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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 22/ मन्त्र 1
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ब्रध्नः, उषाः छन्दः - द्विपदैकावसाना विराड्गायत्री सूक्तम् - ज्योति सूक्त
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    अ॒यं स॒हस्र॒मा नो॑ दृ॒शे क॑वी॒नां म॒तिर्ज्योति॒र्विध॑र्मणि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । स॒हस्र॑म् । आ । न॒: । दृ॒शे । क॒वी॒नाम् । म॒ति: । ज्योति॑: । विऽध॑र्मणि॥ २३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं सहस्रमा नो दृशे कवीनां मतिर्ज्योतिर्विधर्मणि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । सहस्रम् । आ । न: । दृशे । कवीनाम् । मति: । ज्योति: । विऽधर्मणि॥ २३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 22; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विज्ञान की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (अयम्) यह [परमेश्वर] (नः कवीनाम् सहस्रम्) हम सहस्र बुद्धिमानों में (आ) व्यापकर (दृशे) दर्शन के लिये (विधर्मणि) विरुद्धधर्मी [पञ्चभूतरचित स्थूल जगत्] में (मतिः) ज्ञानस्वरूप और (ज्योतिः) ज्योतिःस्वरूप है ॥१॥

    भावार्थ

    पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश से बने संसार में परमात्मा की महिमा निहार कर विद्वान् लोग विज्ञान, शिल्प आदि के नये-नये आविष्कार करते हैं ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(अयम्) सर्वत्रानुभूयमानः परमेश्वरः (आ) व्याप्य (नः) अस्माकम् (दृशे) दृशे विख्ये च। पा० ३।४।११। इति दृशिर्-के। दर्शनाय (कवीनाम्) मेधाविनाम् (मतिः) चित्स्वरूपः (ज्योतिः) प्रकाशरूपः (विधर्मणि) विरुद्धधर्मवति पञ्चभूतनिर्मिते जगति ॥

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    विषय

    कवीनां मतिः

    पदार्थ

    १. (अयम्) = ये प्रभु (सहस्त्रम्) = सहस्रसंवत्सर कालपर्यन्त (दृशे) = दर्शन के लिए, ज्ञान-प्रदान के लिए (नः आ) [भवतु] = हमें प्राप्त हों। हम सदा प्रभु से ज्ञान प्राप्त करनेवाले बनें और दीर्घजीवी हों। वे प्रभु (कवीनां मति:) = ज्ञानी पुरुषों से माननीय हैं। (विधर्मणि) = विविध धर्मों में वे हमारे (ज्योति:) = प्रकाश हैं, मार्गदर्शक हैं।

    भावार्थ

    हम प्रभु से प्रकाश प्रास करते हुए दीर्घकाल तक जीवन-धारण करें। वे प्रभु ज्ञानियों से मननीय हैं, और विविध धर्मों में मार्गदर्शक हैं।

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    भाषार्थ

    (अयम्) यह परमेश्वर (कवीनाम्, मतिः) कवियों की मतिरूप है, और (विधर्मणि) विविध प्रकार धारण करने वाली वस्तुओं में (सहस्रम् ज्योतिः) हजार ज्योतिरूप है, वह (आ नः) पूर्णतया हमारे (दृशे) दृष्टिगोचर हुआ है।

    टिप्पणी

    [परमेश्वर कवि है, वेद उस के काव्य हैं, वह आदि कवि है, उससे पूर्व कोई कवि नहीं हुआ, कविता करने की मति उसी ने दी, अतः वह कवि के लिये मतिरूप है। ब्रह्माण्ड में धारक वस्तुएं हजारों हैं; सूर्य, चन्द्र अग्नि विद्युत्, नक्षत्र और तारागण असंख्य हैं। परमेश्वर इन हजारों ज्योतियों में चमकता है। परन्तु वह है एकज्योतिरूप ही "तस्य भासा सर्वमिदं विभाति" (मुण्डक २।१०)। वह परमेश्वर जिसे कि सूक्त (२२) में अतिथि कहा है, हम कवियों में वह पूर्णतया दृष्टिगोचर हो गया है]।

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    विषय

    ज्ञानदाता ईश्वर।

    भावार्थ

    (सहस्रम्) सहस्र = बलवान् सर्वशक्तिमान् (मतिः) मननयोग्य मति, विचार = ज्ञानस्वरूप (अयं) यह परमेश्वर (विधर्मणि ज्योतिः) विशेष धर्म वाले आत्मा में ज्योति रूप से प्रकाशमान होकर (नः) हमें (कवीनां) क्रान्तदर्शी ऋषियों को (दृशे आ) साक्षात् होता है, उनको ज्ञान प्रदान करता है।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘आन्वीदृशः’ (च०) ‘विधर्म’ इति साम०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। मन्त्रोक्ता व्रध्नो देवता। १ द्विपदैकावसाना विराड् गायत्री। २ त्रिपाद अनुष्टुप्। द्व्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Light Divine

    Meaning

    This One Spirit of the expansive universe, light of life manifesting in infinite forms and functions of existence, is the vision and intelligence of the poets for our experience in a thousand different ways.

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    Subject

    Lingoktah - Bradhnah

    Translation

    For our vision, He (appears in a) thousand (ways). He is the genius of the visionaries, an illuminating light for various purpose.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.23.1AS PER THE BOOK

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    Translation

    This Divinity gives thought for seeing reality of the (Sahastan) world and beyond the wise men amongst us. He is the light ranging in all the material objects.

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    Translation

    This Omnipotent, Omniscient God, appearing as Light in the soul, the performer of special duties, grants knowledge to us, the learned sages.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(अयम्) सर्वत्रानुभूयमानः परमेश्वरः (आ) व्याप्य (नः) अस्माकम् (दृशे) दृशे विख्ये च। पा० ३।४।११। इति दृशिर्-के। दर्शनाय (कवीनाम्) मेधाविनाम् (मतिः) चित्स्वरूपः (ज्योतिः) प्रकाशरूपः (विधर्मणि) विरुद्धधर्मवति पञ्चभूतनिर्मिते जगति ॥

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