ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 82/ मन्त्र 4
ऋषिः - विश्वकर्मा भौवनः
देवता - विश्वकर्मा
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त आय॑जन्त॒ द्रवि॑णं॒ सम॑स्मा॒ ऋष॑य॒: पूर्वे॑ जरि॒तारो॒ न भू॒ना । अ॒सूर्ते॒ सूर्ते॒ रज॑सि निष॒त्ते ये भू॒तानि॑ स॒मकृ॑ण्वन्नि॒मानि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठते । आ । अ॒य॒ज॒न्त॒ । द्रवि॑णम् । सम् । अ॒स्मै॒ । ऋष॑यः । पूर्वे॑ । ज॒रि॒तारः॑ । न । भू॒ना । अ॒सूर्ते॑ । सूर्ते॑ । रज॑सि । नि॒ऽस॒त्ते । ये । भू॒तानि॑ । स॒म्ऽअकृ॑ण्वन् । इ॒मानि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त आयजन्त द्रविणं समस्मा ऋषय: पूर्वे जरितारो न भूना । असूर्ते सूर्ते रजसि निषत्ते ये भूतानि समकृण्वन्निमानि ॥
स्वर रहित पद पाठते । आ । अयजन्त । द्रविणम् । सम् । अस्मै । ऋषयः । पूर्वे । जरितारः । न । भूना । असूर्ते । सूर्ते । रजसि । निऽसत्ते । ये । भूतानि । सम्ऽअकृण्वन् । इमानि ॥ १०.८२.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 82; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ते पूर्वे-ऋषयः) वे आरम्भ सृष्टि में उत्पन्न हुए साङ्कल्पिक वेदप्रकाशक ऋषि (जरितारः-न) स्तुति करनेवालों के समान (अस्मै द्रविणं भूना-आयजन्त) इस परमात्मा के लिए स्वात्मभावरूप बल को बहुत भावना से भली-भाँति समर्पित करतें हैं (सूर्ते) सरणशील जङ्गम में (असूर्ते) असरणशील स्थावर में (निषत्ते) निस्तब्ध ज्ञानशून्य (रजसि) लोक में-गण में (इमानि भूतानि) इन योग्य भूतों को वस्तुओं को (ये समकृण्वन्) जो सुखमय बनाते हैं, वे परम ऋषि थे ॥४॥
भावार्थ
आरम्भ सृष्टि में साङ्कल्पिक ऋषि परमात्मा की स्तुति करनेवाले अपने समस्त आत्मभाव को समर्पित करनेवाले होते हैं तथा जङ्गम स्थावर और निस्तब्ध के निमित्त सब वस्तुओं को सुखमय बनाते हैं ॥४॥
विषय
ऋषिजनों का सर्वोपास्य प्रभु में समस्त भूत-दर्शन रूप सर्वमेध। ऋषिजनों का प्रभु में चित्त-समर्पण।
भावार्थ
(ते) वे (पूर्वे) पूर्व के, एवं ज्ञान से पूर्ण, (ऋषयः) तत्त्वदर्शी, (जरितारः) स्तुति करने वाले भक्तजनों के तुल्य ही (भूना) बहुत २ (द्रविणम्) द्रुतगति से चलने वाले चित्त को (अस्मै) इसी परमेश्वर को साक्षात् करने के लिये (सम् आयजन्त) सब ओर से उसको एकत्र कर उसी में संगत कर देते, उस प्रभु के प्रति ही चित्त को अर्पित कर देते हैं। और वे महर्षि लोग (असूर्त्ते) सरण रहित, निश्चल, स्थावर और (सूर्त्ते) चल, जंगम (रजसि) व्यवस्थित लोक में (नि-सत्ते) नियत रूप से व्यापक, वा चराचर जगत् पर (नि-सत्ते) अध्यक्ष वा नियामक रूप से विद्यमान उस प्रभु में ही (इमा भूतानि) इन समस्त भूतों, लोकों और प्राणियों को (सम् अकृण्वन्) आश्रित, जीवित देखते और मानते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वकर्मा भौवन ऋषिः॥ विश्वकर्मा देवता॥ छन्द:- १, ५, ६ त्रिष्टुप्। २, ४ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ निचृत् त्रिष्टुप्। ७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्।
विषय
समाज व विशाल परिवार
पदार्थ
[१] (ते) = वे गतमन्त्र के अनुसार प्रभु को 'संप्रश्न' [आश्रय] जाननेवाले (पूर्वे ऋषय:) = अपना पूरण करनेवाले तत्त्वज्ञानी लोग (द्रविणम्) = धन को (समस्मा) = सबके लिये (आयजन्त) = दान करते हैं [यज=दाने], अर्थात् वे धन का विनियोग केवल अपने लिये न करके सम्पूर्ण समाज के हित के लिये करते हैं । (न) = और [न=च] (भूना) [ भूम्ना] = अपने इस बाहुल्य के कारण, बहुतों को अपने परिवार में सम्मिलित करने के कारण, (जरितारः) = ये प्रभु के सच्चे स्तोता होते हैं । प्रभु-भक्त कभी अकेला नहीं खाता। यह अपने में सभी को समाविष्ट कर लेता है और सदा यज्ञ करके यज्ञशेष का ही सेवन करता है । [२] ये ऋषि वे होते हैं ये जो (असूर्ते) = अचर व (सूर्ते) = चर (रजसि) -= लोक में (निषत्ते) = निषण्ण-स्थित उस प्रभु में (इमानि भूतानि) = इन सब प्राणियों को (समकृण्वन्) = [think, regard] सोचते हैं। जो प्रभु में स्थित इन प्राणियों को देखते हैं, वे सब के साथ एक बन्धुत्व का अनुभव करते हैं और इस बन्धुत्व के अनुभव करने के कारण वे धन को समाज के लिये देनेवाले होते हैं। इनके लिये अकेले खाने का सम्भव ही नहीं रहता ।
भावार्थ
भावार्थ - तत्त्वद्रष्टा, सब प्राणियों को प्रभु में स्थित देखता हुआ सब को बन्धु समझता है । सो वह सब के साथ बाँट करके खाता है।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ते पूर्वे-ऋषयः) ते खल्वारम्भसृष्टौ जाताः साङ्कल्पिकाः-वेदप्रकाशका ऋषयः (जरितारः-न) स्तोतारः खलु (अस्मै द्रविणं भूना-आयजन्त) अस्मै परमात्मने स्वात्मभावरूपं बलं बहुभावेन समन्तात् समर्थयन्ति (सूर्ते) सरणशीले जङ्गमे (असूर्ते) असरणशीले स्थावरे (निषत्ते) निस्तब्धे ज्ञानशून्ये (रजसि) लोके-गणे (इमानि भूतानि) एतानि भूतानि योग्यानि (ये समकृण्वन्) ये सुखमयं सम्पादयन् ते परमर्षयः आसन् ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The earliest Rshis, i.e., the vital energies of nature in the process of creative evolution in their own right with their power of Being, did yajnic service to the creator and offered their best input in the formative process like celebrants. Placed and abiding in the tumult of the moving and unmoving elements and forms, they fashioned forth the later forms of Being in homage to the divine will.
मराठी (1)
भावार्थ
सृष्टीच्या आरंभी सांकल्पिक ऋषी परमात्म्याची स्तुती करणारे व निस्तब्धाच्या निमित्ताने सर्व वस्तूंना सुखमय बनवितात. ॥४॥
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