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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 102 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 102/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वसिष्ठः कुमारो वाग्नेयः देवता - पर्जन्यः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    तस्मा॒ इदा॒स्ये॑ ह॒विर्जु॒होता॒ मधु॑मत्तमम् । इळां॑ नः सं॒यतं॑ करत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तस्मै॑ । इत् । आ॒स्ये॑ । ह॒विः । जु॒होत॑ । मधु॑मत्ऽतमम् । इळा॑म् । नः॒ । स॒म्ऽयत॑म् । क॒र॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्मा इदास्ये हविर्जुहोता मधुमत्तमम् । इळां नः संयतं करत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तस्मै । इत् । आस्ये । हविः । जुहोत । मधुमत्ऽतमम् । इळाम् । नः । सम्ऽयतम् । करत् ॥ ७.१०२.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 102; मन्त्र » 3
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (आस्ये) तस्मिन् सर्वातिरिक्ते परमात्मनि (मधुमत्तमम्) नितान्ततृप्तिकारकं (हविः) हव्यं (जुहोत) जुहुत तथा च (तस्मै, इत्) तमेव प्रार्थयध्वं यतः सः (नः) अस्मभ्यं (इळां संयतम्) सकलमैश्वर्यं (करत्) ददातु ॥३॥इति द्व्युत्तरशततमं सूक्तं द्वितीयो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (आस्ये) उस सर्वोपरि मुख्य परमात्मा में (मधुमत्तमं) अतिशय आह्लाद करनेवाले (हविः) हवि को (जुहोत) हवन करो और (तस्मै, इत्) उसी के लिये ही प्रार्थना करो कि वह (नः) हमको (इळां, संयतं) परिपूर्ण ऐश्वर्य (करत्) दे ॥३॥

    भावार्थ

    एकमात्र वही परमात्मा ऐश्वर्यों के लिये प्रार्थनीय है, अन्य नहीं ॥३॥यह १०२वाँ सूक्त और दूसरा वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    अग्निहोत्र यज्ञ से प्रभु की प्रार्थना और मेघोत्पत्ति।

    भावार्थ

    जो परमेश्वर ( नः ) हमारे ( आस्ये ) मुख में ( इडा ) वाणी को ( संयतं ) अच्छी प्रकार सुनियन्त्रित ( करत् ) करता है ( तस्मै इत् ) उसी प्रभु परमेश्वर के गुणगान करने के लिये ( आस्ये ) अपने मुख में ( मधुमत्-तमम् ) अत्यन्त मधुर गुण से युक्त ( हविः ) वचन का ( जुहोत ) धारण करो और अन्यों को प्रदान करो। इसी प्रकार जो प्रभु मेघ के समान ( नः इडां संयतं करत् ) हमें नियम से अन्न देता है उसी के लिये मधुर अन्नादि की (आस्ये) छिन्न भिन्न करके दूर २ तक फैला देने वाले अग्नि में ( हविः) मधुर अन्नादि चरु प्रदान करो। उसी प्रभु के लिये अपने मुख में भी मधुर अन्न का ही ग्रहण करो। मलिन पदार्थ मांसादि का नहीं । इति द्वितीयो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठः कुमारो वाग्नेय ऋषिः॥ पर्जन्यो देवता॥ छन्दः—१ याजुषी विराट् त्रिष्टुप्। २, ३ निचृत् त्रिष्टुप्॥ द्वयृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    यज्ञ

    पदार्थ

    पदार्थ - जो परमेश्वर वा गुरु (नः) = हमारे (आस्ये) = मुख में (इडाम्) = वाणी को (संयतं) = सुनियन्त्रित (करत्) = करता है (तस्मै इत्) = उसी के गुणगान के लिये (आस्ये) = मुख में (मधुमत्-तमम्) = अत्यन्त मधुर गुण युक्त (हविः) = वचन (जुहोत) = धारण करो। ऐसे ही जो प्रभु मेघ तुल्य (नः इडां संयतं करत्) = हमें नियम से अन्न देता है उसके लिये मधुर हवि को (आस्ये) = छिन्न-भिन्न करके दूर तक फैला देनेवाले अग्नि में (हविः) = मधुर अन्नादि चरु प्रदान करो।

    भावार्थ

    भावार्थ- मनुष्य लोग परमेश्वर द्वारा प्रदान की गई वाणी से उसकी ही महिमा का गान= स्तुति करे और उसके द्वारा प्रदत्त अन्न - औषध आदि को अग्नि में आहुति देकर यज्ञ किया करें। इससे जीवन में सुख-शान्ति की वृद्धि होगी। आगामी सूक्त का ऋषि वसिष्ठ व देवता मण्डूका है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    To him, the omnipotent omnificent Parjanya, life bearing cloud, offer the sweetest oblations into the fiery mouth of the yajna vedi with selfless surrender of love and non-violence so that he may keep and help us keep the unity and integrity of the earth and environment well in order and maintain the integrity and harmony of humanity and culture in a state of creativity and progressive continuity of a familial order.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    तोच एक परमात्मा ऐश्वर्यासाठी प्रार्थनीय आहे. अन्य कोणी नाही. ॥३॥

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