यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 1
ऋषिः - गोतम ऋषिः
देवता - विष्णुर्देवता
छन्दः - स्वराट् ब्राह्मी बृहती
स्वरः - मध्यमः
1
अ॒ग्नेस्त॒नूर॑सि॒ विष्ण॑वे त्वा॒ सोम॑स्य त॒नूर॑सि॒ विष्ण॑वे॒ त्वा॒ऽति॑थेराति॒थ्यम॑सि॒ विष्ण॑वे त्वा श्ये॒नाय॑ त्वा सोम॒भृते॒ विष्ण॑वे त्वा॒ऽग्नये॑ त्वा रायस्पोष॒दे विष्ण॑वे त्वा॥१॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नेः। त॒नूः। अ॒सि॒। विष्ण॑वे ॥ त्वा॒ सोम॑स्य। त॒नूः अ॒सि॒। विष्ण॑वे। त्वा॒। अति॑थेः। आ॒ति॒थ्यम्। अ॒सि॒। विष्ण॑वे। त्वा॒। श्येनाय॑। त्वा॒। सो॒म॒भृत॒ इति॑ सोम॒ऽभृते॑। विष्ण॑वे। त्वा॒। अ॒ग्नये॑। त्वा॒। रा॒य॒स्पो॒ष॒द इति॑ रायस्पोष॒ऽदे। विष्ण॑वे। त्वा॒ ॥१॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्नेस्तनूरसि विष्णवे त्वा सोमस्य तनूरसि विष्णवे त्वातिथेरातिथ्यमसि विष्णवे श्येनाय त्वा सोमभृते विष्णवे त्वाग्नये त्वा रायस्पोषदे विष्णवे त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्नेः। तनूः। असि। विष्णवे॥ त्वा सोमस्य। तनूः असि। विष्णवे। त्वा। अतिथेः। आतिथ्यम्। असि। विष्णवे। त्वा। श्येनाय। त्वा। सोमभृत इति सोमऽभृते। विष्णवे। त्वा। अग्नये। त्वा। रायस्पोषद इति रायस्पोषऽदे। विष्णवे। त्वा॥१॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ किमर्थो यज्ञोऽनुष्ठातव्य इत्यपदिश्यते॥
अन्वयः
हे मनुष्या! यथाऽहं यद्धविरग्नेस्तनूरसि भवति त्वा तद्विष्णवे स्वीकरोमि। या सोमस्य सामग्र्यसि भवति, त्वा तां विष्णव उपयुञ्जामि। यदतिथेरातिथ्यमसि वर्त्तते त्वा तद्विष्णवे परिगृह्णामि, यछ्येनवच्छीघ्रगमनाय प्रवर्त्तते त्वा तदग्न्यादिषु प्रक्षिपामि। यत्कर्म विष्णवे सोमभृते वर्त्तते त्वा तदाददे, यदग्नये वरीवृत्यते त्वा तत्स्वीकरोमि। यद् रायस्पोषदे विष्णवे समर्थकमस्ति त्वा तत् संगृह्णामि, तथैवैतत् सर्वं यूयमपि सेवध्वम्॥१॥
पदार्थः
(अग्नेः) विद्युत्प्रसिद्धरूपस्य (तनूः) शरीरवत् (असि) भवति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः। (विष्णवे) यज्ञानुष्ठानाय (त्वा) तद्धविः। (सोमस्य) जगत्युत्पन्नस्य पदार्थसमूहस्य रसस्य वा (तनूः) विस्तारकम् (असि) भवति (विष्णवे) व्यापनशीलस्य वायोश्च शुद्धये (त्वा) तां सामग्रीम् (अतिथेः) अविद्यामानतिथेर्विदुषः (आतिथ्यम्) यदतिथेर्भावः सत्काराख्यं कर्म वा (असि) वर्त्तते तत् (विष्णवे) व्याप्तिशीलाय विज्ञानप्राप्तिलक्षणाय वा यज्ञाय (त्वा) तद्यज्ञसाधनम् (श्येनाय) श्येनवदितस्ततः सद्यो गमनाय (त्वा) तद्धवनं कर्म (सोमभृते) यः सोमान् बिभर्त्ति तस्मै यजमानाय (विष्णवे) सर्वविद्याकर्मव्यापनस्वभावाय (त्वा) तदुत्तमं सुखम् (अग्नये) पावकवर्द्धनाय (त्वा) तदिन्धनादिकं वस्तु (रायस्पोषदे) यो रायो विद्या धनसमूहस्य पोषं पुष्टिं ददाति तस्मै (विष्णवे) सर्वसद्गुणविद्याकर्मव्याप्तये (त्वा) तामेतां क्रियाम्। अयं मन्त्रः (शत॰३। ४। १। ९-१४) व्याख्यातः॥१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैरेतत्फलप्राप्तये त्रिविधो यज्ञो नित्यमनुष्ठेय इति॥१॥
विषयः
अथ किमर्थो यज्ञोऽनुष्ठातव्य इत्युपदिश्यते ।।
सपदार्थान्वयः
हे मनुष्या ! यथाऽहं यद्धविरग्नेः विद्युत्प्रसिद्धरूपस्य तनूः शरीरवदुअसि=भवति त्वा तद् तद्धविः विष्णवे यज्ञानुष्ठानाय स्वीकरोमि। या सोमस्य जगत्युत्पन्नस्य पदार्थसमूहस्य रसस्य वा [तनूः] विस्तारकं, सामग्र्यसि=भवति त्वा=तां तां सामग्री विष्णवे व्यापनशीलस्य वायोश्च शुद्धये उपयुञ्जामि। यदतिथेः अविद्यमानतिथेर्विदुषः आतिथ्यं यदतिथेर्भावः सत्काराख्यं कर्म वा असि=वर्त्तते त्वा=तद् तद् यज्ञसाधनं विष्णवे व्याप्तिशीलाय=विज्ञानप्राप्तिलक्षणाय वा यज्ञाय परिगृह्णामि। यत् [श्येनाय]=श्येनवच्छीघ्रगमनाय श्येनवदितस्ततः सद्यो गमनाय प्रवर्त्तते त्वा=तद् (तद्धवनं कर्म) अग्न्यादिषु प्रक्षियामि। यत्कर्म विष्णवे सर्वविद्याकर्मव्यापनस्वभावाय, सोमभृते यः सोमान् बिभर्ति तस्मै यजमानाय वर्त्तते त्वा=तद् उत्तमं सुखम् आददे। यदग्नये पावकवर्द्धनायवरीवृत्यते त्वा=तद् तदिन्धनादिकं वस्तु स्वीकरोमि। यद् रायस्पोषदे यो रायो विद्याधनसमूहस्य पोषम्=पुष्टिं ददाति तस्मै विष्णवे सर्वसद्गुणविद्याकर्म व्याप्तये समर्थकर्मास्ति त्वा=तत् तामेतां क्रियां संगृह्णामितथैवैतत्सर्वं यूयमपि सेवध्वम् । ५।१॥ [यद्धविरग्नेरत्तनूरसि=भवति त्वा=तद् विष्णवे, [श्येना]=श्येनवच्छीघ्रगमनाय, विष्णवे सोमभृते, अग्नये,रायस्पोषदे विष्णवे........त्वा=तत् संगृह्णामि]
पदार्थः
(अग्नेः) विद्युत्प्रसिद्धरूपस्य (तनूः) शरीरवत् (असि) भवति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (विष्णवे) यज्ञानुष्ठानाय (त्वा) तद्धविः (सोमस्य) जगत्युत्पन्नस्य पदार्थसमूहस्य रसस्य वा (तनूः) विस्तारकम् (असि) भवति (विष्णवे) व्यापनशीलस्य वायोश्च शुद्धये (त्वा) तां सामग्रीम् (अतिथेः) अविद्यमानतिथेर्विदुषः (आतिथ्यम्) यदतिथेर्भावः सत्काराख्यं कर्म वा (असि) वर्त्तते तत् (विष्णवे) व्याप्तिशीलाय विज्ञानप्राप्तिलक्षणाय वा यज्ञाय (त्वा) तद्यज्ञसाधनम् (श्येनाय) श्येनवदितस्ततः सद्यो गमनाय (त्वा) तद्धवनं कर्म (सोमभृते) यः सोमान् बिभर्त्ति तस्मै यजमानाय (विष्णवे) सर्वविद्याकर्मव्यापनस्वभावाय (त्वा) तदुत्तमं सुखम् (अग्नये) पावकवर्द्धनाय (त्वा) तदिन्धनादिकं वस्तु (रायस्पोषदे) यो रायो=विद्याधनसमूहस्य पोषं=पुष्टिं ददाति तस्मै (विष्णवे) सर्वसद्गुणविद्याकर्मव्याप्तये (त्वा) तामेतां क्रियाम् ॥ अयं मंत्रः शत० ३। ४। १। ९-१४ व्याख्यातः ।। १।।
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः॥ मनुष्यैरेतत्फलप्राप्तये त्रिविधो यज्ञो नित्यमनुष्ठेय इति ।। ५ । १ ।।
विशेषः
गोतमः। विष्णुः=यज्ञः। स्वराड्ब्राह्मी बृहती। मध्यमः।।
हिन्दी (4)
विषय
किस-किस प्रयोजन के लिये यज्ञ का अनुष्ठान करना योग्य है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! तुम लोग जैसे मैं जो हवि (अग्नेः) बिजुली प्रसिद्ध रूप अग्नि के (तनूः) शरीर के समान (असि) है (त्वा) उसको (विष्णवे) यज्ञ की सिद्धि के लिये स्वीकार करता हूं जो (सोमस्य) जगत् में उत्पन्न हुए पदार्थ-समूह की (तनूः) विस्तारपूर्वक सामग्री (असि) है (त्वा) उसको (विष्णवे) वायु की शुद्धि के लिये उपयोग करता हूं जो (अतिथेः) संन्यासी आदि का (आतिथ्यम्) अतिथिपन वा उनकी सेवारूप कर्म (असि) है (त्वा) उसको (विष्णवे) विज्ञान यज्ञ की प्राप्ति के लिये ग्रहण करता हूं, जो (श्येनाय) श्येनपक्षी के समान शीघ्र जाने के लिये (असि) है (त्वा) उस द्रव्य को अग्नि आदि में छोæड़ता हूं, जो (विष्णवे) सब विद्या कर्मयुक्त (सोमभृते) सोमों को धारण करने वाले यजमान के लिय सुख (असि) है (त्वा) उसको ग्रहण करता हूं। जो (अग्नये) अग्नि बढ़ाने के लिये काष्ठ आदि हैं (त्वा) उसको स्वीकार करता हूं। जो (रायस्पोषदे) धन की पुष्टि देने वा (विष्णवे) उत्तम गुण, कर्म, विद्या की व्याप्ति के लिये समर्थ पदार्थ है (त्वा) उसको ग्रहण करता हूं, वैसे इन सब का सेवन तुम भी किया करो॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को उचित है कि पूर्वोक्त फल की प्राप्ति के लिये तीन प्रकार के यज्ञ का अनुष्ठान नित्य करें॥१॥
विषय
गोतम का समर्पण
पदार्थ
‘गोतम’ चतुर्थ अध्याय के अन्तिम मन्त्र का ऋषि था। प्रस्तुत अध्याय के प्रारम्भिक १४ मन्त्रों का ऋषि भी यही है। यह प्रभु से कहता है कि १. हे प्रभो! आप ( अग्नेः ) = अग्नि के ( तनूः ) = विस्तार करनेवाले ( असि ) = हैं। मेरे जीवन में ( अग्नि ) = उत्साह का सञ्चार करनेवाले आप ही हैं। इसीलिए ( त्वा विष्णवे ) = तुझ व्यापक प्रभु के लिए मैं अपने को अर्पित करता हूँ। २. ( सोमस्य तनूः असि ) = मुझमें सोमशक्ति का विस्तार करनेवाले आप हैं, अतः ( विष्णवे त्वा ) = तुझ व्यापक प्रभु के लिए मैं अपने को अर्पित करता हूँ।
३. ( अतिथेः ) = आपकी ओर निरन्तर चलनेवाले उपासक के ( आतिथ्यम् असि ) = आप शरीरबद्ध आतिथ्य हैं। आप स्वयं ही उसे प्राप्त हो जाते हैं, अतः ( त्वा विष्णवे ) = तुझ व्यापक प्रभु के लिए मैं अपने को अर्पित करता हूँ।
४. ( श्येनाय त्वा ) = तुझ [ श्यैङ् गतौ ] गतिवाले के लिए, ( त्वा सोमभृते ) = निरन्तर गतिशीलता के द्वारा सोम का भरण करनेवाले तेरे लिए और ( त्वा विष्णवे ) = तुझ व्यापक प्रभु के लिए मैं अपने को अर्पित करता हूँ।
५. ( अग्नये त्वा ) = [ अङ्गिा गतौ ] सबको अग्रगति देनेवाले और इस अग्रगति के साधनरूप में ही ( रायस्पोषदे ) = धन का पोषण प्राप्त करानेवाले ( त्वा विष्णवे ) = तुझ व्यापक परमात्मा के लिए मैं अपने को अर्पित करता हूँ।
६. ऊपर मन्त्रार्थ में यह बात स्पष्ट है कि हृदय में भी व्याप्त उस प्रभु के प्रति आत्मार्पण करने से ही हमारा जीवन [ क ] ( अग्नितत्त्वप्रधान ) = उत्साहमय [ ख ] ( सोम ) = वीर्यशक्ति का विस्तार करनेवाला [ ग ] प्रभु के प्रति निरन्तर चलनेवाला [ घ ] गतिशील [ ङ ] शक्तिमय और अन्त में सांसारिक उन्नति के लिए आवश्यक धन को प्राप्त करनेवाला होगा।
भावार्थ
भावार्थ — प्रभुकृपा से हम उत्साहमय, शक्तिशाली, प्रभुप्रवण, कर्मनिष्ठ व श्रीसम्पन्न हों।
विषय
योग्य पुरुष की उत्तम पद पर नियुक्ति और अन्न का उत्तम उपयोग ।
भावार्थ
हे अन्न या हे योग्य पुरुष ! तू ( अग्नेः तन् : असि ) अग्नि का स्वरूप है । ( विष्णवे त्वा ) तुझको राज्य शासन रूप यज्ञ या व्यापक राज्यव्यवस्था के कार्य के लिये प्रदान करता हूं । हे जल, तू ( सोमस्य तनूः असि ) सोम का शरीर है । (त्वा विष्णवे ) तुझको मैं व्यापक, प्रजा- पालक के लिये प्रदान करता हूं । हे जल ! तू ( अतिथे: ) अतिथि के लिये ( आतिथ्यम् असि ) आतिथ्य है । अर्थात् अतिथि के समान पूजनीय राजा के निमित्त है । (त्वा) तुझे ( विष्णवे ) विष्णु, व्यापक राज्य शासन के लिये ( श्येनाय त्वा ) श्येन=बाज के समान शत्रु पर आक्रमण करने वाले ( सोमभृते ) सोम - राष्ट्र को पालन पोषण करने वाले के लिये ( त्वा ) तुझे नियुक्त करता हूं । ( विष्णुवे त्वा ) व्यापक या प्रजा के भीतर पूज्य- रूप से रहने वाले ( अग्नये ) अप्नि के समान ज्ञानप्रकाशक या शत्रुतापक और (रायः पोषदे ) धन की समृद्धि और पुष्टि प्रदान करने वाले ( विष्णवे त्वा ) विष्णु, समस्त कार्यों में मुख्य रूप से वर्तमान पुरुष के लिये (त्वा ) तुझे नियुक्त करता हूं ॥
भौतिक पक्ष मे- हे हवि ! तू अग्नि विद्युत् का दूसरा स्वरूप है1 ( विष्णवे त्वा) तुझे यज्ञ - पदार्थों के संश्लेषण विश्लेषण के लिये प्रयुक्त करूं । तू सोम, जगत् के उत्पन्न पदार्थ या रस का विस्तारक है। तुझे ( विष्णवे ) व्यापक वायु के लिये प्रयुक्त करूं । और हे हविः ! अन्न त् ( अतिथेः आतिथ्यम् असि) बिना तिथि के आये विद्वान् अतिथि के आतिथ्य सत्कार करने के योग्य है और व्याप्तिशील, विज्ञान प्राप्ति के लिये तुझे प्रयोग करता हूं । ( श्येनाय त्वा) श्येन के समान शीघ्र जाने के लिये, ( सोमभृते विष्णवे त्वा ) सोम, ज्ञान या प्रेरणसामर्थ्य या राजा के अपने कर्म पालन पोषण करने वाले या राष्ट्रपोषक, सर्वकर्मकुशल, सर्व विद्या के पारंगत पुरुष के लिये तुझे प्रयुक्त करूं । ( अग्नये ) अग्नि को वृद्धि के लिये तुझको प्रयुक्त करूं 1 ( रायस्पोषदे विष्णवे त्वा ) विद्या, धन, ऐश्वर्य की पुष्टि, समृद्धि प्राप्त कराने वाले ( विष्णवे त्वा ) सद्गुण विद्या आदि की प्राप्ति के लिये भी तेरा प्रयोग करूं ॥ शत० ॥
अर्थात् यज्ञ, विद्वान्, अतिथि, शूरवीर, शत्रुविजयी पुरुष, राष्ट्र- पालक धनैश्वर्य का प्रदाता ये सब 'विष्णु' हैं और उनके लिये राष्ट्र को भिन्न २ प्रकार के भोग्य, आदर योग्य पदार्थ प्रदान करें । उनको उचित योग्य पुरुष सहायक दिये जायें और उन कार्यों के लिये उत्तम योग्य पुरुष नियुक्त करें। इस प्रकार ५ प्रकार के विष्णु हैं । १ अग्नि विष्णु, २ सोम विष्णु, ३ अतिथि विष्णु, ४ श्येन विष्णु, ५ रायस्पोषद अग्नि विष्णु । इन के लिये ५ प्रकार की विशेष हवि या अन्नादि सामग्री प्रस्तुत करें । जैसे शरीर में आत्मा प्रजापति पांच प्राण, जैसे संवत्सरमय सूर्य के पांच ऋतु वैसे राजा प्रजापति के ये पांच विष्णु अर्थात् पांच विभाग हैं जहां राजा अपने कोश और अन्न को प्रदान करे ॥
टिप्पणी
१ --[१ -१४] गोतम ऋषिः।द०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिःऋषिः।विष्णुर्देवता । स्वराड्ब्राह्मी बृहती । मध्यमः स्वरः ॥
विषय
किस प्रयोजन के लिये यज्ञ का अनुष्ठान करना योग्य है, इस विषय का उपदेश कियाजाता है ।
भाषार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे मैं जो हवि(अग्ने:) प्रसिद्ध विद्युत् के (तनूः) शरीर के समान(असि ) है (त्वा) उस हवि को (विष्णवे) यज्ञ के अनुष्ठान के लिये स्वीकार करता हूँ। जो (सोमस्य) जगत् में उत्पन्न पदार्थों की वा रस की विस्तारक-सामग्री (असि) है (त्वा) उस सामग्री का (विष्णवे) व्यापक वायु की शुद्धि के लिये उपयोग करता हूँ। जो (अतिथेः) जिसके गमनागमन की तिथि निश्चित नहीं, उस विद्वान् का (आतिथ्यम्) अतिथिपन व सत्कार नामक कर्म (असि) है (त्वा) उस यज्ञ के साधन को (विष्णवे) व्याप्तिशील वा विज्ञान प्राप्ति रूप यज्ञ के लिये स्वीकार करता हूँ। और जो पदार्थ (श्येनाय) बाज पक्षी के समान शीघ्र गमन के लिये प्रवृत्त होता है (त्वा) उसे अग्नि आदि में डालता हूँ । और जो कर्म (विष्णवे) सब विद्या और कर्मों में व्यापक (सोमभृते) सोमों को धारण करने वाले यजमान के लिये है (त्वा) उस उत्तम सुख को ग्रहण करता हूँ । और जो (अग्नये) अग्नि की वृद्धि के लिए है (त्वा) उस इन्धनादि वस्तु को स्वीकार करता हूँ। और जो (रायस्पोषदे) विद्या और धन को पुष्टि देने वाले (विष्णवे) सब शुभ गुण, विद्या और कर्म की प्राप्ति में बलदायक है (त्वा) उसे उत्तम रीति से ग्रहण करता हूँ, वैसे ही इस सबको तुम भी सेवन करो ।। ५ । १ ।।
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। सब मनुष्य इस मन्त्र में कहे फलों को प्राप्त करने के लिये तीन प्रकार के यज्ञ का नित्य अनुष्ठान करें ॥ ५ ॥ १ ॥
प्रमाणार्थ
(असि) अस्ति। इस मन्त्र में 'असि' पद पर सर्वत्र पुरुष-व्यत्यय है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।४।१।९-१४) में की गई है ॥ ५ ॥ १ ॥
भाष्यसार
१. यज्ञानुष्ठान किस लिये करें-- जो हवि अग्नि में होम की जाती है वह विद्युत् तथा प्रसिद्ध अग्नि का शरीर है। विद्वान् लोग यज्ञानुष्ठन के लिये उस हवि को स्वीकार करते हैं। यज्ञ में होम की हुई सामग्री जगत् में उत्पन्न पदार्थों वा रसों का विस्तार करती है। व्यापक वायु को शुद्ध करती है । अतिथि अर्थात् जिसके आने की तिथि निश्चित नहीं, उस विद्वान् अतिथि का गृहस्थ लोग आतिथ्य करें, सत्कार करें। यह अतिथि-यज्ञ कहलाता है। इस अतिथि यज्ञ से विज्ञान की प्राप्ति करें । यज्ञ में होम की हुई हवि बाज पक्षी के समान आकाश में शीघ्र गति करती है, तत्काल इधर-उधर फैल जाती है। जो सबका उपकार करती है अतः हवि को अग्नि में प्रक्षेप करें। यजमान का स्वभाव सब विद्या और शुभकर्मों को प्राप्त करने का होता है। वह सोम को धारण करने वाला होता है। उक्त यजमान का यज्ञानुष्ठान रूप कर्म उत्तम सुख प्रदान करता है । अग्नि की वृद्धि के लिये ईंधन को ग्रहण करें। विद्या और धनों की पुष्टि के लिये तथा सब शुभगुण, विद्या और पुरुषार्थ की सिद्धि के लिये यज्ञानुष्ठान करें ॥ ५ ॥ १ ॥ २. अलङ्कार–मन्त्र में उपमा वाचक ‘इव’ आदि शब्द लुप्त हैं इसलिये वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। उपमा यह है विद्वानों के समान अन्य जन भी यज्ञ का अनुष्ठान करें ॥ ५ ॥ १ ॥
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. पूर्वोक्त फळ प्राप्त व्हावे, यासाठी तीन प्रकारच्या यज्ञांचे अनुष्ठान करावे.
विषय
॥अथ पंचमाध्यायारम्भः॥^आतां चवथ्या अध्यायानंतर पाचव्या अध्यायाच्या भाष्याचा आरंभ केला जात आहे -^कोणत्या प्रयोजनासाठी यज्ञाचे अनुष्ठान करणे उचित आहे, या विषयाचे कथन पुढील मंत्रात केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, जो (अग्नेः) विद्युतरूप अग्नीच्या (तनूः) शरीरासमान (असि) आहे (विद्युतनिर्मितीसाठी ज्या ज्या वस्तु आवश्यक आहेत) (त्वा) त्यांचा मी (विष्णवे) यज्ञाच्या सिद्धी करिता स्वीकार करतो . (सोमस्य) संसारात उत्पन्न पदार्थ समूहाचा (तनूः) जो विस्तृत भाग आहे अर्थात विविध पदार्थ (असि) आहे (त्वा) त्यांचा मी (विष्णवे) वायूच्या शुद्धतेकरिता उपयोग करतो. (अतिथेः) सन्यासी आदी सत्कारयोग्य व्यक्तींचा (आतिथ्यम्) जो आतिथ्यरूप सेवाकर्म (असि) आहे, (त्वा) त्यास मी (विष्णवे) विज्ञानरूप यज्ञाच्या पूर्ततेसाठी ग्रहण करीत आहे (श्येनाय) ज्या वस्तू शयन म्हणजे बहिरीससाणा पक्ष्याप्रमाणे वेगाने जाण्यासाठी (असि) आहेत, (त्वा) त्या द्रव्याला मी अग्नीमधे सोडत आहे. (विष्णवे) सर्व विद्या व कर्मांनी मुक्त (सोमभृते) सोम समूहास म्हणजे सोम आदी औषधीस धारण करणार्या यजमानाच्या सुखाकरिता जे (असि) आहे (तव) त्या सोमसमूहाचा ग्रहण करीत आहे. (अग्नये) या अग्नीला प्रदीप्त करण्यासाठी जी काष्ठ आदी सामग्री आहे (त्वा) त्याचा मी स्वीकार करीत आहे. (रायस्पोषदे) धनाची भरपूर वृद्धी करणारे व (विष्णवे) उत्तम गुण, कर्म विद्येच्या प्राप्तीकरता जे जे उत्तम आहेत (त्वा) त्यांचा मी ग्रहण करीत आहे. हे मनुष्यांनो माझ्याप्रमाणे तुम्ही देखील यज्ञासाठी वरील सर्व वस्तूंचा संचय व उपयोग करीत जा. (यज्ञाचे विविध उपयोग आणि त्यासाठी आवश्यक द्रव्य-सामग्रीचे वर्णन या मंत्रात आहे, विद्युतरूप अग्नी, द्रव्यपदार्थ, आतिथ्य, वेगवान यान, यजमानाचे कल्याण, काष्ठादी द्रव्य, धनवृद्धी, आदी यज्ञाचे रूप व उपयोग आहेत) ॥1॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे मनुष्यांकरिता हे उचित हितकारी कर्म आहे की त्यांनी मंत्रात वर्णिलेल्या लाभांच्या प्राप्तीसाठी तीन प्रकारच्या यज्ञाचे अनुष्ठान नित्य करावे (विद्युत-प्राप्ती, वायुशुद्धी, आतिथ्य, यान विज्ञान, विद्या, धन, उत्तम गुण कर्म, या सर्वांची प्राप्ती हे सर्व यज्ञाचे लाभ आहेत) ॥1॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Oh oblation, thou art the body of fire, I accept thee for the completion of sacrifice. Thou art the material of all the created objects in the universe, I use thee for the purification of air. Thou art the source of reception of the unexpected guest, I accept thee for the acquisition of knowledge. Thou art fast in speed like the falcon, I put thee into the fire, I accept thee, the source of happiness for the learned and active worshipper. I accept thee as giver of wealth, knowledge, action and all noble qualities.
Meaning
Yajna (Yajna materials), you are the body of fire (heat and electricity) dedicated to Vishnu for the completion of the noble act of service. You are the body of Soma (life-juice of the created phenomena) dedicated to Vishnu, for the purification of the air and the environment. You are the hospitality for the chance- visitor, dedicated to Vishnu for the attainment of knowledge. I do the yajna and offer the libations for Vishnu, for the ‘eagle’, fastest carrier of Soma to the Yajamana, for rapid advancement of the science and power of yajna. I offer the libations to the fire for the development of wealth and energy, for Vishnu, the powerful giver of virtue, for knowledge and the ability for action.
Translation
You are the embodiment of the fire; I dedicate you to the Lord omnipresent. (1) You are the embodiment of the moon (bliss); I dedicate you to the Lord omnipresent. (2) You are the hospitality offered to guests; I dedicate you to the Lord omnipresent. (3) І dedicate you to the Lord omnipresent, who in the form of a hawk brings nectar (divine bliss). I dedicate you to the adorable Lord. (4) i dedicate you to the Lord omnipresent, the bestower of riches and nourishment. (5)
Notes
This mantra is addressed to the sacrificial offerings. Visnave, to the Lord omnipresent. Soma, moon: also, Soma plant; also, bliss. Atitheratithyam, hospitality offered to guests. Syenaya somabhrte, to the hawk who brings Soma, the nectar divine. There is a legend, that the Gayatri taking the form of a hawk brought Soma from heaven to earth. Rayasposade, bestower of riches and nourishment.
बंगाली (1)
विषय
॥ ও৩ম্ ॥
॥ অথ পঞ্চমাধ্যায়ারম্ভ ॥
এখন চতুর্থ অধ্যায়ের সমাপনান্তে পঞ্চম অধ্যায়ের ভাষ্য আরম্ভ করা হইতেছে ॥
ও৩ম্ বিশ্বা॑নি দেব সবিতর্দুরি॒তানি॒ পরা॑ সুব । য়দ্ভ॒দ্রং তন্ন॒ऽআ সু॑ব ॥ য়জুঃ৩০.৩ ॥অথ কিমর্থো য়জ্ঞোऽনুষ্ঠাতব্য ইত্যপদিশ্যতে ॥
কী কী প্রয়োজন হেতু যজ্ঞের অনুষ্ঠান করা উচিত, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যেমন আমি যে হবি (আগ্নেঃ) বিদ্যুৎ প্রসিদ্ধ রূপ অগ্নির (তনূঃ) শরীরের সমান (ত্বা) তাহাকে (বিষ্ণবে) যজ্ঞের সিদ্ধি হেতু স্বীকার করি যাহা (সোমস্য) জগতে উৎপন্ন পদার্থ সমূহের (তনূঃ) বিস্তার পূর্বক সামগ্রী (অসি) হয় (ত্বা) উহাকে (বিষ্ণবে) বায়ুর শুদ্ধি হেতু ব্যবহার করি যাহা (অতিথেঃ) সন্ন্যাসী প্রভৃতির (আতিথ্যম্) আতিথ্য বা তাঁহার সেবারূপ কর্ম (অসি) হয় (ত্বা) উহাকে (বিষ্ণবে) বিজ্ঞান যজ্ঞের প্রাপ্তির জন্য গ্রহণ করি যাহা (শ্যেনায়) শ্যেনপক্ষীর সমান শীঘ্র গতি সম্পন্ন (ত্বা) সেই দ্রব্যকে অগ্নি ইত্যাদিতে আহুতি প্রদান করি যাহা (বিষ্ণবে) সকল বিদ্যা কর্মযুক্ত (সোমভৃত্) সোম ধারণকারী যজমানের জন্য সুখ (অসি) হয় (ত্বা) উহাকে গ্রহণ করি, যাহা (অগ্নয়ে) অগ্নি বৃদ্ধির জন্য কাষ্ঠাদি আছে (ত্বা) উহা স্বীকার করি । যাহা (রায়স্পোষদে) ধনের পুষ্টি দানকারী অথবা (বিষ্ণবে) উত্তম কর্ম বিদ্যার ব্যাপ্তির জন্য সমর্থ পদার্থ আছে (ত্বা) উহা গ্রহণ করি সেইরূপ এই সবগুলির সেবন তোমরাও করিতে থাক ॥ ১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । মনুষ্যদিগের উচিত যে, পূর্বোক্ত ফলের প্রাপ্তির জন্য তিন প্রকারের যজ্ঞের অনুষ্ঠান করিবে ॥ ১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অ॒গ্নেস্ত॒নূর॑সি॒ বিষ্ণ॑বে ত্বা॒ সোম॑স্য ত॒নূর॑সি॒ বিষ্ণ॑বে॒ ত্বাऽতি॑থেরাতি॒থ্যম॑সি॒ বিষ্ণ॑বে ত্বা শ্যে॒নায়॑ ত্বা সোম॒ভৃতে॒ বিষ্ণ॑বে ত্বা॒ऽগ্নয়ে॑ ত্বা রায়স্পোষ॒দে বিষ্ণ॑বে ত্বা ॥ ১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অগ্নেস্তনূরিত্যস্য গোতম ঋষিঃ । বিষ্ণুর্দেবতা । স্বরাড্ ব্রাহ্মী বৃহতী ছন্দঃ ।
মধ্যমঃ স্বরঃ ॥
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