अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
नम॑स्ते राजन्वरुणास्तु म॒न्यवे॒ विश्वं॒ ह्यु॑ग्र निचि॒केषि॑ द्रु॒ग्धम्। स॒हस्र॑म॒न्यान्प्र सु॑वामि सा॒कं श॒तं जी॑वाति श॒रद॒स्तवा॒यम् ॥
स्वर सहित पद पाठनम॑: । ते॒ । रा॒ज॒न् । व॒रु॒ण॒ । अ॒स्तु॒ । म॒न्यवे॑ । विश्व॑म् । हि । उ॒ग्र॒ । नि॒ऽचि॒केषि॑ । द्रु॒ग्धम् । स॒हस्र॑म् । अ॒न्यान् । प्र । सु॒वा॒मि॒ । सा॒कम् । श॒तम् । जी॒वा॒ति॒ । श॒रद॑: । तव॑ । अ॒यम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
नमस्ते राजन्वरुणास्तु मन्यवे विश्वं ह्युग्र निचिकेषि द्रुग्धम्। सहस्रमन्यान्प्र सुवामि साकं शतं जीवाति शरदस्तवायम् ॥
स्वर रहित पद पाठनम: । ते । राजन् । वरुण । अस्तु । मन्यवे । विश्वम् । हि । उग्र । निऽचिकेषि । द्रुग्धम् । सहस्रम् । अन्यान् । प्र । सुवामि । साकम् । शतम् । जीवाति । शरद: । तव । अयम् ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वरुण का क्रोध प्रचण्ड है।
पदार्थ
(वरुण) हे अतिश्रेष्ठ (राजन्) बड़े ऐश्वर्यवाले, राजा, (ते) तुझ (मन्यवे) क्रोधरूप को (नमः) नमस्कार (अस्तु) होवे, (उग्र) हे प्रचण्ड ! तू (विश्वम्) सब (हि) ही (द्रुग्धम्) द्रोह को (नि-चिकेषि) सदा जानता है। [मैं] (सहस्रम्) सहस्र (अन्यान्) दूसरे जीवों को (साकम्) एक साथ (प्रसुवामि) आगे बढ़ाता हूँ, (ते) तेरा (अयम्) यह [सेवक] (शतम्) सौ (शरदः) शरद् ऋतुओं तक (जीवाति) जीता रहे ॥२॥
भावार्थ
सर्वज्ञ परमेश्वर के महा क्रोध से भय मानकर मनुष्य पातकों से बचें और सबके साथ उपकार करके जीवन भर आनन्द भोगें ॥२॥
टिप्पणी
२−राजन्। म० १। हे ऐश्वर्यवन्। वरुण। म० १। हे परमेश्वर ! मन्यवे। म० १। क्रोधाय, क्रोधरूपाय। नि-चिकेषि। कि ज्ञाने-लट्, जुहोत्यादिः, शपः श्लुः। त्वं नितरां जानासि। द्रुग्धम्। द्रुह जिघांसायाम्−भावे-क्त। द्रोहम्, अपराधम्। सहस्रम्। सहो बलमस्त्यस्मिन्, सहस्+प्रत्ययो मत्वर्थे। बहुनाम, निघ० ३।१। बहून्, अनेकान्। अन्यान्। माछाशसिभ्यो यः। उ० ४।१०९। इति अन प्राणने, जीवने−य प्रत्ययः। अनिति जीवतीति अन्यः। जीवान्, प्राणिनः। इतरान् वा। प्र+सुवामि। षूङ्, प्रेरणे, तुदादिः, ङित्वाद् गुणप्रतिषेधे उवङ्। प्रकर्षेण प्रेरयामि, ऊर्ध्वं नयामि, उपकरोमि। साकम्। इण्भीकापा०। उ० ३।४३। इति षो अन्तकर्मणि-कन्। सह, समम्। शतम्। बहुनाम, निघ० ३।१। बह्वीः। जीवाति। जीव प्राणधारणे−लेट्, लेटोऽडाटौ। पा० ३।४।९४। इति आडागमः। जीवेत्। शरदः। श्रॄदॄभसोऽदिः। उ० १।१३०। इति शॄ हिंसायाम्−अदि। कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे। पा० २।३।५। इति द्वितीया। आश्विनकार्तिकमासयुक्तान् ऋतुविशेषान्। संवत्सरान् ॥
विषय
अ-द्रोह
पदार्थ
१. हे (राजन् वरुण) = संसार का शासन करनेवाले-पापियों को पाशों से जकड़नेवाले प्रभो! (ते मन्यवे नमः अस्तु) = आपके मन्यु के लिए हम नमस्कार करते हैं। आपका क्रोध हमें दण्डित करनेवाला न हो। हे (उग्र) = तेजस्विन् प्रभो! हम इस बात को अच्छी प्रकार समझते हैं कि आप (विश्वं दुग्धम) = सम्पूर्ण द्रोह को (हि) = निश्चय से (निचिकेषि) = जानते हैं। हमारे मनों में उठनेवाली द्रोह की भावनाएँ आपसे छिपी नहीं हैं, अत: मैं द्रोह की सम्पूर्ण भावनाओं से ऊपर उठता है। २. इनसे ऊपर उठता हुआ मैं (सहस्त्रम्) = हज़ारों (अन्यान्) = अन्य पुरुषों को भी (साकम्) = अपने साथ (प्रसवामि) = अद्रोह की भावना से चलने के लिए प्रेरित करता हूँ। स्वयं अद्रोहवाला होकर औरों को भी अद्रोह के लिए कहता हूँ। इसप्रकार (तव अयम्) = आपका यह पुरुष (शतं जीवाति) = सौ वर्ष तक जीनेवाला बनता है। अद्रोह की वृत्ति का दीर्घजीवन से सम्बन्ध है। मन में उत्पन्न होनेवाली द्रोह की भावनाएँ वस्तुत: हमारे ही जीवन का द्रोह करती हैं और हम अल्प जीवनवाले हो जाते हैं।
भावार्थ
प्रभु का प्रिय व्यक्ति कभी द्वेष नहीं करता।
भाषार्थ
(वरुण राजन्) हे वरुण राजन् ! (ते) तेरे (मन्यवे ) मन्यु के प्रति (नमः अस्तु) प्रह्वीभाव हो, (हि) यत: (उग्र) हे उग्र ! (विश्वं द्रुग्धम्) सब प्रकार के द्रोह भाव को (निचिकेषि) तू जानता है, (सहस्रम् अन्यान् साकम् ) अन्य हजार नमस्कारों को एक साथ (प्र सुवामि) मैं तेरे प्रति प्रेरित करता हूँ, ताकि (तव) तेरा (अयम्) यह उपासक (शतम् जीवाति) सौ वर्षों तक जीवित हो।
टिप्पणी
[नमः=णम प्रह्वत्वे शब्दे च (भ्वादिः)। प्रह्वीभाव तथा नमस्कार शब्द। अन्यान्= प्रह्वीभाव से भिन्न नमस्कार। निचिकेषि= कि ज्ञाने (जुहोत्यादिः)। ते =तेरा यह उपासक।]
विषय
ईश्वर और राजा।
भावार्थ
हे (वरुण ) सर्व श्रेष्ठ, पापों के निवारक ! ( राजन् ) हे संसार के राजा परसात्मन् ! (ते मन्यवे ) तेरे ज्ञानसामर्थ्य अथवा ज्ञान स्वरूप तुझे, या दुष्कर्मों का फल देने वाले तेरे कोप या दण्डव्यवस्था के लिये ( नमः ) हम आदर भाव प्रकट करते हैं। हे (उग्र) उद्यतदण्ड उग्रस्वभाव ! सर्वोपरि बलवन् ! तू (विश्वम्) समस्त ( द्रुग्धं ) द्रोह करने वाले, हिंसक एवं अपराधी कर्मव्यवस्था के द्रोही, उन्मार्गगामी पुरुष को ( नि चिकेषि ) खूब अच्छी प्रकार जानता है। मैं राजपुरोहित ( अन्यान् ) अन्य ( सहस्रं ) हजारों पुरुषों को भी ( साक ) एक साथ ही ( प्र सुवामि ) इसी प्रकार बल प्रदान करता और सन्मार्ग पर चलाता हूं । हे प्रभो ! ( तब ) तेरी कृपा से ( अयं ) यह राजा ( शतं शरदः ) सौ वर्ष तक ( जीवाति ) जीवे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। असुरो वरुणो देवता। १, २ त्रिष्टुप्, ३ ककुम्मती अनुष्टुप्। ४ अनुष्टुप् चतुर्ऋचं सूक्तम् ।
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom from Sin
Meaning
Homage to you, Varuna, refulgent lord and ruler of the world, and salutations to your power and passion for love, justice and rectitude. O formidable lord of law and retribution, you know all the jealous and malignant forces of the world. I drive and inspire a thousand others together to follow the path of rectitude, and so I pray bless this devotee of yours that he may live a full hundred years. Pray bless me that I may inspire others.
Subject
Varuna
Translation
O venerable Lord, the king of all, our homage to your wrath.O furious Lord, you take not of all the (ghastly) treacherous sins. Thousands of others I urge along with him. May this servant of yours live through a hundred autumns.
Translation
O' Varuna rajan (the supreme ruling power) I prostrate to your displeasure. O formidable one, you detect all the malevolent persons. I uplift hundreds of other persons together O Lord, Your devotee this king may live a hundred autumns.
Translation
Homage be paid, O God, our savior, to thine righteous indignation, for O Dreadful God, Thou fully knowest every malicious person. I lead a thousand others simultaneously on the path rectitude. Let this king, thy servant, O' God, live a hundred autumns.
Footnote
I refers to the Raj Purohit, the royal priest.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−राजन्। म० १। हे ऐश्वर्यवन्। वरुण। म० १। हे परमेश्वर ! मन्यवे। म० १। क्रोधाय, क्रोधरूपाय। नि-चिकेषि। कि ज्ञाने-लट्, जुहोत्यादिः, शपः श्लुः। त्वं नितरां जानासि। द्रुग्धम्। द्रुह जिघांसायाम्−भावे-क्त। द्रोहम्, अपराधम्। सहस्रम्। सहो बलमस्त्यस्मिन्, सहस्+प्रत्ययो मत्वर्थे। बहुनाम, निघ० ३।१। बहून्, अनेकान्। अन्यान्। माछाशसिभ्यो यः। उ० ४।१०९। इति अन प्राणने, जीवने−य प्रत्ययः। अनिति जीवतीति अन्यः। जीवान्, प्राणिनः। इतरान् वा। प्र+सुवामि। षूङ्, प्रेरणे, तुदादिः, ङित्वाद् गुणप्रतिषेधे उवङ्। प्रकर्षेण प्रेरयामि, ऊर्ध्वं नयामि, उपकरोमि। साकम्। इण्भीकापा०। उ० ३।४३। इति षो अन्तकर्मणि-कन्। सह, समम्। शतम्। बहुनाम, निघ० ३।१। बह्वीः। जीवाति। जीव प्राणधारणे−लेट्, लेटोऽडाटौ। पा० ३।४।९४। इति आडागमः। जीवेत्। शरदः। श्रॄदॄभसोऽदिः। उ० १।१३०। इति शॄ हिंसायाम्−अदि। कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे। पा० २।३।५। इति द्वितीया। आश्विनकार्तिकमासयुक्तान् ऋतुविशेषान्। संवत्सरान् ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(বরুণ) হে অতি শ্রেষ্ঠ (রাজন্) ঐশ্বর্যবান প্রভো! (মন্যবো) ক্রোধরূপ (তে) তোমাকে (নমঃ অস্ত্র) নমস্কার। (উগ্র) হে প্রচণ্ড ! তুমি (বিশ্বম্) সব (দ্রুগ্ধং) দ্রোহকে (হি) ই (নি-চিকেষি) সদা অবগত আছ । (সহস্রং) সহস্র (অন্যান্) অন্য জীবকে (সাকং) একসঙ্গে (প্রসুবামি) উন্নত করাইতেছি। (তে) তোমার (অয়ম্) এই ভক্ত (শতং) শত (শরদঃ) শরৎ ঋতু (জীবাতি) এই ভক্ত থাকুক।।
भावार्थ
হে সর্বশ্রেষ্ঠ ঐশ্বর্যবান পরমাত্মন! অন্যায়াচরণের বিরুদ্ধে ক্রোধরূপ তোমাকে নমস্কার । হে প্রচণ্ড! তুমি সর্ববিধ দ্রোহকেই অবগত আছ। আমি একই সঙ্গে সহস্র সহস্র প্রাণীর উন্নতি বিধান করিতেছি। তোমার এই ভক্ত শত বর্ষ পর্যন্ত জীবিত থাকুক।।
मन्त्र (बांग्ला)
নমস্তে রাজন্ বরুণস্তু মন্যবে বিশ্বং হ্যগ্র নিচিকেষি দ্রুগ্ধম্ । সহস্র মন্যান্ প্রসুবামি সাকং শতং জাবাতি শরদস্তবায়ম্।।
ऋषि | देवता | छन्द
অর্থবা। বরুণঃ। ত্রিষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(বরুণস্য ক্রোধঃ প্রচণ্ডঃ) বরুণের প্রচণ্ড ক্রোধ
भाषार्थ
(বরুণ) হে অতিশ্রেষ্ঠ (রাজন্) বড় ঐশ্বর্যবান রাজা, (তে) তোমার (মন্যবে) ক্রোধরূপকে (নমঃ) নমস্কার (অস্তু) জানাই, (উগ্র) হে প্রচণ্ড ! তুমি (বিশ্বম্) সব (হি) ই (দ্রুগ্ধম্) দ্রোহ/মারাত্মকতা-কে (নি-চিকেষি) সদা জানো। [আমি] (সহস্রম্) সহস্র (অন্যান্) অনান্য জীবকে (সাকম্) এক সাথে (প্রসুবামি) অগ্ৰগামী করি, (তে) তোমার (অয়ম্) এই [সেবক] (শতম্) শত (শরদঃ) শরৎ ঋতু পর্যন্ত (জীবাতি) বেঁচে থাকুক ॥২॥
भावार्थ
সর্বজ্ঞ পরমেশ্বরের মহা ক্রোধকে ভয় মেনে মনুষ্য পাপ ও পাপীদের থেকে আলাদা হোক এবং সকলের সাথে উপকার করে সারা জীব আনন্দ ভোগ করুক ॥২॥
भाषार्थ
(বরুণ রাজন্) হে বরুণ রাজন্ ! (তে) তোমার (মন্যবে) মন্যুর প্রতি (নমঃ অস্তু) প্রহ্বীভাব হোক, (হি) যতঃ (উগ্র) হে উগ্র ! (বিশ্বং দ্রুগ্ধম্) সব প্রকারের দ্রোহ ভাবকে (নিচিকেষি) তুমি জানো, (সহস্রম্ অন্যান্ সাকম্) অন্য সহস্র নমস্কারকে একসাথে (প্র সুবামি) আমি তোমার প্রতি প্রেরিত করি, যাতে (তব) তোমার (অয়ম্) এই উপাসক (শতম্ জীবাতি) শত বর্ষ পর্যন্ত জীবিত হয়/থাকে।
टिप्पणी
[নমঃ=ণম প্রহ্বত্বে শব্দে চ (ভ্বাদিঃ)। প্রহ্বীভাব তথা নমস্কার শব্দ। অন্যান্= প্রহ্বীভাব থেকে ভিন্ন নমস্কার। নিচিকেষি= কি জ্ঞানে (জুহোত্যাদিঃ)। তে = তোমার এই উপাসক।]
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