ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 187/ मन्त्र 1
पि॒तुं नु स्तो॑षं म॒हो ध॒र्माणं॒ तवि॑षीम्। यस्य॑ त्रि॒तो व्योज॑सा वृ॒त्रं विप॑र्वम॒र्दय॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठपि॒तुम् । नु । स्तो॒ष॒म् । म॒हः । ध॒र्माण॑म् । तवि॑षीम् । यस्य॑ । त्रि॒तः । वि । ओज॑सा । वृ॒त्रम् । विऽप॑र्वम् । अ॒र्दय॑त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
पितुं नु स्तोषं महो धर्माणं तविषीम्। यस्य त्रितो व्योजसा वृत्रं विपर्वमर्दयत् ॥
स्वर रहित पद पाठपितुम्। नु। स्तोषम्। महः। धर्माणम्। तविषीम्। यस्य। त्रितः। वि। ओजसा। वृत्रम्। विऽपर्वम्। अर्दयत् ॥ १.१८७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 187; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथान्नगुणानाह ।
अन्वयः
यस्य त्रितो व्योजसा विपर्वं वृत्रमर्दयत्तस्मै नु पितुं महो धर्माणं तविषीं चाहं स्तोषम् ॥ १ ॥
पदार्थः
(पितुम्) अन्नम् (नु) सद्यः (स्तोषम्) प्रशंसेयम् (महः) महत् (धर्माणम्) धर्मकारिणम् (तविषीम्) बलम् (यस्य) (त्रितः) मनोवाक्कर्मभ्यः (वि) विविधेऽर्थे (ओजसा) पराक्रमेण (वृत्रम्) वरणीयं धनम् (विपर्वम्) विविधैरङ्गोपाङ्गैः पूर्णम् (अर्दयत्) अर्दयेत् प्रापयेत् ॥ १ ॥
भावार्थः
ये बह्वन्नं गृहीत्वा सुसंस्कृत्यैतद्गुणान् विदित्वा यथायोग्यं द्रव्यान्तरेण संयोज्य भुञ्जते ते धर्माचरणाः सन्तः शरीरात्मबलं प्राप्य पुरुषार्थेन श्रियमुन्नेतुं शक्नुवन्ति ॥ १ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब ग्यारह ऋचावाले एकसौ सतासी सूक्त का आरम्भ है। उसके आरम्भ से अन्न के गुणों को कहते हैं ।
पदार्थ
(यस्य) जिसका (त्रितः) मन, वचन, कर्म से (वि, ओजसा) विविध प्रकार के पराक्रम से (विपर्वम्) विविध प्रकार के अङ्ग और उपाङ्गों से पूर्ण (वृत्रम्) स्वीकार करने योग्य धन को (अर्दयत्) प्राप्त करे उसके लिये (नु) शीघ्र (पितुम्) अन्न (महः) बहुत (धर्माणम्) धर्म करनेवाले और (तविषीम्) बल की मैं (स्तोषम्) प्रशंसा करूँ ॥ १ ॥
भावार्थ
जो बहुत अन्न को ले अच्छा संस्कार कर और उसके गुणों को जान यथायोग्य और व्यञ्जनादि पदार्थों के साथ मिलाके खाते हैं, वे धर्म के आचरण करनेवाले होते हुए शरीर और आत्मा के बल को प्राप्त होकर पुरुषार्थ से लक्ष्मी की उन्नति कर सकते हैं ॥ १ ॥
विषय
वृत्र का अर्दन
पदार्थ
१. मैं (नु) = निश्चय से (पितुम्) = उस रक्षक अन्न का (स्तोषम्) = स्तवन करता हूँ जोकि (महः) = [power, light] शक्ति व तेजस्विता को देनेवाला है, जो शक्ति ही है, (धर्माणम्) = जो शरीर का धारण करनेवाला है (तविषीम्) = जो वृद्धि के कारणभूत बलवाला है। अन्न वही ठीक है जो हमें तेजस्वी बनाए, जो हमारा धारण करे और जो हमारे बल को बढ़ाकर हमारी वृद्धि का कारण हो । २. इस अन्न के स्तवन से मनुष्य 'त्रित' बनता है – 'शरीर, मन व बुद्धि' तीनों की शक्ति का विस्तार करनेवाला बनता है [त्रीन् तनोति], अतः मैं उस अन्न का स्तवन करता हूँ (यस्य) = जिसके (वि ओजसा) = विशिष्ट ओज से (त्रितः) ='काम-क्रोध-लोभ'-इन तीनों को तैर जानेवाला व्यक्ति [त्रीन् तरति] (वृत्रम्) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को (विपर्वम्) [विच्छिन्नसन्धिकम् - सा०] एक-एक पर्व को विच्छिन्न करके (अर्दयत्) = हिंसित करता है । वृत्र ही बुद्धि में 'लोभ' के रूप से रहता है, मन में यह 'क्रोध' के रूप में है तथा इन्द्रियों में इसका स्वरूप 'काम' होता है । त्रित इस वृत्र के इन तीनों ही पर्वों को विच्छिन्न कर डालता है। सात्त्विक अन्न उसकी वृत्ति को सात्त्विक बनाता है, सात्त्विक वृत्ति होने पर वृत्र का विनाश होता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम उन्हीं ओषधि-वनस्पतियों को अपना अन्न बनाएँ जो हमें तेजस्वी, धारक व शक्तिशाली बनाएँ। इस अन्न से ओजस्वी बनकर हम वासनाओं को तैर जाएँ ।
विषय
अन्नवत् पालक प्रभु की उपासना।
भावार्थ
मैं (पितुं) अन्न के समान पालक (महः) महान् (धर्माणम्) समस्त जगत् को धारण करने वाले (तविषीम्) बल, शक्ति स्वरूप परमेश्वर की (नु) निरन्तर (स्तोषं) स्तुति करूं (यस्य) जिसके (ओजसा) बल पराक्रम से (त्रितः) वाक्, काय, मन तीनों के किये कर्मों में फंसा यह जीव ( वृत्रम् ) आवरणकारी अज्ञान को (विपर्वम्) एक २ पोरु २ छिन्न भिन्न करके (विअर्दयत्) विविध रूप से नाश करने में समर्थ होता है। अथवा (त्रितः) तीनों प्रकार के कायिक, वाचिक, मानसिक कर्मों और बलों से पुरुष (विपर्वं वृत्रम्) विविध अंगों से पूर्ण और पालन करने में समर्थ धनैश्वर्य को ( विअर्दयत् ) विविध उपायों से प्राप्त करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्य ऋषिः॥ ओषधयो देवता॥ छन्दः- १ उष्णिक् । ६, ७ भुरिगुष्णिक् । २, ८ निचृद गायत्री । ४ विराट् गयात्री । ९, १० गायत्री च । ३, ५ निचृदनुष्टुप् । ११ स्वराडनुष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात अन्नाच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती समजली पाहिजे.
भावार्थ
जे बरेच खाद्यपदार्थ घेऊन ते संस्कारित करतात व त्याचे गुण जाणून यथायोग्यरीत्या व्यंजन तयार करतात ते धर्माचे आचरण करणारे असतात. ते शरीर व आत्म्याचे बल प्राप्त करून पुरुषार्थाने लक्ष्मी प्राप्त करू शकतात. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Constantly do I honour and adore food and energy, fuel of life and instruments of the observance of Dharma, and the source of strength, power and courage, by the force and splendour of which Indra, mighty energy of sun and electricity, breaks the cloud to the last drop of condensed vapour, and by which the man of power and courage too, with the exercise of thought, word and deed, acquires cherished wealth complete in every aspect of value.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of good food.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
I admire good meals and its power which upholds and enables a man to perform good deeds. Because of it's force, a person exerts his mind, speech and actions and becomes capables to earn honest wealth of various kinds.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
NA
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who take good and well-cooked food knowing its varying qualities by mixing requisite substances get physical and spiritual power. Thus performing the righteous deeds they are able to achieve much prosperity with their industriousness.
Foot Notes
(पितुम्) अन्नम् | पितुरित्यन्ननाम ( N.G. 2-7) Food. (तविषीम् ) बलम् । तविषीति बलनाम (N. G. 2-2) = Strength. (वितः ) मनोवाक् कर्मभिः = With mind, speech and action. (वृत्रम्) वरणीयम् धनम् = Acceptable wealth.
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