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सामवेद के मन्त्र
वेद शब्द 'विद सत्तायाम्' (दिवादि), 'विद ज्ञाने' (अदादि), "विद्लृ लाभे' (तुदादि), 'विद विचारणे' (रुधादि) तथा 'विद चेतनाख्याननिवासेषु' (चुरादि) धातुओं से करण और अधिकरण कारक में घञ् प्रत्यय करने पर सिद्ध होता है। जिसमें विविध ज्ञान-विज्ञानों की सत्ता है (विद सत्तायाम्), जिससे या जिसमें विविध विद्याएँ जानी जाती हैं (विद ज्ञाने), जिससे या जिसमें विविध विद्याओं को पाते हैं (विद्लृ लाभे), जिससे या जिसमें विविध विद्याओं का विचार किया जाता है (विद विचारणे), जिससे गुरु द्वारा शिष्यों को चेताया जाता है, जिससे या जिसमें विविध विषयों का आख्यान किया जाता है, जिसमें विविध विद्याएँ निवास करती हैं अथवा जिससे शिष्यों के हृदय में अध्यात्म, अधिदैवत, अधिभूत आदि विद्याओं का निवास कराया जाता है (विद चेतनाख्याननिवासेषु) उसका नाम वेद है।
'साम' को अथर्ववेद में 'सा' और 'अम' के योग से निष्पन्न किया गया है। वहाँ चतुर्दश काण्ड के विवाह-सूक्त में वर वधू से कहता है कि तू 'सा' है, मैं 'अम' हूँ, इस प्रकार हमारा युगल 'साम' है। यहाँ 'सा' से वाणी और 'अम' से प्राणबल अभिप्रेत है। जैसे वाणी और प्राण के मिलन से साम-संगीत की उत्पत्ति होती है. वैसे ही वधू-वर के मिलने से गृहस्थ-संगीत उत्पन्न होता है। शतपथ ब्राह्मण, काठक संहिता तथा जैमिनीय-उपनिषद्-ब्राह्मण' में भी 'सा' और 'अम' के योग से 'साम' की निष्पत्ति मानी गयी है। सामविधान ब्राह्मण में 'सम' से 'साम' निष्पन्न हुआ बताया गया है। वहाँ कहा गया है कि ऋग्वेद के छन्द और सामवेद के छन्द समान हैं, सम छन्दवाला होने के कारण ही सामवेद का नाम 'साम' पड़ा है। यास्कीय निरुक्त में 'साम' शब्द की तीन प्रकार से निष्पत्ति दर्शायी गयी है। प्रथम, सम् उपसर्ग-पूर्वक मानार्थक माङ् धातु से। ऋचा से समान परिमाणवाला होने से 'साम' कहलाता है, अर्थात् ऋचाएँ जैसे छन्दोबद्ध होती हैं वैसे ही 'साम' भी होता है (सम्मा साम)। द्वितीय प्रकार में 'साम' को 'षो अन्तकर्मणि' धातु से व्युत्पन्न किया गया है। सामयोनिमन्त्र को या सामगान को 'साम' इस कारण कहते हैं क्योंकि यह मानसिक अशान्ति. दु:ख आदि का अन्त कर देता है। तृतीय पक्ष नैदानों के नाम से दिया गया है, जिसके अनुसार 'सम'-पूर्वक 'मन ज्ञाने' (दिवादि) या 'मनु अवबोधने' (स्वादि) धातु से 'साम' शब्द बनता है। ऋचा के समान माना जाने के कारण सामयोनिमन्त्र 'साम' कहलाता है।
उणादि कोष में 'साम' की सिद्धि में निरुक्तवर्णित द्वितीय प्रकार को ही ग्रहण किया है। वहाँ 'षो' अन्तकर्मणि' धातु से मनिन् प्रत्यय करके 'सामन्' शब्द निष्पन्न किया गया है। उसी के नपुंसकलिंग, प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'साम' रूप बनता है। पाप-ताप का अन्त इसके अर्थज्ञानपूर्वक पाठ या गान से होता है, अत: इसे 'साम' कहते हैं। एक अन्य धातु 'साम सान्त्वप्रयोगे' (चुरादि) है, इस धातु से अन् प्रत्यय करने पर भी 'सामन्' की सिद्धि हो सकती है। तदनुसार इसे 'सामन्' इस कारण कहते हैं, यतः इससे शान्ति प्राप्त होती है। उणादि सूत्रों के एक वृत्तिकार श्वेतवनवासी 'षो' धातु को गानार्थक मानकर 'साम' का यह अर्थ करते हैं कि जो गाया जाए वह साम है।
परमात्मा ने सामवेद का ज्ञान सृष्टि के आदि में आदित्यऋषि जी के अंतःकरण में दिया।
प्रधान विषय के आधार पर सामवेद का विषय उपासनाकाण्ड माना जाता है।
इस वेद में मन्त्र संख्या 1875 है। सामान्य रूप से मन्त्र संख्या से ही मन्त्र संदर्भ का प्रयोग किया जाता है। परन्तु निम्न दो शाखाओं के आधार पर भी मन्त्र सन्दर्भ का प्रयोग किया जाता है।
१. कौथुम शाखा
पूर्वार्चिकः / प्रपाठक/ अर्ध प्रपाठक/ दशति / मन्त्र : 640
महानाम्न्यार्चिकः – मन्त्र : 10
उत्तरार्चिकः / प्रपाठक/ अर्ध प्रपाठक/ सूक्त / मन्त्र : 1225
२. रानायणीय शाखा
पूर्वार्चिकः / अध्याय / खण्ड / मन्त्र : 640
महानाम्न्यार्चिकः – मन्त्र : 10
उत्तरार्चिकः / अध्याय / खण्ड / सूक्त / मन्त्र : 1225