ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 53/ मन्त्र 1
व॒यमु॑ त्वा पथस्पते॒ रथं॒ न वाज॑सातये। धि॒ये पू॑षन्नयुज्महि ॥१॥
स्वर सहित पद पाठव॒यम् । ऊँ॒ इति॑ । त्वा॒ । प॒थः॒ । प॒ते॒ । रथ॑म् । न । वाज॑ऽसातये । धि॒ये । पू॒ष॒न् । अ॒यु॒ज्म॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वयमु त्वा पथस्पते रथं न वाजसातये। धिये पूषन्नयुज्महि ॥१॥
स्वर रहित पद पाठवयम्। ऊँ इति। त्वा। पथः। पते। रथम्। न। वाजऽसातये। धिये। पूषन्। अयुज्महि ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 53; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मनुष्याः कस्मै कान् सेवेरन्नित्याह ॥
अन्वयः
हे पूषन् पथस्पते ! वयमु वाजसातये धिये त्वा रथं नाऽयुज्महि ॥१॥
पदार्थः
(वयम्) (उ) (त्वा) त्वाम् (पथः) मार्गस्य (पते) स्वामिन् (रथम्) विमानादियानम् (न) इव (वाजसातये) सङ्ग्रामविभाजिकायै (धिये) प्रज्ञायै (पूषन्) पुष्टिकर्त्तः (अयुज्महि) प्रयुञ्ज्महि ॥१॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये मनुष्याः प्रज्ञाप्राप्तये विदुषः सेवन्ते ते वेगवता रथेन स्थानान्तरमिव विद्यान्तरं सद्यः प्राप्नुवन्ति ॥१॥
हिन्दी (4)
विषय
अब दश ऋचावाले त्रेपनवें सूक्त का आरम्भ है, इसके प्रथम मन्त्र में मनुष्य किसके लिये किनका सेवन करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (पूषन्) पुष्टि करनेवाले (पथः) मार्ग के (पते) स्वामिन् ! (वयम्) हम लोग (उ) ही (वाजसातये) संग्राम का विभाग करनेवाली (धिये) प्रज्ञा के लिये (त्वा) आपको (रथम्) विमान आदि यान के (न) समान (अयुज्महि) प्रयुक्त करते हैं ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य उत्तम बुद्धि पाने के लिये विद्वानों की सेवा करते हैं, वे वेगवान् रथ से एक स्थान से दूसरे स्थान के समान एक विद्या से दूसरी विद्या को शीघ्र प्राप्त होते हैं ॥१॥
विषय
पथस्पति पूषा ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( वाज-सातये रथं न ) वेग से देशान्तर जाने के लिये वेग युक्त रथ को जोड़ते हैं उसी प्रकार हे ( पथस्पते ) मार्ग के स्वामिन् ! हे ( पूषन् ) सर्वपोषक प्रभो ! ( वाज-सातये धिये ) ज्ञान के देने वाली वाणी, बुद्धि और ऐश्वर्य के देने वाले कर्म के लिये ( रथं ) रमणीय, वा वेग से ले जाने वाले ( त्वा ) तुझ को ( वयम् उ ) हम ( अयुज्महि ) योगाभ्यास द्वारा, समाहित चित्त से ध्यान करें । इसी प्रकार हे राजन् ! तुझको ऐश्वर्य प्राप्तयर्थ रथवत् ही नियुक्त करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ पूषा देवता ॥ छन्दः १, ३, ४, ६, ७, १० गायत्री । २, ५, ९ निचृद्गायत्री । ८ निचृदनुष्टुप् ।। दशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
पोषक प्रभु
पदार्थ
[१] हे (पथस्पते) = मार्गों के स्वामिन् ! (पूषन्) = हमारा पोषण करनेवाले प्रभो! (वयम्) = हम (उ) = निश्चय से (त्वा) = आपको (अयुज्महि) = अपने साथ जोड़ते हैं। योग के द्वारा आपके साथ अपना सम्बन्ध स्थापित करते हैं। प्रभु के साथ मेल होने पर हम मार्गों से भटकते नहीं तथा अपना ठीक पोषण कर पाते हैं। [२] आप (रथं न) = रथ के समान हैं। रथ यात्रापूर्ति में साधन बनता है, प्रभु का आश्रय भी जीवनयात्रा को सफलता से पूर्ण कराता है। हम आपको (वाजसातये) = शक्ति की प्राप्ति के लिये तथा धिये बुद्धि के लिये अपने साथ युक्त करते हैं। आपका मेल हमें शक्ति व बुद्धि को देनेवाला होगा।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु सब मार्गों के स्वामी हैं, हमारा पोषण करनेवाले हैं। प्रभु के साथ सम्पर्क से हम शक्ति व बुद्धि को प्राप्त करते हैं ।
मन्त्रार्थ
(पथ:-पते पूषन्) हे मार्ग के स्वामी ! पूषा-सूर्य या पशुखाद्ययातायातमन्त्री ! (वाजसातये धिये) अन्न की सम्भक्ति'प्राप्ति के लिये तथा वैसी क्रिया के लिये "धी: कर्म नाम" (निघ० २।१) (वयं त्त्रा-उ) हम तुझे अवश्य (रथं न प्रयुज्महि) रथ के समान जीवन यात्रा में युक्त या उपयुक्त करते हैं ॥१॥ वक्तव्य- (नयं वसु) नरों-मनुष्यों के हितकर धन को, तथा (वीरम्) पुत्र को "पुत्रो वै वीरः” (शत० ३।३।१।१२) (प्रयतदक्षिणम्) प्रकृष्टरूप यत-शुद्ध या उदारभाववाली दक्षिणा जिसमें हो उस यज्ञ को (वामम्) जो कि वननीय श्रेष्ठ हो उसे (नः-गृहपतिम्-अभिनय) हमारे में से गृहस्वामी-प्रत्येक “पाप्मा वै वृत्रः" (शत० ११।१।५।७) 'आर्यः-अरेः' शत्रुवै पक्षीय दलों का तुमने हनन कर दिया (सुदासम्-अवसा-आवतम्) उत्तमदानकर्त्ता राजा की "सुदाः कल्याणदान:" (निरु० २।२५) अपने रक्षणसाधनों से रक्षा करो-करते रहो ॥१॥
विशेष
ऋषि:- भरद्वाजः (अन्नादि का धारणकर्त्ता व्यापारी कृषक) देवता- पूषा (आधिदैविक क्षेत्र) में सूर्य- 'अथ यद् रश्मिपोषं पुष्यति तत् पूषा भवति' (निरु० १२।१६) आधिभौतिक क्षेत्र में पशुखाद्ययातायातमन्त्री "पूषा वै पशूनामीष्टे” (शत० १३|३|८|२), "पूषा वै पथीनामधिपतिः” (शत० १३।४।१।४४)
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात राजमार्ग, दस्यूंचे निवारण, उत्तम दक्षिणा देणाऱ्यांना प्रेरणा, दुष्टांना मारणे, श्रेष्ठांचे पालन व पशूंची वृद्धी सांगितलेली आहे. त्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जी माणसे उत्तम बुद्धी प्राप्त करण्यासाठी विद्वानांची सेवा करतात. जसा वेगवान रथ एका स्थानाहून दुसऱ्या स्थानी जातो तशी एका विद्येने दुसरी विद्या ताबडतोब प्राप्त करतात. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Pusha, lord giver of food and energy and guide and director over all our paths of life, for the sake of vision and wisdom and to reach the goal in our mission of life we take to you as one rides a chariot piloted by an all-wise driver.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Who should men serve and for what purpose is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O nourisher, lord of the path ! we yoke (appoint) you for the intellect that divides different functions regarding warfare like the vehicle in the form of aircraft etc.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those men who serve the enlightened persons, for the attainment of good intellect, acquire the knowledge of various science one by one, as they go to distant places with speedy vehicles.
Foot Notes
(वाजसातये) सङ्ग्रामविभाजिकार्य वाज इति बलनाम (NG 2, 9) वाजसातौ इति संग्रामनाम (NG 2, 17 ) अत्र वाज शब्दोऽपि बलसाध्य-सङ्ग्रामार्थे गृहीतः । षण संभक्तौ (भ्वा०) | = For the intellect that divides different functions regarding warfare. By पथस्वते । or Lord of the path is meant here-a minister in-charge of the construction of Roadways.
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