अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 67/ मन्त्र 1
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - आत्मा
छन्दः - पुरःपरोष्णिग्बृहती
सूक्तम् - आत्मा सूक्त
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पुन॑र्मैत्विन्द्रि॒यं पुन॑रा॒त्मा द्रवि॑णं॒ ब्राह्म॑णं च। पुन॑र॒ग्नयो॒ धिष्ण्या॑ यथास्था॒म क॑ल्पयन्तामि॒हैव ॥
स्वर सहित पद पाठपुन॑: । मा॒ । आ । ए॒तु॒ । इ॒न्द्रि॒यम् । पुन॑: । आ॒त्मा । द्रवि॑णम् । ब्राह्म॑णम् । च॒ । पुन॑: । अ॒ग्नय॑: । धिष्ण्या॑: । य॒था॒ऽस्था॒म । क॒ल्प॒य॒न्ता॒म् । इ॒ह । ए॒व ॥६९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
पुनर्मैत्विन्द्रियं पुनरात्मा द्रविणं ब्राह्मणं च। पुनरग्नयो धिष्ण्या यथास्थाम कल्पयन्तामिहैव ॥
स्वर रहित पद पाठपुन: । मा । आ । एतु । इन्द्रियम् । पुन: । आत्मा । द्रविणम् । ब्राह्मणम् । च । पुन: । अग्नय: । धिष्ण्या: । यथाऽस्थाम । कल्पयन्ताम् । इह । एव ॥६९.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सुकर्म करने का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्रियम्) इन्द्रत्व [परम ऐश्वर्य] (मा) मुझको (पुनः) अवश्य [वा फिर जन्म में], (आत्मा) आत्मबल, (द्रविणम्) धन (च) और (ब्राह्मणम्) वेदविज्ञान (पुनः) अवश्य [वा परजन्म में] (आ एतु) प्राप्त होवे (धिष्ण्याः) बोलने में चतुर (अग्नयः) विद्वान् लोग (यथास्थाम) यथास्थान [कर्म अनुसार मुझको] (इह) यहाँ (एव) ही (पुनः) अवश्य [वा पर जन्म में] (कल्पयन्ताम्) समर्थ करें ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य सदा सुकर्मी होकर इस लोक और परलोक का आनन्द प्राप्त करें ॥१॥ यह मन्त्र ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, पुनर्जन्मविषय, पृष्ठ २०३ में भी व्याख्यात है ॥
टिप्पणी
१−(पुनः) अवश्यं परजन्मनि वा (मा) मां प्राणिनम् (ऐतु) आगच्छतु (इन्द्रियम्) अ० १।३५।३। इन्द्रलिङ्गम्। परमैश्वर्यम्। धनम्-निघ० २।१०। (पुनः) (आत्मा) आत्मबलम् (द्रविणम्) धनम् (ब्राह्मणम्) अ० ७।६६।१। वेदविज्ञानम् (च) (पुनः) (अग्नयः) अ० २।३५।१। ज्ञानिनः पुरुषाः (धिष्ण्याः) अ० २।३५।१। धिष शब्दे-ण्य। शब्दकुशलाः (यथास्थाम) आतो मनिन्०। पा० ३।२।७४। तिष्ठतेर्मनिन्। यथास्थानम्। यथाकर्मफलम् (कल्पयन्ताम्) समर्थयन्तु (इह) अस्मिन् संसारे (एव) हि ॥
विषय
विष्णयाः अग्नयः
पदार्थ
१. (मा) = मुझे (इन्द्रियम्) = वीर्य व चक्षु आदि इन्द्रियाँ (पुन:) = फिर (एतु) = प्राप्त हों। (आत्मा) = मन (द्रविणम्) = धन (च ब्राह्मणम्) = और ब्रह्मज्ञान मुझे (पुन:) = फिर प्रास हो। (पुन:) = फिर (धिष्ण्या: अग्नयः) = [धिष्ण्य-House] शरीरगृह में रहनेवाली, अथवा [विष्य-Power Strength] शरीर को शक्तिसम्पन्न बनानेवाली अग्नियाँ (यथास्थाम) = अपने-अपने स्थान पर (इह एव कल्पयन्ताम्) = यहाँ शरीर में ही स्थित हुई-हुई हमें शक्तिशाली बनाएँ। २. प्राणाग्निहोत्रोपनिषत् में इन अग्नियों का वर्णन इसप्रकार है कि [क] सूर्यः [अग्निः] मूर्धनि तिष्ठति, [ख] दर्शनाग्निः [आहवनीयः भूत्वा] मुखे तिष्ठति, [ग] शारीर: अग्निः [दक्षिणाग्निः भूत्वा] हृदये तिष्ठति, कोष्ठाग्नि: [गार्हपत्यो भूत्वा] नाभ्यां तिष्ठति, अर्थात् सूर्याग्नि मूर्धा में, दक्षिणाग्नि [आहवनीय] मुख में, शरीराग्नि [दिक्षिणाग्नि] हृदय में तथा कोष्ठानि [गार्हपत्य] नाभि में स्थित है। ये सब अग्नियाँ अपना अपना कार्य ठीक प्रकार से करती हुई हमें शक्तिशाली बनाती हैं।
भावार्थ
हमें 'बीर्य, मन, द्रविण व ज्ञान' की पुनः प्राप्ति हो। शरीरस्थ सब अग्नियाँ अपना-अपना कार्य ठीक प्रकार से करती हुई हमें शक्तिशाली बनाएँ।
इसप्रकार 'शरीर, मन, बुद्धि' के पूर्ण स्वास्थ्य से जीवन में शान्ति का विस्तार करनेवाला 'शन्ताति' अगले दो सूक्तों का ऋषि है -
भाषार्थ
(पुनः) फिर (मा) मुझे (इन्द्रियम्) ज्ञानेन्द्रिय समूह (ऐतु) प्राप्त हो, (पुनः आत्मा) फिर आत्मा, (द्रविणम्) बल, (च) और (ब्राह्मणम्) वेदमन्त्र [प्राप्त हों]। (पुनः) फिर (धिष्ण्यः अग्नयः) अग्निरूप धिषणा अर्थात् वाक् आदि कर्मेन्द्रिय समूह (यथास्थाम) यथास्थान अर्थात् अपने अपने स्थान में (कल्पयन्ताम्) सामर्थ्यवान् हो जायं (इह एव) इस ही जीवन में।
टिप्पणी
[धिषणा वाङ् नाम (निघं० १।११)। द्रविणम् बलनाम (निघं० २।९)। वाक वक्ता के अभिप्राय को प्रकाशित करती है अतः अग्नि है। हाथ भी इशारा कर अभिप्राय को प्रकाशित करता है। हाथ कर्मेन्द्रिय है। ब्राह्मणम्= ब्रह्म एव ब्राह्मणम्, स्वार्थे अण्। ब्रह्म= मन्त्र। मन्त्र में मूर्च्छासन्न व्यक्ति की अभिलाषा प्रकट की है]।
विषय
शरीरस्थ अग्नियें।
भावार्थ
(मा) मुझे (इन्द्रियं) इन्द्रियों का सामर्थ्य, बल (पुनः) फिर प्राप्त हो। अथवा मुझे इन्द्र, परमेश्वर का बल अथवा चक्षु आदि इन्द्रियगण पुनः पुनः प्राप्त हों। (आत्मा) मन, जीव और देह (द्रविणम्) धन और (ब्राह्मणं च) ब्रह्मज्ञान भी पुनः पुनः प्राप्त हो। (धिष्ण्याः) आधान के स्थान में विहरण करने वाले (अग्नयः) अग्नियां, आहवनीय, गार्हपत्य और अन्वाहार्यपचन आदि (यथा-स्थाम) अपने अपने स्थानों पर (इह एव) इस लोक में, देह में, गृह में भी (पुनः) बार बार (कल्पयन्ताम्) प्रज्वलित हों, समर्थ हों। शरीरस्थ अग्नियों का विवरण प्राणाग्निहोत्र उपनिषत् के अनुसार इस प्रकार है। (१) सूर्य-अग्नि ‘एक ऋषि’ होकर मूर्धा स्थान पर विराजती हैं। (२) दर्शनाग्नि आहवनीयाग्नि होकर मुख में बैठती है। (३) शारीर अग्नि, जठर में हवि प्राप्त करती है, वही दक्षिणाग्नि होकर हृदय में बैठती है। (४) कोष्ठाग्नि गार्हपत्य होकर नाभि में रहती है। (५) उससे नीचे प्रायश्चित्ती अग्नि प्रजननांग में रहती हैं। ये पांचों शरीर धारण करने से और शरीर में विद्यमान रहने से ‘धिस्थ्य’ कहाती हैं। अथवा ‘धिषणा’ बुद्धि द्वारा प्रेरित होने से ‘धिष्ण्य’ कहाती हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। आत्मा देवता। पुरः पुरोष्णिग् बृहती। एकर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Re-birth
Meaning
Let the power and functions of the senses come to me again, let the soul again attain to existential identity, let wealth, honour and excellence, and let the Voice and knowledge of Brahman, the Eternal Spirit, come to me again. Let the holy fires of yajna arise and shine for me again, let intelligence and mind with intellect, understanding, will and passion come again, all in proper order and make me potent and perfect here itself in the living world.
Subject
Atman
Translation
May the vigour of sense-organs come to me again; again the soul (auman), wealth and the divine knowledge. May the sacrificial fires flourish again in their proper place just here.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.69.1AS PER THE BOOK
Translation
May I again receive my sense organs in my future life and may I receive my spirit, together with worldly possessions and knowledge Divine so that I may perform fire-offering on the altars and may ever attain prosperity.
Translation
May I, after rebirth, acquire prosperity, spiritual force, riches and Vedic knowledge. May eloquent learned persons, according to the fruit of my actions make me successful in my next life in this world.
Footnote
This verse preaches the doctrine of the transmigration of soul.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(पुनः) अवश्यं परजन्मनि वा (मा) मां प्राणिनम् (ऐतु) आगच्छतु (इन्द्रियम्) अ० १।३५।३। इन्द्रलिङ्गम्। परमैश्वर्यम्। धनम्-निघ० २।१०। (पुनः) (आत्मा) आत्मबलम् (द्रविणम्) धनम् (ब्राह्मणम्) अ० ७।६६।१। वेदविज्ञानम् (च) (पुनः) (अग्नयः) अ० २।३५।१। ज्ञानिनः पुरुषाः (धिष्ण्याः) अ० २।३५।१। धिष शब्दे-ण्य। शब्दकुशलाः (यथास्थाम) आतो मनिन्०। पा० ३।२।७४। तिष्ठतेर्मनिन्। यथास्थानम्। यथाकर्मफलम् (कल्पयन्ताम्) समर्थयन्तु (इह) अस्मिन् संसारे (एव) हि ॥
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