अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 1
ये त्रि॑ष॒प्ताः प॑रि॒यन्ति॒ विश्वा॑ रू॒पाणि॒ बिभ्र॑तः। वा॒चस्पति॒र्बला॒ तेषां॑ त॒न्वो॑ अ॒द्य द॑धातु मे ॥
स्वर सहित पद पाठये । त्रि॒ऽस॒प्ताः । प॒रि॒ऽयन्ति॑ । विश्वा॑ । रू॒पाणि॑ । बिभ्र॑तः ।वा॒चः । पति॑: । वला॑ । तेषा॑म् । त॒न्वः । अ॒द्य । द॒धा॒तु॒ । मे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः। वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वो अद्य दधातु मे ॥
स्वर रहित पद पाठये । त्रिऽसप्ताः । परिऽयन्ति । विश्वा । रूपाणि । बिभ्रतः ।वाचः । पति: । वला । तेषाम् । तन्वः । अद्य । दधातु । मे ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
बुद्धि की वृद्धि के लिये उपदेश।
पदार्थ
(ये) जो पदार्थ (त्रि-सप्ताः) १−सबके संतारक, रक्षक परमेश्वर के सम्बन्ध में, यद्वा, २−रक्षणीय जगत् [यद्वा−तीन से सम्बद्ध ३−तीनों काल, भूत, वर्तमान और भविष्यत्। ४−तीनों लोक, स्वर्ग, मध्य और भूलोक। ५−तीनों गुण, सत्त्व, रज और तम। ६−ईश्वर, जीव और प्रकृति। यद्वा, तीन और सात=दस। ७−चार दिशा, चार विदिशा, एक ऊपर की और एक नीचे की दिशा। ८−पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ, अर्थात् कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, नासिका और पाँच कर्म इन्द्रियाँ, अर्थात् वाक्, हाथ, पाँव, पायु, उपस्थ। यद्वा, तीन गुणित सात=इक्कीस। ९−महाभूत ५, प्राण ५, ज्ञान इन्द्रियाँ ५, कर्म इन्द्रियाँ ५, अन्तःकरण १ इत्यादि] के सम्बन्ध में [वर्त्तमान] होकर, (विश्वा=विश्वानि) सब (रूपाणि) वस्तुओं को (बिभ्रतः) धारण करते हुए (परि) सब ओर (यन्ति) व्याप्त हैं। (वाचस्पतिः) वेदरूप वाणी का स्वामी परमेश्वर (तेषाम्) उनके (तन्वः) शरीर के (बला=बलानि) बलों को (अद्य) आज (मे) मेरे लिये (दधातु) दान करे ॥१॥
भावार्थ
आशय यह है कि तृण से लेकर परमेश्वरपर्यन्त जो पदार्थ संसार की स्थिति के कारण हैं, उन सबका तत्त्वज्ञान (वाचस्पतिः) वेदवाणी के स्वामी सर्वगुरु जगदीश्वर की कृपा से सब मनुष्य वेद द्वारा प्राप्त करें और उस अन्तर्यामी पर पूर्ण विश्वास करके पराक्रमी और परोपकारी होकर सदा आनन्द भोगें ॥१॥ भगवान् पतञ्जलि ने कहा है−योगदर्शन, पाद १ सूत्र २६। स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ॥ वह ईश्वर सब पूर्वजों का भी गुरु है क्योंकि वह काल से विभक्त नहीं होता ॥
टिप्पणी
१−शब्दार्थव्याकरणादिप्रक्रिया−ये। पदार्थाः। त्रि-सप्ताः। तरतेर्ड्रिः। उ० ५।६६। इति तृ तरणे−ड्रि। तरति तारयति तार्यते वा त्रिः। परमेश्वरो जगद्वा। संख्यावाची वा। सप्यशूभ्यां तुट् च। उ० १।१५७। इति षप समवाये−कनिन्, तुट् च। सपति समवैतीति सप्तन् संख्याभेदो वा। यद्वा, षप समवाये−क्त। त्रिणा तारकेण परमेश्वरेण तारणीयेन जगता वा सह सम्बद्धाः पदार्थाः। यद्वा। त्रयश्च सप्त चेति त्रिषप्ता दश देवाः। यद्वा। त्रिगुणिताः सप्त एकविंशतिसंख्याकाः पदार्थाः। डच्-प्रकरणे संख्यायास्तत्पुरुषस्योपसंख्यानं कर्तव्यम्। वार्तिकम्, पा० ५।४।७३। इति समासे डच्। विशेषव्याख्या भाषायां क्रियते। परि-यन्ति। इण् गतौ, लट्। परितः सर्वतो गच्छन्ति व्याप्नुवन्ति। विश्वा। अशूप्रुषिलटिकणिखटिविशिभ्यः क्वन्। उ० १।१५१। इति विश प्रवेशे-क्वन्। शेश्छन्दसि बहुलम्। पा० ६।१।७०। इति शेर्लोपः। विश्वानि। सर्वाणि। रूपाणि। खष्पशिल्पशष्पवाष्परूपपर्पतल्पाः। उ० ३।२८। इति रु ध्वनौ−प प्रत्ययो दीर्घश्च। रूयते कीर्त्यते तद् रूपम्। यद्वा, रूप रूपकरणे−अच्। सौन्दर्याणि, चेतनाचेतनात्मकानि वस्तूनि। बिभ्रतः। डुभृञ् धारणपोषणयोः−लटः शतृ। जुहोत्यादित्वात् शपः श्लुः। नाभ्यस्ताच्छतुः। पा० ७।१।७८। इति नुमः प्रतिषेधः। धारयन्तः। पोषयन्तः। वाचः। क्विब् वचिप्रच्छिश्रि०। उ० २।५७। इति वच् वाचि−क्विप्। दीर्घश्च। वाण्याः। वेदात्मिकायाः। पतिः। पातेर्डतिः। उ० ४।५७। इति पा रक्षणे−डति। रक्षकः। सर्वगुरुः परमेश्वरः। वाचस्पतिः−षष्ठ्याः पतिपुत्र०। पा० ८।३।५३। इति विसर्गस्य सत्त्वम्। बला। बल हिंसे जीवने च−पचाद्यच्। पूर्ववत् शेर्लोपः। बलानि। तेषाम्। त्रिसप्तानां पदार्थानाम्। तन्वः। भृमृशीङ्०। उ० १।७। इति तनु विस्तृतौ−उ प्रत्ययः। ततः स्त्रियाम् ऊङ्। उदात्तस्वरितयोर्यणः स्वरितोऽनुदात्तस्य। पा० ८।२।४। इति विभक्तेः स्वरितः, उदात्तस्य ऊकारस्य यणि परिवर्त्तिते। तन्वाः, शरीरस्य। अद्य। सद्यः परुत्परार्यैषमः०। पा० ५।३।२२। इति इदम् शब्दस्य अश्भावः, द्यस् प्रत्ययो दिनेऽर्थे च निपात्यते। अस्मिन् दिने, अध्ययनकाले। दधातु। डुधाञ् धारणपोषणयोः, दाने च−लोट्। जुहोत्यादिः। शपः श्लुः। धारयतु, स्थापयतु, ददातु। मे। मह्यम्, मदर्थम् ॥
विषय
संसार के घटकभूत इक्कीस तत्त्व
पदार्थ
१. 'महत्तत्त्व, अहङ्कार व पञ्च तन्मात्राएँ'-ये सात तत्त्व हैं, जो संसार के सब रूपों का निर्माण करनेवाले हैं। 'सत्त्व, रजस् व तमस्' के भेद से ये तीन-तीन प्रकार के हैं। इसप्रकार ये (त्रिषता:) = जो तीन गुणा सात-इक्कीस तत्त्व है, (विश्वा रूपाणि बिभ्रत:) = सब रूपों का धारण करते हुए (परियन्ति) = चारों ओर गति करते हैं और सर्वत: व्यासिवाले होते हैं।
२. (वाचस्पति:) = सम्पूर्ण वाड्मय का स्वामी आचार्य (तेषाम्) = उन इक्कीस तत्वों के (तन्वः) = शरीर-सम्बन्धी (बला) = शक्तियों को (अद्य) = आज (मे) = मुझमें (दधातु) = धारण करे । जो तत्त्व ब्रह्माण्ड का निर्माण करते हैं, वे ही तत्त्व हमारे इन पिण्डों [शरीरों] का भी निर्माण करनेवाले हैं। उन सब तत्त्वों की शक्ति शरीर में सुरक्षित रहेगी तभी हम पूर्ण स्वास्थ्य प्राप्त करेंगे।
३. एवं, यह स्पष्ट है कि आचार्य से दिये जानेवाले ज्ञान का मूल-विषय संसार के ये इकोस तत्व ही होने चाहिएँ। इनका हमारे जीवन जयपपना से सीधा सम्बन्ध है। वही ज्ञान उपयुक्ततम है जो हमारा रक्षण करनेवाला हो। ('सह नाववतु') इस उपनिषत् श्लोक में यही बात कही गई है।
४. आचार्य का वाचस्पति होना आवश्यक है। यदि आचार्य सम्पूर्ण वाङ्मय का पति नहीं होगा तो वह विद्यार्थी के अन्दर श्रद्धा का भाव उत्पन्न न कर सकेगा। ज्ञान-प्रदानरूप अपने कर्तव्य का पालन भी बिना वाड्मय का अधिपति हुए सम्भव नहीं।
भावार्थ
संसार के सब रूपों के घटकभूत इक्कीस तत्त्वों का ज्ञान आचार्य-कृपा से हमें प्राप्त हो। इस ज्ञान के अनुष्ठान से हम अपने स्वास्थ्य का रक्षण करें।
पदार्थ
शब्दार्थ = ( ये त्रिषप्ता: ) = जो प्रसिद्ध इक्कीस देव ( विश्वा रूपाणि ) = सब आकारों को ( बिभ्रतः ) = धारण-पोषण करनेवाले ( परियन्ति ) = प्रति शरीर में यथायोग्य वर्त्तमान रहते हैं ( तेषां बला ) = उन देवों के बलों को ( वाचस्पति ) = वेद वाणी का रक्षक और स्वामी ( मे तन्व ) = मेरे शरीर के लिए ( अद्य दधातु ) = अब धारण करे ।
भावार्थ
भावार्थ = हे वेद वाणी के पालक और मालिक परमात्मन् ! मेरे शरीर में ५ महाभूत, ५ प्राण, ५ ज्ञानेन्द्रिय, ५ कर्मेन्द्रिय, १ अन्तःकरण ये इक्कीस दिव्य शक्तिवाले देव वर्त्तमान हैं, जो कि सब शरीरों में सब आकार और रूपों को धारण करनेवाले हैं, आप कृपा करके इन सबके बल को मेरे लिए धारण करें, जिससे मैं आपका सेवक, आत्मिक शारीरिक आदि बलयुक्त होकर, आपकी वैदिक आज्ञा का पालन करता हुआ, मोक्ष आदि उत्तम सुख का भागी बनूं।
भाषार्थ
(ये) जो (त्रिषप्ताः) तीन या सात (विश्वा रूपाणि) सब रूपों को (बिभ्रतः) धारण करते हुए (परियन्ति) सब ओर गति कर रहे हैं, (वाचस्पतिः) वाग्मी आचार्य (तेषाम् बला ) उन त्रिषप्तों के बल ( मे ) मेरी (तन्वः) तनू अर्थात् शरीर के मध्य (अद्य१) आज से (दधातु) स्थापित करे।
टिप्पणी
[विश्वा=विश्वानि । बला=बलानि । तन्वः= तनू के मध्य अर्थात् शरीर में । त्रिषप्ताः= तीन या सात । तीन हैं मूल प्रकृति के तीन अवयव, सत्त्व, रजस् और तमस् । सप्त हैं प्रकृति-विकृति उभय रूप, महत्तत्त्व, अहंकार तथा पञ्चतन्मात्राएँ। त्रिषप्ताः= अन्यपदार्थे बहुव्रीहौ डच् समासान्तः (सायण)। अन्य पदार्थ है विकल्प "त्रयो वा सप्त वा" इत्येवं रूपः।] [१. अयप्रभृति, आज से, जबकि मैं युवावस्था का हो गया हूँ और त्रिषप्त तत्त्वों के ज्ञान ग्रहण के योग्य हो गया हूँ।]
विषय
वाचस्पति से बलों की प्रार्थना
भावार्थ
(ये) जो ( त्रिषप्ताः ) तीन गुना सात [२१] इक्कीस पदार्थ (विश्वा) समस्त ( रूपाणि ) चेतन और अचेतन पदार्थों को ( बिभ्रतः ) धारण करते हुए ( परि यन्ति ) गति कर रहे हैं। ( वाचः ) वाणी का ( पतिः ) पालक (तेषां) उनके (बला) बलों को (अद्य) आज, सदा ही, ( मे तन्वः ) मेरे शरीर के भीतर ( दधातु ) धारण करावे । वाचस्पति का अर्थ प्राण, आत्मा, परमात्मा और आचार्य है । वाचस्पति दश होता रूप दश प्राणों का मुख्य ‘होता’ है। वाणी में सब देव अर्थात् इन्द्रियगण ओतप्रोत हैं। ऊपर के छः प्राणों का होता वाक् है । वाणी मन का प्रकट रूप है, वाणी प्रजापति से गर्भ ग्रहण करती है। वह इस समस्त संसार की सृष्टि को उत्पन्न अर्थात् प्रकट करती है, वाणी वेदज्ञान प्रभु की अपनी महिमा है । इत्यादि, उसी समस्त ज्ञानमय प्रभु से सब भौतिक बलों और प्राणमय वाचस्पति, आत्मा से अध्यात्म बलों की प्रार्थना की गई है । ( १ ) ‘त्रिषप्ताः’—तीन और सात । पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्यौ ये तीन लोक, उनके तीन अधिष्ठाता अग्नि, वायु और आदित्य । प्रकृति के तीन गुण, सत्व, रजस् और तमस् । इन तीन गुणों से होने वाले तीन कार्य, सृष्टि, स्थिति और प्रलय । सप्त=सात ग्रह, सात मरुद्गण, सात लोक, सात छन्द, सात ऋषि । (२) अथवा, ‘त्रिषप्ताः’—तीन सत्ते= २१ । प्रसिद्ध सूर्य से अधिष्ठित प्राची दिशा को छोड़कर शेष ७ दिशाएं जिनमें आरोग, भ्राज, पटर,पतङ्ग, स्वर्णर, ज्योतिषामान् और विभास ये सात सूर्य की शक्तियां विराजमान हैं। होता आदि सात ऋत्विज्-गण अथवा विवस्वान् को छोड़ कर मित्र, वरुण, धाता, अर्यमा, अंश, भग और इन्द्र ये ७ सूर्य । जैसा ऋग्वेद ( ९। ११४। ३ ) में “सप्तदिशो नानासूर्याः सप्तहोता ऋविजः । देवा आदित्या ये सप्त ।" (३) अथवा, त्रिषप्ताः—सप्त ग्रह, सप्त ऋषि और सप्त मरुद्रण । ( ४ ) अथवा, १२ मास + ५ ऋतुएँ + ३ लोक और आदित्य इक्कीसवां । ( ५ ) अथवा शरीर के घटक पांच महाभूत पृथिवी, अप्, तेज, वायु, आकाश । पाँच प्राण, पञ्च ज्ञानेन्द्रिय, पञ्च कर्मेन्द्रिय और अन्तःकरण । ईश्वर की कृपा से ये मेरे में स्थिर रहें। पं० श्रीपाद दामोदरजी सातवलेकर के मत में वाचस्पति ‘बला’ नामक ओषधि है, जो वाणीप्रदा होने से वाचस्पति कहाना सम्भव है ।
टिप्पणी
प्राणो वाचस्पतिः । श० ६। ३। १। १९॥ प्रजापतिर्वै वाचस्पतिः । श० ४ । १ । १ । ९ ॥ वाचस्पतिर्होता दश होतॄणाम् । तै० ३। १२ । १५। २॥ वाग् इति सर्वे देवाः । तै० १। ९। २॥ वाग् होता षड्होतॄणाम् । तै० ३। १२। ५। २॥ वाग् वै यज्ञः । तै० ५। २४॥ वाग् इति मनः । जै० उ० ४। २१। ११॥ प्रजापतिर्वा इदमासीत् तस्य वाग् द्वितीया आसीत्। तां मिथुनं समभवत्। सा गर्भमधत्त, सा अस्मादपक्रामत् । सा इमाः प्रजा असृजत । सा प्रजापतिमेव पुनः प्राविशत् । तां० २०। १४। २॥ वाग् अस्य प्रजापतेः स्वो महिमा । श० २। २ । ४ । ४॥ इत्यादि ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। वाचस्पतिर्देवता। १-३ अनुष्टुभः, ४ चतुष्पादुरोविराड्बृहती । चतुर्ऋचं सूक्तम् ।
इंग्लिश (4)
Subject
Hymn of Victory; Development of Intelligence
Meaning
Thrice seven are the entities which bear, wear and comprise the entire world of forms in existence. May Vachaspati, omniscient lord of speech, awareness and the phenomenal world bless me with the body of knowledge pertaining to their essences, names, forms, powers, functions and relationships here and now. Note: The ‘thrice-seven’ of phenomenal world is to be explained: The phenomenal world is an evolution of one basic material cause, Prakrti or Nature. The efficient cause of the evolution is Vachaspati, Supreme Spirit, immanent, transcendent, omniscient, omnipresent, omnipotent. The evolution is initiated and sustained by the will and presence of the spirit immenant implosive in Nature, therefore it is creative and intelligent evolution, not blind and wild growth. The initiation is like the spark, the Big Bang. With the big bang the one basic material cause, Prakrti, takes on the evolutionary process of diversification. The phenomenal world, whatever it may be at any time, is the consequence of that one cause according to the laws of evolution. Prakrti originally is non-descript. When the divine will initiates the process of evolutionary change and development, it takes on the name and character of Mahat. Mahat then changes into Ahankara, a generic identity, which then evolves into two directions: physical and psychic. The psychic direction develops into the mind, intellect and the senses and the physical develops into the five elements, akasha, vayu, agni, apah and Prthivi. The physical development passes through two stages, subtle and gross from Ahankara. The subtle elements are called Tanmatras, and Tanmatras then develop into the gross elements, akash or space, vayu or energy, agni or heat and light, apah or liquids, and Prthivi or solids. The five gross elements, their subtle precedents, and Ahankara are the ‘seven’ of the mantra. These seven entities, further, have their qualitative character. All phenomenal forms have their qualitative characteristics. Even human beings have qualitative, characteristic differences. A person may be intellectually very high, a research oriented introvert, another an energetic playful extrovert, still another may be dull. Why this? Nature, the basic material cause of our physical existence, itself has its qualitative modes and variants. These are Satva (mind, intellect, transparency), Rajas (energy, activeness), and Tamas (matter, inertia). We may call them thought, energy and matter, or, matter, motion and mind. That matter and energy, and even mind, are interconvertible is a very late scientific rediscovery of a Vedic truth, or it may just be a reminder of something we had forgot, though actually it was lying deposited in a dormant account. The seven variants of Prakrti into one direction of evolution, further qualified and characterised by these three qualitative modes, makes the phenomenal forms into thrice seven. A great intellectual with an agitated mind may be a great destroyer, another great intellectual with a balanced mind may be a great creative innovator. The two are human physically, yet different in character and achievement. Prayer: May Vachaspati enlighten us about these thrice seven. This is the Atharva-vediya projection of knowledge and education. This is the prayer for our intelligential development in terms of facts, processes and values.
Subject
Vacaspatih (Lord of Speech)
Translation
May, this day, the Lord of Speech (Vacaspati) assign to me the selves and powers of those tripleseven (trisapteh) that roam all around wearing all the shapes and forms (rupani). (3+7=10; 3x7=21; 3+5+7=15; 15+21x10=360) -(see also Av.127.1.).
Translation
Now May Vachaspatih, the master of language with grammar, impart to me the knowledge of the origin and scope of the system of those triple seven vibhaktis, the inflections of the grammatical cases which bear the various names and forms.
Translation
May God ever assign to me the strength and powers of those twenty one objects, which sustaining the animate and inanimate creation, are wandering round.
Footnote
[Vachaspati means God, the Lord of speech, the Revealer of the Vedas. Some commentators interpret the word as guru, teacher or precepter, God, being the Greatest Teacher, is aptly denoted by the word. According to Pt. Damodra Satvalekar, Vachaspati Bala is the name of a herb, the use of which improves one's speech. The word त्रिषप्ता, (Trishapta) i.e., three times seven has been differently interpreted by different scholars. Twenty-one may refer to 12 months, five seasons, 3 lokas i.e., Earth, Atmosphere, Firmament, and Sun. It may refer to 5 Mahabhut; i.e., earth, water, light, air, space; 5 Prapas, i.e., Prana, Apāna, Vyäna, Udana and Samana, five organs of cognition, Gyana Indriyas, five organs of action, Karma Indriyas, and अन्तः करण, the internal organ, the heart, the seat of thought and feeling, thinking faculty, mind, conscience. The word 'Twenty-one' means the innumerable forces of nature. In this verse God is invoked to grant a devotee all the forces of nature, that exist in the world.]
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−शब्दार्थव्याकरणादिप्रक्रिया−ये। पदार्थाः। त्रि-सप्ताः। तरतेर्ड्रिः। उ० ५।६६। इति तृ तरणे−ड्रि। तरति तारयति तार्यते वा त्रिः। परमेश्वरो जगद्वा। संख्यावाची वा। सप्यशूभ्यां तुट् च। उ० १।१५७। इति षप समवाये−कनिन्, तुट् च। सपति समवैतीति सप्तन् संख्याभेदो वा। यद्वा, षप समवाये−क्त। त्रिणा तारकेण परमेश्वरेण तारणीयेन जगता वा सह सम्बद्धाः पदार्थाः। यद्वा। त्रयश्च सप्त चेति त्रिषप्ता दश देवाः। यद्वा। त्रिगुणिताः सप्त एकविंशतिसंख्याकाः पदार्थाः। डच्-प्रकरणे संख्यायास्तत्पुरुषस्योपसंख्यानं कर्तव्यम्। वार्तिकम्, पा० ५।४।७३। इति समासे डच्। विशेषव्याख्या भाषायां क्रियते। परि-यन्ति। इण् गतौ, लट्। परितः सर्वतो गच्छन्ति व्याप्नुवन्ति। विश्वा। अशूप्रुषिलटिकणिखटिविशिभ्यः क्वन्। उ० १।१५१। इति विश प्रवेशे-क्वन्। शेश्छन्दसि बहुलम्। पा० ६।१।७०। इति शेर्लोपः। विश्वानि। सर्वाणि। रूपाणि। खष्पशिल्पशष्पवाष्परूपपर्पतल्पाः। उ० ३।२८। इति रु ध्वनौ−प प्रत्ययो दीर्घश्च। रूयते कीर्त्यते तद् रूपम्। यद्वा, रूप रूपकरणे−अच्। सौन्दर्याणि, चेतनाचेतनात्मकानि वस्तूनि। बिभ्रतः। डुभृञ् धारणपोषणयोः−लटः शतृ। जुहोत्यादित्वात् शपः श्लुः। नाभ्यस्ताच्छतुः। पा० ७।१।७८। इति नुमः प्रतिषेधः। धारयन्तः। पोषयन्तः। वाचः। क्विब् वचिप्रच्छिश्रि०। उ० २।५७। इति वच् वाचि−क्विप्। दीर्घश्च। वाण्याः। वेदात्मिकायाः। पतिः। पातेर्डतिः। उ० ४।५७। इति पा रक्षणे−डति। रक्षकः। सर्वगुरुः परमेश्वरः। वाचस्पतिः−षष्ठ्याः पतिपुत्र०। पा० ८।३।५३। इति विसर्गस्य सत्त्वम्। बला। बल हिंसे जीवने च−पचाद्यच्। पूर्ववत् शेर्लोपः। बलानि। तेषाम्। त्रिसप्तानां पदार्थानाम्। तन्वः। भृमृशीङ्०। उ० १।७। इति तनु विस्तृतौ−उ प्रत्ययः। ततः स्त्रियाम् ऊङ्। उदात्तस्वरितयोर्यणः स्वरितोऽनुदात्तस्य। पा० ८।२।४। इति विभक्तेः स्वरितः, उदात्तस्य ऊकारस्य यणि परिवर्त्तिते। तन्वाः, शरीरस्य। अद्य। सद्यः परुत्परार्यैषमः०। पा० ५।३।२२। इति इदम् शब्दस्य अश्भावः, द्यस् प्रत्ययो दिनेऽर्थे च निपात्यते। अस्मिन् दिने, अध्ययनकाले। दधातु। डुधाञ् धारणपोषणयोः, दाने च−लोट्। जुहोत्यादिः। शपः श्लुः। धारयतु, स्थापयतु, ददातु। मे। मह्यम्, मदर्थम् ॥
बंगाली (4)
पदार्थ
(য়ে) যে সব পদার্থ (ত্রিসপ্তাঃ) সকলের ত্রাতা, রক্ষক পরমেশ্বরের সম্বন্ধে
এবং রক্ষণীয় জগতের সন্বন্ধে বর্তমান থাকিয়া (বিশ্বা) সব (রূপাণি) বস্তুকে (বিভ্রতঃ) ধারণ করিয়া (পরি) সব দিকে (য়প্তি) ব্যাপ্ত রহিয়াছে, (বাচস্পতিঃ) বেদরূপ বাণীর পালক পরমেশ্বর (তেষাম্) তাহাদের (তন্বঃ) শরীরে (বলা) বলকে (অদ্য) আজ (মে) আমাকে (দবাতু) দান করুন।।১।।
(ত্রি সপাঃ) তৃ তরণে ড্রি। তরতি, তারয়তি তাতে রাত্রিঃ। যাহা রক্ষা করে বা রক্ষা পায় তাহা ত্রি-পরমেশ্বর বা জগৎ । ষপ্ সমবায়েক্ত। সপতি সমবৈতীতি সপ্তা্। যাহা সমবেত হয় তাহা সপ্ত। ত্রিসপ্তাঃ অর্থাৎ তারক ঈশ্বর বা তারণীয় জগতের সহিত সন্বন্ধ পদার্থ সমূহ। সংখ্যা ভেদে তিন সন্বন্ধ তিন কাল ভূত, বর্তমান; ও ভবিষ্যৎ; তিন লোক স্বর্লোক, ভূবলোক ও ভূলোক; তিনগুণ সত্ত্ব, রজঃ ও তমঃ; তিন তত্ত্ব ঈশ্বর, জীব ও প্রকৃতি। ৩+৭-দশ দিক। ৩×৭- একুশ দিক, অর্থাৎ পঞ্চ মহাভূত, পঞ্চ প্রাণ, পঞ্চ জ্ঞানেন্দ্রিয়, পঞ্চ কর্মেন্দ্রিয় এবং এক অন্তঃকরণ।। ১৷৷
भावार्थ
যে সব পদার্থ সর্বরক্ষক পরমাত্মা ও তাহার পালনীয় জগতের সন্বন্ধে বর্তমান থাকিয়া সব বস্তুকে ধারণ করে এবং সর্বত্র ব্যাপ্ত থাকে, বেদরূপ বাণীর রক্ষক পরমেশ্বর তাহাদের শরীরের বল আজ আমাকে দান করুন।।১।।
তৃণ হইতে ব্রহ্ম পর্যন্ত যাবতীয় পদার্থই সংসার স্থিতির কারণ। মনুষ্য সেই বিষয়ের জ্ঞান পরমাত্মার কৃপায় বেদ দ্বারা লাভ করুন।।১।।
मन्त्र (बांग्ला)
য়ে ত্রিসপ্তাঃ পরিয়ন্তি বিশ্বা রূপাণি বিভ্রতঃ।বাচস্পতিবলা তেষাং তন্বো অদ্য দধাতু মে৷৷ ১৷৷
ऋषि | देवता | छन्द
অথর্বা। বাচষ্পতিঃ। অনুষ্টুপ্
পদার্থ
যয়ে ত্রিষপ্তাঃ পরিয়ন্তি বিশ্বা রূপাণি বিভ্রতঃ।
বাচস্পতির্বলা তেষাং তন্বো অদ্য দধাতু মে।।১।।
(অথর্ব ১।১।১)
পদার্থঃ (যয়ে ত্রিষপ্তাঃ) যে প্রসিদ্ধ [৩×৭] একুশ দেব (বিশ্বা রূপাণি) সকল আকারের বা প্রকারের (বিভ্রতঃ) ধারণ পোষণকারী, (পরিয়ন্তি) প্রত্যেক শরীরে যথাযোগ্যভাবে বর্তমান থাকে; (তেষাং বলা) সেই দেবগণের বলসমূহকে (বাচস্পতিঃ) বেদ বাণীর রক্ষক (মে তন্বঃ) আমার শরীরের জন্য (অদ্য দধাতু) এখন ধারণ করো।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ হে বেদবাণীর রক্ষক ও প্রণেতা পরমাত্মা! আমার শরীরে যে ৫ মহাভূত, ৫ প্রাণ, ৫ জ্ঞানেন্দ্রিয়, ৫ কর্মেন্দ্রিয় ও ১ অন্তঃকরণ এই ২১ দিব্যশক্তিযুক্ত দেব বর্তমান আছে, তারা প্রত্যেক শরীরের সমস্ত আকার বা রূপকে ধারণ করে। তুমি কৃপা করে এই সকল বল আমার জন্য ধারণ করো যেন আমি, তোমার সেবক, আত্মিক ও শারীরিক বলযুক্ত হয়ে বৈদিক আজ্ঞাকে পালন করে মোক্ষ প্রভৃতি উত্তম সুখের ভাগী হতে পারি।।১।।
मन्त्र विषय
(বুদ্ধিবৃদ্ধ্যুপদেশ্) বুদ্ধির বৃদ্ধির জন্য উপদেশ।
भाषार्थ
(যে) যে পদার্থ (ত্রি-সপ্তাঃ) ১− সবকিছুর সন্তারক বা, রক্ষক পরমেশ্বরের সম্বন্ধে, যদ্বা, ২−রক্ষণীয় জগৎ [যদ্বা− তিন এর সাথে সম্বন্ধিত ৩− তিনটি কাল, ভূত, বর্তমান্ ও ভবিষ্যৎ। ৪− তিনটি লোক, স্বর্গ, মধ্য ও ভূলোক। ৫− তিনটি গুণ, সত্ত্ব, রজ ও তম। ৬− ঈশ্বর, জীব ও প্রকৃতি। যদ্বা, তিন ও সাত=দশ। ৭− চারটি দিশা, চারটি বিদিশা, একটি উর্ধ্ব এবং একটি অধঃ দিশা। ৮− পাঁচটি জ্ঞানেন্দ্রিয়, অর্থাৎ কান, ত্বক, নেত্র, জিহ্বা, নাসিকা ও পাঁচটি কর্মেন্দ্রিয়, অর্থাৎ বাক, হাত, পা, পায়ু, উপস্থ। যদ্বা, তিন গুণিতক সাত= একুশ। ৯− মহাভূত ৫+প্রাণ ৫ + জ্ঞানেন্দ্রিয়+৫+কর্মন্দ্রিয় ৫+অন্তঃকরণ ১ ইত্যাদি] এর সম্বন্ধযুক্ত [বর্ত্তমান্] হয়ে, (বিশ্বা=বিশ্বানি) সমস্ত (রূপাণি) বস্তুকে (বিভ্রতঃ) ধারণ করে (পরি) সমস্ত দিকে (যন্তি) ব্যাপ্ত রয়েছেন। (বাচস্পতিঃ) বেদরূপ বাণীর স্বামী পরমেশ্বর (তেষাম্) উনার (তন্বঃ) শরীরের (বলা=বলানি) বল (অদ্য্) আজ (মে) আমার জন্য (দধাতু) দান করুন ॥১॥
भावार्थ
উদ্দেশ্য হলো যে, তৃণ থেকে শুরু করে পরমেশ্বর পর্যন্ত যেসব পদার্থ সংসারের স্থিতির কারণ, সেই সবকিছুর তত্ত্বজ্ঞান (বাচস্পতিঃ) বেদ বাণীর স্বামী সর্বগুরু জগদীশ্বরের কৃপায় সমস্ত মনুষ্য বেদ দ্বারা প্রাপ্ত করুক এবং সেই অন্তর্যামীর প্রতি পূর্ণ বিশ্বাস করে পরাক্রমী এবং পরোপকারী হয়ে সদা আনন্দ উপভোগ করুক ॥১॥
भाषार्थ
(যে) যে (ত্রিষপ্তাঃ) তিনটি বা সাতটি (বিশ্বা রূপাণি) সকল রূপ-সমূহকে (বিভ্রতঃ) ধারণ করে (পরিযন্তি) সব দিকে গতি করছে/চলমান, (বাচস্পতিঃ) বাগ্মী আচার্য (তেষাম্ বলা) সেই ত্রিষপ্তের বল (মে) আমার (তন্বঃ) তনূ অর্থাৎ শরীরের মধ্যে (অদ্য১) আজ থেকে (দধাতু) স্থাপিত করেন/করুক।
टिप्पणी
[বিশ্বা=বিশ্বানি । বলা=বলানি । তন্বঃ= তনূর মধ্যে অর্থাৎ শরীরের মধ্যে । ত্রিষপ্তাঃ= তিনটি বা সাতটি । তিনটি হল মূল প্রকৃতির তিনটি অবয়ব, সত্ত্ব, রজস্ ও তমস্ । সপ্ত হল প্রকৃতি-বিকৃতি উভয় রূপ, মহত্তত্ত্ব, অহংকার ও পঞ্চতন্মাত্রা। ত্রিষপ্তাঃ= অন্যপদার্থে বহুব্রীহৌ ডচ্ সমাসান্তঃ (সায়ণ)। অন্য পদার্থ হল বিকল্প “ত্রয়ো বা সপ্ত বা” ইত্যেবং রূপঃ।] [১. অদ্যপ্রভৃতি, আজ থেকে, যেহেতু আমি যুবাবস্থার হয়ে গিয়েছি এবং ত্রিষপ্ত তত্ত্বের জ্ঞান গ্রহণের যোগ্য হয়ে গেছি।]
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