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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 15/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    प्र घा॒ न्व॑स्य मह॒तो म॒हानि॑ स॒त्या स॒त्यस्य॒ कर॑णानि वोचम्। त्रिक॑द्रुकेष्वपिबत्सु॒तस्या॒स्य मदे॒ अहि॒मिन्द्रो॑ जघान॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । घ॒ । नु । अ॒स्य॒ । म॒ह॒तः । म॒हानि॑ । स॒त्या । स॒त्यस्य । कर॑णानि । वो॒च॒म् । त्रिऽक॑द्रुकेषु । अ॒पि॒ब॒त् । सु॒तस्य॑ । अ॒स्य । मदे॑ । अहि॑म् । इन्द्रः॑ । ज॒घा॒न॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र घा न्वस्य महतो महानि सत्या सत्यस्य करणानि वोचम्। त्रिकद्रुकेष्वपिबत्सुतस्यास्य मदे अहिमिन्द्रो जघान॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। घ। नु। अस्य। महतः। महानि। सत्या। सत्यस्य। करणानि। वोचम्। त्रिऽकद्रुकेषु। अपिबत्। सुतस्य। अस्य। मदे। अहिम्। इन्द्रः। जघान॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 15; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्युत्सूर्यपरमेश्वरविषयमाह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यथेन्द्रः सुतस्यास्य त्रिकद्रुकेष्वपिबन्मदेऽहिं जघान तदिदमस्य महतः सत्यस्य जगदीश्वरस्य सत्या महानि करणानि घाहं नु प्रवोचं तथा यूयमवोचत ॥१॥

    पदार्थः

    (प्र) प्रकृष्टतया (घ) एव। अत्र चि तुनुघेति दीर्घः (नु) सद्यः (अस्य) जगदीश्वरस्य (महतः) पूज्यस्य व्यापकस्य वा (महानि) महान्ति पूज्यानि (सत्या) सत्यान्यविनश्वराणि (सत्यस्य) नाशरहितस्य (करणानि) साधनानि कर्माणि वा (वोचम्) वच्मि (त्रिकद्रुकेषु) त्रिभिः कद्रुकैः विकलनैर्युक्तेषु कर्मषु (अपिबत्) पिबति (सुतस्य) सम्पादितस्य (अस्य) सोमाद्योषधिरसस्य (मदे) हर्षे (अहिम्) मेघम् (इन्द्रः) सूर्यः (जघान) हन्ति ॥१॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः यथा सूर्यः किरणैः सर्वस्य रसं स्वप्रकाशेनोन्नयति शोधयति वा तथौषधिरसं रोगनिवारकत्वेनाऽऽनन्दप्रदं सेवन्ते परमेश्वरस्य सत्यगुणकर्मस्वभावसाधनानुकूलानि कर्माणि कुर्वन्ति त एव सद्यः सुखमश्नुवते ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब दश चावाले पन्द्रहवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान्, सूर्य और परमेश्वर के विषय को कहते हैं।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे (इन्द्रः) सूर्य (सुतस्य) सम्पादित किये हुए (अस्य) सोमादि ओषधि के रस को (त्रिकद्रुकेषु) तीन प्रकार की विशेष गतियों से युक्त कर्मों में (अपिबत्) पीता है और (मदे) हर्ष के निमित्त (अहिम्) मेघ को (जघान) मारता है, इस कर्म को अथवा (अस्य) इस (महतः) पूज्य व व्यापक (सत्यस्य) नाशरहित जगदीश्वर के (सत्या) सत्य अविनाशी (महानि) प्रशंसनीय (करणानि) साधन वा कर्मों को (घ) ही मैं (नु) शीघ्र (प्रवोचम्) प्रकर्षता से कहता हूँ, वैसे तुम लोग भी कहो ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य जैसे सूर्य किरणों से सबके रस को अपने प्रकाश से उन्नत करता वा शोधता है, वैसे ओषधियों के रस को जो कि रोगनिवारण करने से आनन्द देनेवाला है, उसको सेवते वा परमेश्वर के सत्यगुण, कर्म, स्वभाव और साधनों के अनुकूल कर्मों को करते हैं, वे ही शीघ्र सुख को प्राप्त होते हैं ॥१॥

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    विषय

    महान् सत्य प्रभु

    पदार्थ

    १. (घा) = निश्चय से (नु) = अब (अस्य सत्यस्य) = इस सत्यस्वरूप (महतः) = महान् प्रभु के (महानि) = महान् (सत्या) = सत्य (करणानि) = कार्यों का (प्रवोचम्) = शंसन करता हूँ। प्रभु महान् हैं— सत्य हैं। उनके कार्य भी महान् व सत्य हैं। उनका बनाया हुआ यह ब्रह्माण्ड भी महान् व सत्य है। 'इन्द्रः सत्यः सम्राट् = वे प्रभु सत्य सम्राट् हैं । २. इस प्रकार प्रभु का स्तवन करता हुआ (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (त्रिकद्रुकेषु) = 'बाल्य, यौवन व स्थविर' तीनों प्रभु के आह्वान कालोंआराधना के समयों में (सुतस्य) = उत्पन्न हुए हुए सोम का (अपिबत्) = पान करता है। प्रभु के स्मरण द्वारा वासनाओं को अपने से दूर रखकर यह सोम का रक्षण कर पाता है। अस्य मदे इस सोम के शरीर में व्याप्त करने के द्वारा उत्पन्न उल्लास में यह जितेन्द्रिय पुरुष (अहिम्) = [आहन्ति] सब शक्तियों का संहार करनेवाली कामवासना को जघान नष्ट करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सदा प्रभुस्मरण करता हुआ व्यक्ति वासनाओं के आक्रमण से बचा रहता है और सोमरक्षण कर पाता है।

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    विषय

    सूर्यवत् तेजस्वी राजा का कार्य दुष्टदमन ।

    भावार्थ

    ( अस्य महान् ) उस महान् ( सत्यस्य ) सत्यस्वरूप परमेश्वर, न्यायशील राजा, और सूर्य के ( महानि सत्या करणानि ) बड़े २ सच्चे २ कार्यों और साधनों का ( प्रवोचम् घ ) अच्छी प्रकार वर्णन करता हूं। वह ( त्रिकद्रुकेषु ) परमेश्वर तीनों लोकों में अथवा सूर्य आदि और पृथिवी आदि लोकों और मनुष्य आदि प्राणियों में ( सुतस्य ) उत्पन्न जगत् सर्व प्रेरक बल और प्राणों की ( अपिबत् ) रक्षा करता है। सूर्य तीनों प्रकार की किरणों से जल को पान करता है। राजा तीनों प्रकार के राष्ट्र जन में ऐश्वर्य का या प्रत्येक उत्पन्न प्राणि की रक्षा करता और उसका उपभोग करता है। ( अस्य मदे ) इसके अति आनन्दमय स्वरूप में ( अहिम् ) प्रकृति के व्यापक सूक्ष्म रूप को ( इन्द्रः ) वह ऐश्वर्यवान् प्रभु ( जधान ) विनष्ट करता अर्थात् विकृत करता उसमें व्यापता है। राजा उस ऐश्वर्य के ( मदे ) दमन करने के लिये ( अहिम् ) हनन करने योग्य शत्रु या दुष्ट पुरुष का नाश करे । सूर्य जले के निमित्त मेघ का आघात करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १ भुरिक् पङ्क्तिः । ७ स्वराट् पङ्क्तिः । २, ४, ५, ६, १, १० त्रिष्टुप् । ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ विराट् त्रिष्टुप् । पञ्च दशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात विद्वान, सूर्य, परमेश्वर, राज्य व दातृकर्माचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य किरणांनी सर्व रसांना आपल्या प्रकाशाने संस्कारित करतो तसे जे रोगनिवारण करणाऱ्या व आनंद देणाऱ्या औषधाच्या रसाचे प्राशन करतात व परमेश्वराच्या सत्य, गुण, कर्म स्वभावानुसार साधनानुकूल कर्म करतात ते ताबडतोब सुख प्राप्त करतात. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I would set forth and sing in celebration of the great and true actions and achievements of this great and eternal lord Indra, ruler of the world, brilliant and blazing as the sun who drinks up the distilled essences of earth, heaven and the middle regions in three ways and radiates and matures exhilarating soma in three orders of nature, herbs of the earth, waters of the sky and light of the solar regions, and who, in the power and ecstasy of this soma process, strikes and breaks the dark cloud of showers for rain on the earth.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The themes of scholar sun and God are mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! the sun drinks the prepared juice of SOMA and herbal plants in three stages. To seek pleasure, he hits the clouds. I proclaim highly of the great and admirable acts of the respectable and eternal God. You should emulate it.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The sun throws its rays, extracts and dries up all sorts of juice, purifies and improves it (on ripening ). The juices of medicinal plants eradicate the sickness and thereafter make one happy. By taking such treatment if a person worships God with nice acts temperament and resources, he achieves happiness soon.

    Foot Notes

    (महत:) पूज्यस्य व्यापकस्य वा = Of the respectable or circumambient. (सत्या ) सत्यान्यविनश्वराणि = Eternal. ( त्रिकद्रकेष) त्रिभिः कद्रुकैः विकलनैयुक्तेषु कर्मसु = In actions comprising three-way movements. (जघान) हन्ति | = Kills.

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