अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 95/ मन्त्र 1
ऋषिः - भृग्वङ्गिरा
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कुष्ठौषधि सूक्त
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अ॑श्व॒त्थो दे॑व॒सद॑नस्तृ॒तीय॑स्यामि॒तो दि॒वि। तत्रा॒मृत॑स्य॒ चक्ष॑णं दे॒वाः कुष्ठ॑मवन्वत ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒श्व॒त्थ: । दे॒व॒ऽसद॑न: । तृ॒तीय॑स्याम् । इ॒त: । दि॒वि । तत्र॑ । अ॒मृत॑स्य । चक्ष॑णम् । दे॒वा: । कुष्ठ॑म् । अ॒व॒न्व॒त॒ ॥९५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्वत्थो देवसदनस्तृतीयस्यामितो दिवि। तत्रामृतस्य चक्षणं देवाः कुष्ठमवन्वत ॥
स्वर रहित पद पाठअश्वत्थ: । देवऽसदन: । तृतीयस्याम् । इत: । दिवि । तत्र । अमृतस्य । चक्षणम् । देवा: । कुष्ठम् । अवन्वत ॥९५.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विद्वानों के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(देवसदनः) विद्वानों के बैठने योग्य (अश्वत्थः) वीरों के ठहरने का देश [अधिकार] (तृतीयस्याम्) तीसरी [निकृष्ट और मध्यम अवस्था से परे, श्रेष्ठ] (दिवि) गति में (इतः) प्राप्त होता है। (तत्र) उसमें (अमृतस्य) अमृत [पूर्ण सुख] के (चक्षणम्) दर्शन (कुष्ठम्) गुणपरीक्षक पुरुष को (देवाः) महात्माओं ने (अवन्वत) मांगा है ॥१॥
भावार्थ
विद्वान् लोग इस ईश्वरनियम को निश्चय करके मानते हैं कि अति विद्वान् पुरुषार्थी मनुष्य उच्च अधिकार के योग्य होता है ॥१॥ (अश्वत्थः) पीपल के वृक्ष को भी कहते हैं, इसका गुण−अ० ३।६।१। में वर्णन हो चुका है। (कुष्ठ) कूट ओषधि विशेष भी है, देखो−अ० ५।४।१ ॥
टिप्पणी
१−(अश्वत्थः) अ० ३।६।१। अश्व+ष्ठा गतिनिवृत्तौ−क, पृषोदरादिरूपम्। अश्वानां कर्मसु व्यापनशीलानां वीराणां स्थितिदेशः। (तृतीयस्याम्) निकृष्टमध्यमाभ्यां परायां श्रेष्ठायाम् (दिवि) गतौ (कुष्ठम्) अ० ५।४।१। कुष निष्कर्षे−क्थन्। गुणपरीक्षकम् (अवन्वत) याचितवन्तः। अन्यद् गतम्−अ० ५।४।३ ॥
विषय
कुष्ठ
पदार्थ
व्याख्या द्रष्टव्य-५.४.३-४।
१. हे अग्ने-परमात्मन्! आप (ओषधीनाम्) = [ओष: धीयते आस] परिपाक जिनमें धारण किया जाता है, उन सब ओषधियों के (गर्भः असि) = गर्भ हो-गर्भ की भाँति उनमें अवस्थित हो। (उत) = और (हिमवताम्) = शीत स्पर्शवाली अन्य वनस्पतियों को भी (गर्भ:) = गर्भ के समान धारण करनेवाले हो। २. आप वस्तुत: (विश्वस्य) = सारे (भूतस्य) = प्राणिसमूह के व ब्राह्माण्ड के अन्दर (गर्भ:) = गर्भवत् अवस्थित हो। ऐसे आप (मे) = मेरे (इमम्) = इस व्यक्ति को (अगदं कृधि) = नीरोग कीजिए। आप इसके अन्दर भी उसी प्रकार अवस्थित हुए इसे नीरोग करनेवाले होओ।
भावार्थ
प्रभु आग्नेय व सौम्य पदार्थों में गर्भवत् स्थित हैं। हमारे अन्दर भी स्थित होते हुए प्रभु हमें नीरोग करें।
भाषार्थ
(इतः) यहां से (तृतीयस्याम्) तीसरे (दिवि) द्युलोक में (अश्वत्थ:१) अश्वत्थ है (देवसदनः) दिव्यगुणों का घर। (तत्र) उस अश्वत्थ में (अमृतस्य चक्षणम्)२ अमृत की दृष्टि (देवा:) देवों ने की, और उसे (कुष्ठम्) कुष्ठरूप में (अवन्वत) याचित किया।
टिप्पणी
[अभिप्राय यह कि अश्वत्थ के भी वही गुण हैं, जोकि कुष्ठ के हैं। अवन्वत= वनु याचने (तनादिः)]। [१. गुलर?, Holy fig tree (आप्टे), ficus religiosa, मथवा पीपल। २. चक्षिङ् "अयं वर्शनेऽपि" (अदादिः)।]
विषय
कुष्ठ औषधि और सर्वव्यापक परमात्मा का वर्णन।
भावार्थ
व्याख्या देखो ५। ४। ३।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वङ्गिरा ऋषिः। वनस्पतिर्मन्त्रोक्ता च देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Kushtha
Meaning
High up in the third region from here, in heaven, there is the Ashvattha tree, seat of divinities. Thereon shines the light of immortality, and there from the light, the divines obtained the Kushtha herb.
Subject
Vanaspati : Kustha herb
Translation
The Asvattha, the seat of gods in the third heaven from here (devasadana, trtiya), there the gods gain a victory over Kustha or leprosy; the victory is a sight of immortality (Also see Av. V.4.3)
Translation
Ashvatha is the abode of all the remedial properties and it is known and realized in the mind which is the third plan of this bodily structure. The Kustha planted on the ashvatha, bears immortality (long life) if applied as medician it is described by the persons of high medical achievements.
Translation
Head, the home of organs, where reside the horse-like organs, is the topmost part of the body: There, God is visualized. The yogis long there for God, Who pervades the material body.
Footnote
See Atharva, S-4-3. Organs: Two eyes, two ears, two nostrils and mouth, called seven Rishis, on account of their usefulness and serviceableness.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(अश्वत्थः) अ० ३।६।१। अश्व+ष्ठा गतिनिवृत्तौ−क, पृषोदरादिरूपम्। अश्वानां कर्मसु व्यापनशीलानां वीराणां स्थितिदेशः। (तृतीयस्याम्) निकृष्टमध्यमाभ्यां परायां श्रेष्ठायाम् (दिवि) गतौ (कुष्ठम्) अ० ५।४।१। कुष निष्कर्षे−क्थन्। गुणपरीक्षकम् (अवन्वत) याचितवन्तः। अन्यद् गतम्−अ० ५।४।३ ॥
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