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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 157 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 157/ मन्त्र 1
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अश्विनौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अबो॑ध्य॒ग्निर्ज्म उदे॑ति॒ सूर्यो॒ व्यु१॒॑षाश्च॒न्द्रा म॒ह्या॑वो अ॒र्चिषा॑। आयु॑क्षाताम॒श्विना॒ यात॑वे॒ रथं॒ प्रासा॑वीद्दे॒वः स॑वि॒ता जग॒त्पृथ॑क् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अबो॑धि । अ॒ग्निः । ज्मः । उत् । ए॒ति॒ । सूर्यः॑ । वि । उ॒षाः । च॒न्द्रा । म॒ही । आ॒वः॒ । अ॒र्चिषा॑ । अयु॑क्षाताम् । अ॒श्विना॑ । यात॑वे । रथ॑म् । प्र । अ॒सा॒वी॒त् । दे॒वः । स॒वि॒ता । जग॑त् । पृथ॑क् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अबोध्यग्निर्ज्म उदेति सूर्यो व्यु१षाश्चन्द्रा मह्यावो अर्चिषा। आयुक्षातामश्विना यातवे रथं प्रासावीद्देवः सविता जगत्पृथक् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अबोधि। अग्निः। ज्मः। उत्। एति। सूर्यः। वि। उषाः। चन्द्रा। मही। आवः। अर्चिषा। अयुक्षाताम्। अश्विना। यातवे। रथम्। प्र। असावीत्। देवः। सविता। जगत्। पृथक् ॥ १.१५७.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 157; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाश्विगुणानाह ।

    अन्वयः

    यथाऽग्निरबोधि ज्मः सूर्य्य उदेति मही चन्द्रोषा व्यावः सविता देवो वार्चिषा जगत् पृथक् प्रासावीत् तथाऽश्विना यातवे रथमयुक्षाताम् ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (अबोधि) बुध्यते विज्ञायते (अग्निः) विद्युदादिः (ज्मः) पृथिव्याः (उत्) (एति) उदयं प्राप्नोति (सूर्यः) (वि) (उषाः) प्रभातः (चन्द्रा) आह्लादप्रदा (मही) महती (आवः) अवति (अर्चिषा) (अयुक्षाताम्) अयोजयताम्-युङ्तः (अश्विना) विद्वांसावाप्ताऽध्यापकोपदेशकौ (यातवे) यातुं गन्तुम् (रथम्) विमानादियानम् (प्र) (असावीत्) प्रसुवति (देवः) दिव्यगुणः (सविता) ऐश्वर्यकारकः (जगत्) (पृथक्) ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्युत्सूर्योषसः स्वप्रकाशेन स्वयं प्रकाशिता भूत्वा सर्वं जगत् प्रकाश्यैश्वर्यं प्रापयन्ति तथैवाऽध्यापकोपदेशकाः पदार्थेश्वरविद्याः प्रकाश्याऽखिलमैश्वर्य्यं जनयेयुः ॥ १ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब छः ऋचावाले एकसौ सत्तावनवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र से ही अश्वि के गुणों को कहते हैं ।

    पदार्थ

    जैसे (अग्निः) विद्युदादि अग्नि (अबोधि) जाना जाता है, (ज्मः) पृथिवी से अलग (सूर्यः) सूर्य (उदेति) उदय होता है (मही) बड़ी (चन्द्रा) आनन्द देनेवाली (उषाः) प्रभात वेला (व्यावः) फैलती उजेली देती है वा (सविता) ऐश्वर्य करनेवाला (देवः) दिव्यगुणी सूर्यमण्डल (अर्चिषा) अपने किरण समूह से (जगत्) मनुष्यादि प्राणिमात्र जगत् को (पृथक्) अलग (प्रासावीत्) अच्छे प्रकार प्रेरणा देता है वैसे (अश्विना) अध्यापक और उपदेशक विद्वान् (यातवे) जाने के लिये (रथम्) विमानादि यान को (अयुक्षाताम्) युक्त करते हैं ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे बिजुली, सूर्य और प्रभातवेला अपने प्रकाश से आप प्रकाशित हो समस्त जगत् को प्रकाशित कर ऐश्वर्य की प्राप्ति कराते हैं, वैसे ही अध्यापक और उपदेशक लोग पदार्थ तथा ईश्वरसम्बन्धी विद्याओं को प्रकाशित कर समस्त ऐश्वर्य की उत्पत्ति करावें ॥ १ ॥

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    विषय

    निरन्तर क्रियाशीलता

    पदार्थ

    १. (ज्मः) = पृथिवी का यह (अग्निः) = मुख्य देवता अग्नि (अबोधि) = उद्बुद्ध होता है। पृथिवी का देवता अग्नि है। वह अग्निहोत्रादि कार्यों के किये जाने के लिए अग्निकुण्ड में उद्बुद्ध किया जाता है। द्युलोक का देवता (सूर्य:) = सूर्य उदेति द्युलोक में उदित होता है। (मही) = अत्यन्त महनीय अथवा पूजा के लिए सर्वोत्तम समय के रूप में होती हुई यह (चन्द्रा) = आह्लादमयी (उषा:) = उषा (अर्चिषा) = अपनी दीप्तियों से (वि आव:) = प्रकट होती है और अन्धकारों को दूर करती है। संक्षेप में पृथिवी पर अग्नि उद्बुद्ध हुआ है, द्युलोक में सूर्य उदित हुआ है और सम्पूर्ण अन्तरिक्ष को उषा ने दीप्ति से भर दिया है। इस प्रकार प्रातः काल पूर्णरूप में प्रकट हो गया है। २. अबइस समय (अश्विना) = मेरे प्राणापान यातवे जीवनयात्रा में आगे बढ़ने के लिए (रथम्) = इस शरीररथ को (आयुक्षाताम्) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों से युक्त करें। यह सविता (देव:) = प्रेरक, प्रकाशमय सूर्यदेव भी जगत्-सम्पूर्ण संसार को पृथक्-अलग-अलग, अपने-अपने कार्यों में प्रेरित करे। हम सबकी ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियाँ प्राणापान की कृपा से अपने ज्ञान प्राप्ति व यज्ञादि कार्यों में प्रवृत्त हों तथा ब्राह्मण अध्ययनाध्यापन में, क्षत्रिय राष्ट्र-रक्षण कार्यों में, वैश्य धनार्जन के लिए व्यापारादि में और शूद्र सेवा के कार्य में प्रवृत्त हो जाएँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रातः काल होते ही सब स्वकर्मों में प्रवृत्त होने का ध्यान करें।

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    विषय

    स्त्री पुरुषों के गृहस्थसम्बन्धी कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    (अग्निः) अग्नि जिस प्रकार (अबोधि) प्रज्वलित होता और (ज्मः) पृथिवी से भिन्न उसको प्रकाशित करने वाला ( सूर्यः ) सूर्य जैसे उदय को प्राप्त होता है। वैसे विनयी शिष्य अपनी विद्याभूमि आचार्य से विद्वान् हो सूर्य के समान तेजस्वी होकर ( उद् एति ) उदय को प्राप्त हो । ( चन्द्रा ) जैसे आल्हादकारिणी, सुखप्रद ( उषाः ) प्रभात वेला ( मही ) अति पूज्यस्वरूप ( अर्चिषा ) कान्ति के सहित ( आ अवः ) प्रकट होती है। उसी प्रकार आदरणीय, कान्तिमती कन्या तेज से विविध गुणों को प्रकट करे । तब ठीक इसी प्रकार ( अश्विना ) विद्या से व्यापक और विद्या के बल से जगत् के सुखों को भोगने वाले विद्वान् स्त्री-पुरुष मिलकर ( यातवे ) संसार के मार्ग पर चलने के लिये ( रथं ) उत्तम आनन्द देने और वेग से चलने वाले गृहस्थ रूप रथ को ( आ अयुक्षाताम् ) युक्त करें। जैसे ( सविता देवः ) सर्वैश्वर्यवान् सर्वप्रेरक तेजस्वी सूर्य ( जगत् ) सब जंगम प्राणिसंसार को ( पृथक् प्र असावीत् ) पृथक् प्रेरित कर सबको उनकी प्रकृति के अनुसार चलाता और उनको जीवन देता है । उसी प्रकार उत्पादक ( देवः ) कामनावान् पुत्रैषी, प्रिय पुरुष संतान को उत्पन्न करे । ( २ ) अथवा—प्रातः यज्ञाग्नि के जलते, सूर्योदय हो, उषा प्रकटे, तब स्त्री पुरुष ( रथं ) रमण योग्य आत्मा को ( अयुक्षातां ) योग समाधि द्वारा प्राप्त करने का अभ्यास करें । देखें ( सविता ) सर्वोत्पादक परमेश्वर जगत् को ( पृथक् ) पृथक् नाना रूपों से कैसे उत्पन्न करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमाः ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप् । ५ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् । २, ४ जगती। ३ निचृज्जगती ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात अश्वीच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विद्युत, सूर्य व उषा स्वतः प्रकाशित होऊन संपूर्ण जगाला प्रकाशित करतात व ऐश्वर्यवान करतात तसेच अध्यापक व उपदेशकांनी पदार्थ व ईश्वरासंबंधी विद्या प्रकट करून संपूर्ण ऐश्वर्य निर्माण करावे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The fire of Agni awakes and stirs the world with life afresh. The sun is on the rise over the earth. The great and golden dawn wrapt in beauty waxes on the horizon with the splendour of her glory. The Ashvins, harbingers of new light and knowledge, harness their chariot for the daily round. And the generous lord of light and life, Savita, in his own gracious way, showers and sanctifies the moving world with sunlight and new inspiration for action.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of Ashvinau (2) are described.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As the terrestrial fire or energy is lit up, the radiant sun also rises. The magnificent joyful Aurora (Dawn, USHA in Sanskrit) encompasses entire world with her radiance. The sun has roused the world in sundry ways. The learned teachers and preachers harness their energy in the form of aircrafts, vehicular etc. for their journey. (The twin Ashvinau are the teachers and preachers. Ed.)

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The power, sun and dawn shine with their light and illuminate the whole world. They lead to prosperity. In the same manner, the teachers and preachers should receive great wealth and prosperity by illuminating the science of various types and God.

    Foot Notes

    ( अश्विनौ) विद्वांसो अध्यापकोपदेशकौ = Learned teachers and preachers. (रथम् ) विमानदियानम् = Chariot or vehicle in the form of aircraft etc.

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