अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 70/ मन्त्र 1
यत्किं चा॒सौ मन॑सा॒ यच्च॑ वा॒चा य॒ज्ञैर्जु॒होति॑ ह॒विषा॒ यजु॑षा। तन्मृ॒त्युना॒ निरृ॑तिः संविदा॒ना पु॒रा स॒त्यादाहु॑तिं हन्त्वस्य ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । किम् । च॒ । अ॒सौ । मन॑सा । यत् । च॒ । वा॒चा । रा॒ज्ञै: । जु॒होति॑ । ह॒विषा॑ । यजु॑षा । तत् । मृ॒त्युना॑ । नि:ऽऋ॑ति: । स॒म्ऽवि॒दा॒ना । पु॒रा । स॒त्यात् । आऽहु॑तिम् । ह॒न्तु॒ । अ॒स्य॒ ॥७३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्किं चासौ मनसा यच्च वाचा यज्ञैर्जुहोति हविषा यजुषा। तन्मृत्युना निरृतिः संविदाना पुरा सत्यादाहुतिं हन्त्वस्य ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । किम् । च । असौ । मनसा । यत् । च । वाचा । राज्ञै: । जुहोति । हविषा । यजुषा । तत् । मृत्युना । नि:ऽऋति: । सम्ऽविदाना । पुरा । सत्यात् । आऽहुतिम् । हन्तु । अस्य ॥७३.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
शत्रु के दमन का उपदेश।
पदार्थ
(असौ) वह [शत्रु] (यत् किम्) जो कुछ (मनसा) मन से, (च च) और (यत्) जो कुछ (वाचा) वाणी से, (यज्ञैः) सङ्गति कर्मों से, (हविषा) भोजन से और (यजुषा) दान से (जुहोति) आहुति करता है। (मृत्युना) मृत्यु के साथ (संविदानाः) मिली हुई (निर्ऋतिः) निर्ऋति, दरिद्रता आदि अलक्ष्मी (सत्यात् पुरा) सफलता से पहिले (अस्य) इसकी (तत्) उस (आहुतिम्) आहुति को (हन्तु) नाश करें ॥१॥
भावार्थ
जो शत्रु मन, वचन और कर्म से प्रजा को सताने का उपाय करे, निपुण सेनापति शीघ्र ही उसे धनहरण आदि दण्ड देकर रोक देवे ॥१॥
टिप्पणी
१−(यत् किम्) यत् किञ्चित् (च) (असौ) शत्रुः (मनसा) अन्तःकरणेन (यत्) (च) (वाचा) वाण्या (यज्ञैः) सङ्गतिकर्मभिः (जुहोति) आहुतिं करोति (हविषा) भोजनेन (यजुषा) दानेन (तत्) ताम् (मृत्युना) (निर्ऋतिः) अ० २।१०।१। कृच्छ्रापत्तिः। दरिद्रतादिः (संविदाना) अ० २।२८।२। संगच्छमाना (पुरा) पूर्वम् (सत्यात्) कर्मसाफल्यात् (आहुतिम्) होमक्रियाम् (हन्तु) नाशयतु (अस्य) शत्रोः ॥
विषय
मनसा वाचा कर्मणा।
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज
प्रत्येक मानव को तप करना है। मेरे प्यारे! देखो, तप उसे कहते हैं, जो मनसा वाचा कर्मणा मानो देखो, अपने में किसी भी प्रकार की अपने में हीनता में न हो मेरे प्यारे! देखो, वह तपों में कहलाता है। मेरे प्यारे! वही वाक्य उन्होंने उच्चारण कर दिया कि वाणी से उद्गीत गाते हैं। मेरे प्यारे! वह बारहस्वी ऋषि ब्रह्म की गाथा गाने लगा। मानो उद्गीत गाने लगा। मेरे प्यारे! जो विशुद्ध रूपों से वाणी से उद्गीत गाता है, ध्वनि उच्चारण होती रहती है वही ध्वनि मेरे प्यारे! वायु मण्डल को पवित्र बना देती है। वायु मण्डल कैसे पवित्र होता है? यह वाणी के द्वारा होता है। यह उसके मन के, आन्तरिक जगत का भाव है। जब तक उसके आन्तरिक जगत में अि हंसा न आ जाए, हिंसा का भाव समाप्त न हो जाए, तब तक वह ब्रह्म जिज्ञासु अथवा ब्रह्म की आभा में रमण करने के लिए तत्पर नहीं और द्वितीय जो स्वरूप है, मेरे प्यारे! जैसे यह मनका है वाचा कहलाता है। वाचा में हमारी वाणी में मधुरपन होना चाहिए। हमारे व्यवहार में कुशलता होनी चाहिए, जिससे व्यवहार कुशल प्राणी साधारण लोकों को विजय कर लेता है। हमारे यहाँ वाणी से उच्चारण करने वाला दूसरों के हृदयों को परिवर्तित कर देता है। एक मानव अशुद्ध उच्चारण कर रहा है। परन्तु विशुद्ध रूप जब वाचा उसके समीप आता है तो उसका हृदय, उसका वाक्य भी स्वीकार कर लेता है कि वास्तव में तू अशुद्ध है।
मेरे प्यारे! एक कर्मणा होता है। कर्म में भी मेरे प्यारे! कोई इच्छा नहीं होनी चाहिए। यह मनसा, वाचा, कर्मणा मानो उन तीन रूपों से हिंसा प्रारम्भ करता है। अहिंसा में तीन ही रूप आ जाते हैं। इन तीनों रूपों से मानव के कर्म में, वचन में और मुनिवरों! आन्तरिक जगत में तीनों भाव एक रूप होने चाहिए।
उसी में मनसा, वाचा, कर्मणा में लगभग बारह वर्ष तक उन्होंने ब्रह्मचर्य का पालन किया। ब्रह्मचर्य का तात्पर्य क्या कि ब्रह्म में रत्त रहना, ब्रह्म का चिन्तन करना, ब्रह्म की आभा को चरना। इस प्रकार बारह वर्ष तक कठोर तप किया और जब तप में यह विशेषता हो गई कि उनकी वाणी में अमोघता आ गई।
विषय
हिंस्त्रः स्वपापेन विहिंसितः खलु
पदार्थ
१. (असौ) = वह दूरस्थ शत्रु (यत् किम्) = जो कुछ कर्म-शत्रुहननरूप कर्म करने के लिए (मनसा) = मन के द्वारा ध्यान करता है, (यत् च) = और जो कर्म (वाचा) = वाणी से 'करता हूँ' इसप्रकार कहता है तथा (यज्ञैः) = अभिचार कर्मों से, (हविषा) = उस कर्म के लिए उचित द्रव्यों से, (यजुषा) = मन्त्रों से (जुहोति) = होम करता है, (अस्य) = अपने प्रतिपक्ष के विनाश के लिए 'मन, वाणी व शरीर' से उपाय करते हुए शत्रु के (तत्) = उस मन से, ध्यान व वाणी से उक्त कर्म को तथा (आहुतिम्) = क्रिया से निष्पाद्यमान होमकर्म को (सत्यात् पुरा) = सत्यभूत कर्मफल से पहले ही, कर्म के सफल होने से पूर्व ही (निर्ऋति:) = पाप देवता (मृत्युना संविदाना) = मृत्यु के साथ संज्ञान-[ऐकमत्य]-बाली हुई-हुई (हन्तु) = नष्ट कर डाले।
भावार्थ
शत्रु द्वारा मन, वाणी व कर्म' से हमारे विषय में क्रियमाण अभिचार कर्म के फलप्रद होने से पूर्व ही मृत्युसहित पापदेवता उस शत्रु को नष्ट कर डाले। पापकर्म करनेवाला उस कर्म से स्वयं ही विनष्ट हो जाए।
भाषार्थ
(असौ) वह [परराष्ट्ररूपी शत्रु ] (यत् किं च) जो कुछ (मनसा) मन द्वारा, (यत् च) और जो (वाचा) वाणी द्वारा, (यज्ञैः) और हमारी सेना के साथ संग्राम करने वाले, भिड़ने वाले सेनाओं के प्रेरकों द्वारा, (हविषा) सैनिकरूपी हवि द्वारा, (यजुषा) तथा यजुर्वेदोक्त अन्य साधनों या विधियों द्वारा (जुहोति) युद्ध-यज्ञ में आहुतियां देता है, (अस्य) इस पर राष्ट्ररूपी शत्रु के (तत्) उस कर्म को (आहुतिम्) अर्थात् युद्ध-यज्ञ में दी जाने वाली आहुति को (सत्यात् पुरा) इन के सद्रूप होने से पहिले ही (मृत्युना) मृत्यु के साथ (संविदाना) ऐकमत्य को प्राप्त (निऋतिः) कृच्छ्रापत्ति (हन्तु) इन्हें नष्ट कर दे।
टिप्पणी
[मनसा= युद्ध के लिये मानसिक विचार। वाचा= युद्ध के लिये वाचिक घोषणा ! (यज्ञैः) (यजु० १७।४०) में "यज्ञः-सोम" द्वारा यज्ञ को सोम अर्थात् युद्धाधिकारी कहा है, जो कि सेना के आगे-आगे चलता हुआ सेना का प्रेरक होता है, सोमः (षू प्रेरणे१)। "यज्ञैः" में बहुवचन द्वारा युद्ध में नाना सैनिकदलों को सूचित किया है, और प्रत्येक दल के अधिकारी को "यज्ञः सोमः" कहा है। युद्ध होने से पूर्व शत्रुराष्ट्र को कृच्छापत्तियों द्वारा घेर लेना चाहिये, और इसी घेरे द्वारा सम्भावित उनकी मृत्यु कर देनी चाहिये, ताकि शत्रु युद्ध करने ही न पाए]। [१. यथा “इन्द्र भासां नेता, बृहस्पतिः दक्षिणा, यज्ञः पुरऽएतु सोमः" (यजु० १७।४०)]
विषय
दुष्ट पुरुषों का वर्णन।
भावार्थ
(असौ) वह पुरुष, (यत् मनसा) जो कुछ अपने मन से विचारता है। (यत् किंच) जो कुछ और (यत् च) जो भी (वाचा) अपनी वाणी से बोलता है; और जो कुछ (यजुषा) यजुर्वेद के अनुसार (हविषा) अन्नादि पदार्थों को (यज्ञैः) यज्ञ आदि कर्मों के द्वारा (जुहोति) त्याग करता है, (निः-ऋतिः) पापप्रवृत्ति (मृत्युना) मौत के साथ (सं-विदाना) एक होकर (सत्यात् पुरा) उसके सत्य अर्थात् कर्म फल के सत् रूप में आने के पूर्व ही (अस्य) इस पुरुष के (आ-हुतिम्) त्याग आदि कर्मों का (हन्तु) विनाश करती है। आत्मसंभाविताः स्तब्धा धनमानमुदान्विताः। यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्॥ तानहं द्विषतः क्रूरान् संसारेषु नराधमान्। क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वैव योनिषु। गीता०। १६। १६,१२। अश्रदृया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्। असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥ गीता०१७। २८। गर्व, मद मान (निर्ऋति) से प्रेरित होकर नामयज्ञों से जो दम्भपूर्वक यज्ञ करता है ऐसे को और क्रूर अशुभ पापी पुरुषों को ईश्वर आसुरि योनियों में भेजता है। श्रद्धारहित होकर किये यज्ञ, दान, तेप सब दोनों लोकों में असत्, निष्फल होते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। श्येन उत मन्त्रोक्ता देवता॥ १ त्रिष्टुप्। अत्तिजगतीगर्भा जगती। ३-५ अनुष्टुभः (३ पुरः ककुम्मती)॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Nip the Enemy
Meaning
new light of a new day. Shyena, the Eagle in this sukta is a metaphor of defence forces which must pounce upon the enemy before he strikes. Whatever the enemy is able to muster up with intention, thought and planning, whatever with words and propaganda, with all his joint efforts and allies, materials and his tactics of application and execution, all that preparation and plan of his, our deadly defence forces of destruction and deprivation, having known in advance, must counter and destroy before he strikes and accomplishes his object.
Subject
Syena and others (Mantroktah)
Translation
Whatever that person offers as an oblation with his mind, speech, sacrifices, offerings and with the sacrificial formulas, may the perdition (nir-rti), in accord with death, kill his offering before it comes to be true.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.73.1AS PER THE BOOK
Translation
Whatever oblation this man offers in the yajna with mind, whatever with voice, whatever with the formulate of yajna whatever with oblatory articles and whatever with the verses of yajuh, the disease-causing calamity in company of death ruins his performance and prayer be for their fulfillment.
Translation
Whatever sacrifice that man performeth with mind, voice, verses of the Yajurveda, and oblations of corn, may his sinful conduct, in accord with Death, ruin his offering before it gain fulfillment.
Footnote
That man: A man of debased character and sinful nature.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(यत् किम्) यत् किञ्चित् (च) (असौ) शत्रुः (मनसा) अन्तःकरणेन (यत्) (च) (वाचा) वाण्या (यज्ञैः) सङ्गतिकर्मभिः (जुहोति) आहुतिं करोति (हविषा) भोजनेन (यजुषा) दानेन (तत्) ताम् (मृत्युना) (निर्ऋतिः) अ० २।१०।१। कृच्छ्रापत्तिः। दरिद्रतादिः (संविदाना) अ० २।२८।२। संगच्छमाना (पुरा) पूर्वम् (सत्यात्) कर्मसाफल्यात् (आहुतिम्) होमक्रियाम् (हन्तु) नाशयतु (अस्य) शत्रोः ॥
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