अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 42/ मन्त्र 1
ऋषिः - प्रस्कण्वः
देवता - सोमारुद्रौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
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सोमा॑रुद्रा॒ वि वृ॑हतं विषूची॒ममी॑वा॒ या नो॒ गय॑मावि॒वेश॑। बाधे॑थां दू॒रं निरृ॑तिं परा॒चैः कृ॒तं चि॒देनः॒ प्र मु॑मुक्तम॒स्मत् ॥
स्वर सहित पद पाठसोमा॑रुद्रा । वि । वृ॒ह॒त॒म् । विषू॑चीम् । अमी॑वा । या । न॒: । गय॑म् । आ॒ऽवि॒वेश॑ । बाधे॑थाम् । दू॒रम् । नि:ऽऋ॑तिम् । प॒रा॒चै: । कृ॒तम् । चि॒त् । एन॑: । प्र । मु॒मु॒क्त॒म् । अ॒स्मत् ॥४३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
सोमारुद्रा वि वृहतं विषूचीममीवा या नो गयमाविवेश। बाधेथां दूरं निरृतिं पराचैः कृतं चिदेनः प्र मुमुक्तमस्मत् ॥
स्वर रहित पद पाठसोमारुद्रा । वि । वृहतम् । विषूचीम् । अमीवा । या । न: । गयम् । आऽविवेश । बाधेथाम् । दूरम् । नि:ऽऋतिम् । पराचै: । कृतम् । चित् । एन: । प्र । मुमुक्तम् । अस्मत् ॥४३.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और वैद्य के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(सोमारुद्रा) हे सूर्य और मेघ [के समान सुखदायक राजा और वैद्य !] तुम दोनों (विषूचीम्) विसूचिका, [हुलकी आदि] को (विवृहतम्) छिन्न-भिन्न कर दो, (या अमीवा) जो रोग (नः गयम्) हमारे घर वा सन्तान में (आविवेश) प्रवेश कर गया है, (निर्ऋतिम्) दुःखदायिनी कुनीति को (पराचैः) औंधे मुँह करके (दूरम्) दूर (बाधेथाम्) हटाओ, और (कृतम्) उसके किये हुए (एनः) दुःख को (चित्) भी (अस्मत्) हम से (प्र मुमुक्तम्) छुड़ा दो ॥१॥
भावार्थ
जो राजा और वैद्य कारणों को समझ कर कुनीति और रोग का प्रतिकार करते हैं, वहाँ प्रजागण दुःख से छूटकर सुखी रहते हैं ॥१॥ मन्त्र १, २ कुछ भेद से ऋग्वेद में है−६।७४।२, ३। इनका भाष्य महर्षि दयानन्द के आश्रय पर किया गया है ॥
टिप्पणी
१−(सोमारुद्रा) सोमः सूर्यः प्रसवनात्-निरु० १४।१२। रुद्रो रौतीति सतः-निरु० १०।५। मध्यस्थानो मेघः। सूर्यमेघवत् सुखप्रदौ राजवैद्यौ (वि वृहतम्) वृहू उद्यमने। छेदयतम् (विषूचीम्) अ० १।२९।१। विषु+अञ्चु गतौ-क्विन्। विषूचिकादिरोगम् (अमीवा) इण्शीभ्यां वन्। उ० १।१५२। इति बाहुलकात् अम रोगे पीडने च-वन्, ईडागमः, टाप्। रोगः (या) (नः) अस्माकम् (गयम्) गृहमपत्यं वा (आविवेश) प्रविष्टवती (बाधेथाम्) निवारयतम् (दूरम्) (निर्ऋतिम्) दुःखप्रदां कुनीतिम् (पराचैः) अ० २।१०।५। पराङ्मुखीं कृत्वा (कृतम्) तया सम्पादितम् (एनः) दोषम् (प्र) प्रकर्षेण (मुमुक्तम्) मोचयतम् (अस्मत्) अस्मत्तः ॥
विषय
सोमारुद्रा
पदार्थ
१. हमारे शरीर में 'सोम' जल व शान्ति का प्रतीक है तथा 'रुद्र' अग्नि व शक्ति का। (सोमारुद्रा) = ये दोनों जल व अग्नितत्त्व [शान्ति शक्ति, आप:+ज्योतिः] (विषुचीम्) = [विष्वग् गमनाम] शरीर में चारों ओर फैलनेवाली बीमारी को (विवृहतम्) = विनष्ट कर डाले [वह उद्यमने] उखाड़ फेंके। (या अमीवा) = जो रोग (न:) = हमारे (गयम् आविवेश) = गृह व शरीर में सर्वतः व्यास हो गया है, उस रोग को ये सोम और रुद्र उखाड़कर दूर कर दें। २. और (निर्ऋतिम्) = निकृष्टगमनहेतु रोगनिदानभूत अशुभवृत्ति को (पराचैः) = [पराङ्मुख, पराचैः इति अव्ययम्] पराङ्मुख करके दूर (बाधेथाम्) = हमसे दूर ही रोक दें। इसप्रकार दूर रोक दें कि यह पुन: हमारे पास न आ सके। (कतं चित् एन:) = इस नि:ति के कारण किये हुए पाप व कष्ट को ये सोम और रुद्र (अस्मत्) = हमसे (प्रमुमुक्तम्) = छुड़ा दें।
भावार्थ
जीवन में जल व अग्नि का समन्वय आवश्यक है, आपः व ज्योतिः [शान्ति व शक्ति] का समन्वय ही रोगों, निर्बतियों व कष्टों को दूर करता है।
भाषार्थ
(सोमा रुद्रा) हे सोम-और-रुद्र ! (विषूचीम्) विस्वक् अर्थात् फैलने वाले रोग को (विवृहतम्) विनष्ट करो, (या अमीवा) जो अमीवा कि (नः गयम्) हमारे घर में या शरीरों में (आ विवेश) प्रविष्ट हो गया है। (पराचैः) दूर करने के निज साधनों द्वारा (निर्ऋतिम्) कष्टापत्तिरूप विषूची को (दूरम्) दूर कर (बाधेथाम्) इस का नाश करो, (कृतं चित् एन) और किये पाप को भी (अस्मत्) हम से (प्रमुमुक्तम्) मुक्त करो, छुड़ाओ।
टिप्पणी
[विषूची= विषूचिका=Cholera (आप्टे)। वृहतम्= विनाशयतम् (सायण)। अमीवा= अम रोगे (चुरादिः)। “अमीवा" रोगकीटाणु भी है। "गयः गृहनाम (निघं० ३।४)। सोम= जल और रुद्र विद्युत्। यथा "अप्सु में सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा। अग्निं च विश्वशम्भूवम" (अथर्व० १।६।२), सोम का सम्बन्ध आपः के साथ है, और आपः में सब भेषज हैं, और अग्नि है जो कि सब रोगों को शान्त करती है। यह अग्नि विद्युत् है। सोमः = Water (आप्टे)। निर्ऋतिः= कृच्छापतिः (निरुक्त २।२।९)। जब रोग समाप्त हो गया, तो यह रोग, जिस पाप का परिणाम था वह भी दूर गया, क्योंकि उस पाप का फल भुक्त हो चुका]।
विषय
पापमोचन की प्रार्थना।
भावार्थ
हे (सोमरुद्रा) सोम और रुद्र, जल और अग्नि (या) जो (अमीवा) रोगकारी पदार्थ (नः) हमारे (गयम्) प्राण में, घर में या शरीर में (आविवेश) प्रविष्ट हो गया है उस (विषूचीम्) नाना प्रकार से शरीर में, घर में या देश में फैलनेवाले रोग का (वृहतम्) नाना प्रकार के उपायों से नाश करो। और आप दोनों (निः-ऋतिम्) सब प्रकार के कष्टों और दुःखों को (पराचैः) दूर ही (बाधेथाम्) रोको, दूर ही उसका विनाश करो। और (अस्मत्) हमसे (कृतम् चित्) किये हुए (एनः) पाप या रोग को (प्र मुमुक्तम्) छुड़ाओ। सोम शब्द से—राजा, वायु, चन्द्र, क्षत्रिय, अन्न, प्राण, वीर्य, अमृत, आत्मा, ब्राह्मण आदि का ग्रहण होता है। रुद्र शब्द से अग्नि, घोर, प्रतिहर्त्ता, प्राण आदि लिये जाते हैं। यहां रोगनिवारण वा और पापनाशन का प्रकरण है। रोगनाशन में सोम और रुद्र दो प्रकार के चिकित्सक हैं। एक सोम = जलीय शान्त गुण औषधियों से चिकित्सा करने वाले, दूसरे रुद्र=तीक्ष्ण ओषधियों द्वारा चिकित्सा करने वाले। पापनाशन में आधिभौतिक में उपदेशक और दण्डकर्त्ता। आधिदैविक में जल और अग्नि। अध्यात्म में प्राण और अपान, या प्राण और उदान लेने चाहियें।
टिप्पणी
‘ऋग्वेदे भारद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः’ (तृ०) ‘आरे बाधेथां निर्ऋतिं’ (च०) ‘मुमुग्ध्यस्मत्’ इति ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्व ऋषिः। सोमरुद्रौ देवता। १, २ अनुष्टुभौ। द्वयृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom from Disease
Meaning
O Soma, herbal medication, and Rudra, pranic vitality, physician and the Health-care system, cure and root out the disease that has entered our body, home and society. Ward off the infectious and contagious calamity with curative and preventive measures and thus release us from the evil.
Subject
Soma and Rudra (Pair)
Translation
O Lord blissful (Soma) and terrible (Rudra), may you tear asunder and drive away the disease, which has entered our house. May you chase the perdition (nir-rti) far away. May you also remove from us the defects which it has caused.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.43.1AS PER THE BOOK
Translation
Let water and fire or the Sun and the heat scatter and drive away the ailment that has entered in our bodies. Let them chase the destruction afar into distance and release us from evil that has been created by this disease.
Translation
Soma and Rudra may also mean water and fire, or Sun and Cloud.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(सोमारुद्रा) सोमः सूर्यः प्रसवनात्-निरु० १४।१२। रुद्रो रौतीति सतः-निरु० १०।५। मध्यस्थानो मेघः। सूर्यमेघवत् सुखप्रदौ राजवैद्यौ (वि वृहतम्) वृहू उद्यमने। छेदयतम् (विषूचीम्) अ० १।२९।१। विषु+अञ्चु गतौ-क्विन्। विषूचिकादिरोगम् (अमीवा) इण्शीभ्यां वन्। उ० १।१५२। इति बाहुलकात् अम रोगे पीडने च-वन्, ईडागमः, टाप्। रोगः (या) (नः) अस्माकम् (गयम्) गृहमपत्यं वा (आविवेश) प्रविष्टवती (बाधेथाम्) निवारयतम् (दूरम्) (निर्ऋतिम्) दुःखप्रदां कुनीतिम् (पराचैः) अ० २।१०।५। पराङ्मुखीं कृत्वा (कृतम्) तया सम्पादितम् (एनः) दोषम् (प्र) प्रकर्षेण (मुमुक्तम्) मोचयतम् (अस्मत्) अस्मत्तः ॥
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