वश करते हैं। वह आत्मा स्वयं उस प्राण में वेग उत्पन्न करता है। अथवा इन्द्रियगण उस प्राण को अपने ज्ञान और कर्म करने में लगाते हैं। अश्वपक्ष में—हे (वाजिन् युज्यमानः त्वं वात-रंहाः भव) हे वेगवान् अश्व ! गतिमान् यन्त्र-रथ में जुड़ा हुआ तू वायु के वेगवाला हो। और (इन्द्रस्य प्रसवे मनोजवाः याहि) राजा, स्वामी की प्रेरणा में आकर तू मन के वेगवाला होकर चल। (विश्ववेदसः मरुतः त्वा युञ्जन्तु) समस्त साधनों और ज्ञानों के स्वामी मरुत् वेगवान्, तीव्रगामी वीरभट तुझे अपने रथों में लगावें। और (त्वष्टा) त्वष्टा, गढ़ने वाला, कारीगर (ते पत्सु जवं दधातु) तेरे पैरों में वेग को उत्पन्न करे।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘इन्द्रस्येव दक्षिणः श्रियैधि’ इति यजु०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। वाजी देवता। १ जगती, २, ३ त्रिष्टुभौ। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Energy, Action, Achievement
Meaning
The subject matter of this sukta is Vajin, any conceivable embodiment of energy in any conceivable context from the Lord Omnipotent and energy itself to the smallest possible dynamic particle, a swift, spirited, impetuous, heroic, warlike, potent and procreative victorious power, person, institution or thing of the world of nature and humanity: for example, Indra, the Omnipotent, ruler, leader, warrior, scholar, producer, fire, wind, sun, the social order, Sarasvati, Vak the Word, chhanda or poet and poetry, the arrow, the horse, the eagle, energy itself. Swift as the wind, as energy itself, be O Vajin on course, go by the speed of mind all over the world of omnipotent Lord Indra’s creation. Let all Maruts, most vibrant powers of the world, knowing and being with the world of life, be and perform with you. May Tvashta, lord creator of world forms, vest the impulse and velocity of light and mind in your movement.
Subject
Vajin (steed)
Translation
O vajin, the steed, may you be as swift as wind, after having been harnessed (yuj), please go in Indra’s impulse (prasava) with quickness of the mind. May the maruts (cloud-bearing winds) harness you. May the Supreme Architect, Tvast, provide speed to your feet. (Also YV. IX.8)
Translation
Let the strong steed when it is harnessed be as rapid as wind, let it go onward as swift as thought under the direction of the mounting King, let the men of army or the possessors of wealth and wisdom yoke it and let the talented trainer lay swiftness in its feet.
Translation
O powerful king, with full consciousness, be fast as wind. Go forth as swift as thought at God's behest. May wealthy, ennobling learned persons yoke thee to royal administration. May God lay swiftness in thy foot.
Footnote
The verse has been applied to Prāna by Pt. Jaidev Vidyalankar and to horse by Sāyana and Grifith. Pt. Jaidev Vidyalankar and to horse by Sãyana and Griffith. Pt. Jaidev has translated Vājin as breath, and Sāyana as horse. For detailed rendering, consult their translations. Pt. Khem Karan Das Trivedi has translated Vājin as a strong king.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(वातरंहाः) रमेश्च। उ० ४।२१४। इति रमु क्रीडायाम्−असुन् हुक् च। रंहो वेगः। वायुवद्वेगयुक्तो (भव) (वाजिन्) वाज−इनि। वाजोऽन्नम्−निघ० २।७। बलम्−२।९। अन्नवन्। बलवन् राजन् (युज्यमानः) समाहितः सन् (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतो जगदीश्वरस्य (याहि) गच्छ (प्रसवे) षू प्रेरणे−अप्। अनुज्ञायाम् (मनोजवाः) जु रंहसि−असुन्। मनोवद्वेगवान्−(युञ्जन्तु) राजकार्ये संयोजयन्तु (त्वा) त्वाम् (मरुतः) अ० १।२०।१। दोषनाशकाः। विद्वांसः। ऋत्विजः−निघ० ३।१८। (विश्ववेदसः) विद−असुन् सर्वज्ञाः। सर्वधनाः (आ) समन्तात् (ते) तव (त्वष्टा) अ० २।५।६। सूक्ष्मदर्शी मनुष्यः (पत्सु) पादेषु (जवम्) वेगम् (दधातु) स्थापयतु ॥
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