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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 76 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 76/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कविः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ध॒र्ता दि॒वः प॑वते॒ कृत्व्यो॒ रसो॒ दक्षो॑ दे॒वाना॑मनु॒माद्यो॒ नृभि॑: । हरि॑: सृजा॒नो अत्यो॒ न सत्व॑भि॒र्वृथा॒ पाजां॑सि कृणुते न॒दीष्वा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ध॒र्ता । दि॒वः । प॒व॒ते॒ । कृत्व्यः॑ । रसः॑ । दक्षः॑ । दे॒वाना॑म् । अ॒नु॒ऽमाद्यः॑ । नृऽभिः॑ । हरिः॑ । सृ॒जा॒नः । अत्यः॑ । न । सत्व॑ऽभिः । वृथा॑ । पाजां॑सि । कृ॒णु॒ते॒ । न॒दीषु॑ । आ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धर्ता दिवः पवते कृत्व्यो रसो दक्षो देवानामनुमाद्यो नृभि: । हरि: सृजानो अत्यो न सत्वभिर्वृथा पाजांसि कृणुते नदीष्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    धर्ता । दिवः । पवते । कृत्व्यः । रसः । दक्षः । देवानाम् । अनुऽमाद्यः । नृऽभिः । हरिः । सृजानः । अत्यः । न । सत्वऽभिः । वृथा । पाजांसि । कृणुते । नदीषु । आ ॥ ९.७६.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 76; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ द्युभ्वादीनामाधारत्वं वर्ण्यते।

    पदार्थः

    (दिवः) द्युलोकस्य (धर्ता) धारको जगदीश्वरः (पवते) मां पवित्रयतु। (नृभिः) सर्वैरपि जनैः (कृत्व्यः) उपासनीयः। अथ च परमेश्वरः (रसः) आनन्दस्वरूपस्तथा (दक्षः) सर्वज्ञः (देवानामनुमाद्यः) विदुषामाह्लादकः (हरिः) पापहारकः परमात्मा (सृजानः) सर्वं सृजन् (अत्यो न) विद्युदिव (वृथा) अनायासेनैव (सत्त्वभिः) प्राणिभिः (पाजांसि) बलानि (कृणुते) करोति। अथ च पूर्वोक्तः परमेश्वरः (नदीषु) प्रकृतेः सर्वासु शक्तिषु (आ) व्याप्नोति। उपसर्गश्रुतेर्योग्यक्रियाध्याहारः ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब परमात्मा का सर्वाधाररूप से वर्णन करते हैं।

    पदार्थ

    (दिवः) द्युलोक का (धर्ता) धारणकर्ता परमात्मा (पवते) हमको पवित्र करे (नृभिः) सब मनुष्यों का (कृत्व्यः) जो उपास्य है तथा (रसः) आनन्दस्वरूप है और (दक्षः) सर्वज्ञ है। (देवानामनुमाद्यः) और विद्वानों का आह्लादक है। (हरिः) उक्त गुणयुक्त परमात्मा (सृजानः) सम्पूर्ण सृष्टि की रचना करता हुआ (अत्यो न) विद्युत् के समान (वृथा) अनायास से ही (सत्त्वभिः) प्राणियों द्वारा (पाजांसि) बलों को (कृणुते) करता है और उक्त परमात्मा (नदीषु) प्रकृति की सम्पूर्ण शक्तियों में (आ) व्याप्त है ॥१॥

    भावार्थ

    प्रत्येक प्राकृत पदार्थ में परमात्मा की सत्ता विद्यमान है और वही द्युलोकादि का अधिकरण है ॥१॥

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    विषय

    सोम पवमान। सर्वोत्पादक प्रभु का वर्णन।

    भावार्थ

    (धर्त्ता दिवः) तेज को वा सूर्य को धारण करने वाला (कृत्व्यः) समस्त कर्मों को करने हारा, (रसः) बल स्वरूप, (दक्षः) दुष्टों को दग्ध करने वाला, संतापकारी, (नृभिः अनुमाद्यः) सब मनुष्यों से प्रसन्न होने और स्तुति करने योग्य वह (हरिः) सब दुःखों का हरण करने वाला (अत्यः न) अश्व वा निरन्तर गति करने वाले आत्मा के तुल्य (नदीषु) रुधिर की नाड़ियों में प्राणों के तुल्य, (नदीषु) नदीवत् प्रवाह से अनादि और समस्त विभूति-समृद्धियों में वा प्रकृति-विकृतियों में (वृथा) अनायास ही (पाजांसि आ कृणुते) नाना प्रकार के बलों को प्रकट करता है। वही सर्वोत्पादक प्रभु सोम है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कविर्ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १ त्रिष्टुप्। २ विराड् जगती। ३, ५ निचृज्जगती। ४ पादनिचृज्जगती॥

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    विषय

    वृथापाजांसि कृणुते

    पदार्थ

    [१] (हरिः) = सब बुराइयों का हरण करनेवाला सोम (दिवः धर्ता) = ज्ञान का धारण करनेवाला होता हुआ (पवते) = प्राप्त होता है। यह सोम (कृत्व्यः रसः) = वह रस है जो कि हमें कर्त्तव्यपालन में समर्थ करता है। (देवानां दक्षः) = देवों को यह दक्ष बनाता है, कार्यकुशल बनाता है । (नृभिः अनुमाद्यः) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले लोगों से रक्षण के अनुपात में अनुमाद्य होता है । जितना- जितना वे इसका रक्षण करते हैं, उतना उतना हर्ष का अनुभव करते हैं । [२] (सत्वभिः) = बलों के हेतु से (सृजान:) = उत्पन्न किया जाता हुआ यह सोम (अत्यः न) = सततगामी अश्व के समान है । जैसे अश्व निरन्तर गतिवाला होता है, ऐसे ही यह सोमरक्षक पुरुष निरन्तर गतिशील होता है । यह सोम (वृधा) = अनायास ही नदीषु स्तवन करनेवाले पुरुषों में (पाजांसि कृणुते) = बलों को करता है। प्रभु स्तोताओं को यह सोम बल सम्पन्न बनाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम ज्ञान का धारण करता है, हमें कर्त्तव्यपालन में समर्थ करता हुआ यह दक्षता को प्राप्त कराता है। हमें शक्तिशाली बनाता है ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Soma, joyous spirit of the universe, sustainer of the regions of light, constant doer, eternal delight and bliss of divinities, perfect omnipotent power, sole worthy of worship by humanity vibrates omnipresent, purifies and sanctifies the life of existence. Destroyer of want and suffering, ever creative, with its own powers spontaneously, like energy itself creates movement and growth in the channels of existence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रत्येक प्राकृत पदार्थात परमात्म्याची सत्ता विराजमान आहे व तोच द्युलोक इत्यादीचा प्रमुख आहे. ॥१॥

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