अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 1
ऋषिः - अथर्वा
देवता - पूषादयो मन्त्रोक्ताः
छन्दः - पङ्क्तिः
सूक्तम् - नारीसुखप्रसूति सूक्त
4
वष॑ट्ते पूषन्न॒स्मिन्त्सूता॑वर्य॒मा होता॑ कृणोतु वे॒धाः। सिस्र॑तां॒ नार्यृ॒तप्र॑जाता॒ वि पर्वा॑णि जिहतां सूत॒वा उ॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवष॑ट् । ते॒ । पू॒ष॒न् । अ॒स्मिन् । सूतौ॑ । अ॒र्य॒मा । होता॑ । कृ॒णो॒तु॒ । वे॒धा: । सिस्र॑ताम् । नारी॑ । ऋ॒तऽप्र॑जाता । वि । पर्वा॑णि । जि॒ह॒ता॒म् । सूत॒वै । ऊं इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वषट्ते पूषन्नस्मिन्त्सूतावर्यमा होता कृणोतु वेधाः। सिस्रतां नार्यृतप्रजाता वि पर्वाणि जिहतां सूतवा उ ॥
स्वर रहित पद पाठवषट् । ते । पूषन् । अस्मिन् । सूतौ । अर्यमा । होता । कृणोतु । वेधा: । सिस्रताम् । नारी । ऋतऽप्रजाता । वि । पर्वाणि । जिहताम् । सूतवै । ऊं इति ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सृष्टिविद्या का वर्णन।
पदार्थ
(पूषन्) हे सर्वपोषक, परमेश्वर ! (ते) तेरे लिये (वषट्) यह आहुति [भक्ति] है। (अस्मिन्) इस समय पर (सूतौ) सन्तान के जन्म को (अर्यमा) न्यायकारी, (होता) दाता, (वेधाः) सबका रचनेवाला ईश्वर (कृणोतु) करे। (ऋतप्रजाता) पूरे गर्भवाली (नारी) नर का हित करनेहारी स्त्री (सिस्रताम्) सावधान रहे, (पर्वाणि) इस के सब अङ्ग (उ) भी (सूतवै) सन्तान उत्पन्न करने के लिये (विजिहताम्) कोमल हो जावें ॥१॥
भावार्थ
प्रसव का समय होने पर पति आदि विद्वान् लोग परमेश्वर की भक्ति के साथ हवनादि कर्म प्रसूता स्त्री की प्रसन्नता के लिये करें और वह स्त्री सावधान होकर श्वास-प्रश्वास आदि द्वारा अपने अङ्गों को कोमल रक्खे, जिससे बालक सुखपूर्वक उत्पन्न होवे ॥१॥ टिप्पणी−इस सूक्त में माता से सन्तान उत्पन्न होने का उदाहरण देकर बताया गया है कि मनुष्य सृष्टि विद्या के ज्ञान से ईश्वर की अनन्त महिमा का विचार करके परस्पर उपकारी बनें ॥
टिप्पणी
१−वषट्। वह प्रापणे−डषटि। इति शब्दस्तोममहानिधौ। आहुतिः, हविर्दानम्। भक्तिः। स्वाहा। पूषन्। १।९।१। पुष्णातीति पूषा। हे सर्वपोषक, परमेश्वर। अस्मिन्। अस्मिन् काले, इदानीम्। सूतौ। षूङ् प्राणिप्रसवे-क्तिन्। सुपां सुपो भवन्तीति वक्तव्यम्। वार्तिकम्, पा० ७।१।३९। इति द्वितीयार्थे सप्तमी। प्रसवकर्म, जन्म। अर्यमा। ऋ गतौ-यत्। अर्यः श्रेष्ठः। श्वनुक्षन्पूषन्०। उ० १।१५९। इति अर्य+मा माने-कनिन्। अर्य्यान् श्रेष्ठान् मिमीते मानयतीति। यथार्थज्ञाता, न्यायकारी होता। नप्तृनेष्टृत्वष्टृहोतृ। उ० २।९६। इति हु दानादानादनेषु। यद्वा ह्वेञ् आह्वाने-तृन्। नित्त्वाद् आद्युदात्तः। दाता। होमकर्त्ता, ऋत्विक्, आह्वाता। कृणोतु। कृवि हिंसाकरणयोः−लोट्। भवान् पूषा उपकरोतु। वेधाः। विधाञो वेध च। उ० ४।२२५। वि+धाञ् धारणपोषणदानेषु−असि, वेधादेशः। विशेषेण दधातीति। ब्रह्मा, चतुर्वेदवेत्ता। मेधावी−निघ० ३।१५। विधाता, रचयिता। सिस्रताम्। सृ गतौ−लोट्, आत्मनेपदम् जुहोत्यादित्वात् शपः श्लुः। अभ्यासस्य इत्त्वम् पुनरपि विकरणः शः। गच्छतु, सावधाना सुखप्रसूता वा भवतु। नारी। ऋतोऽञ्। पा० ४।४।४९। इति नृ नीतौ−अञ्। नृणाति नयतीति नरः। नराच्चेति वक्तव्यम्। तत्र वार्त्तिकम्। नर−अञ्। शार्ङ्गरवाद्यञो ङीन्। पा० ४।१।७३। इति ङीन्। नुर्नरस्य वा धर्म्या। नारी धर्माचारयुक्ता। स्त्री, वधूः। ऋत-प्रजाता। अर्शआदिभ्योऽच्। पा० ५।२।१२७। इति ऋत+प्रजात-अच्, टाप्। ऋतं सत्यं प्रजातं प्रजननमस्त्यस्याः। सत्यप्रसवा, उचितसमयप्रसूता, जीवदपत्या। पर्वाणि। पर्व गतौ-कनिन्। यद्वा स्नामदिपद्यर्त्तिपॄशकिभ्यो वनिप्। उ० ४।११३। इति पॄ पूर्त्तौ पालने च-वनिप्। शरीरग्रन्थयः, देहसन्धयः। वि+जिहताम्। ओहाङ् गतौ−लोट् बहुवचनम्, जुहोत्यादिः। विशेषेण गच्छन्तु कोमलानि सुखप्रसवयोग्यानि भवन्तु। सूतवै। तुमर्थे सेसेन्०। पा० ३।४।९। इति षूङ् प्राणिगर्भविमोचने तवै प्रत्ययः। प्रसवार्थम् ॥
विषय
पुरुष 'अर्यमा' हो, स्त्री 'ऋतप्रजाता'
पदार्थ
१. हे (पूषन्) = सबका पोषण करनेवाले प्रभो ! (ते वषट्) = आपके लिए हम अपना अर्पण करते हैं। (अस्मिन् सूतौ) = इस सन्तानोत्पत्ति के कार्य में (अर्यमा) = [अरीन यच्छति] काम-क्रोध आदि का विजेता, (होता) = दानपूर्वक अदन करने-[खाने]-वाला, यज्ञशेष का सेवन करनेवाला, (वेधा:) = बुद्धिपूर्वक कार्यों का करनेवाला व्यक्ति (कृणोतु) = साहाय्य करे। अर्यमा, होता व बेधा पुरुष की सन्ताने उत्तम तो होती ही हैं। इस पुरुष की सन्ताने उत्पन्न भी सुखपूर्वक होती हैं। २. (प्रस्तप्रजाता) = पूर्णतया ऋत के अनुसार सन्तानों को जन्म देनेवाली [ऋतेन प्रजाता] (नारी) = यह उन्नति-पथ पर चलनेवाली स्त्री (सिस्त्रताम्) = ठीक से गति करे। यह सूतवा उ उत्पत्ति के लिए निश्चय से (पर्वाणि) = अङ्ग-सन्धियों को (विजिहताम्) = शिथिल करे। इसके अङ्गों में तनाव न हो, यह उन्हें ढीला छोड़नेवाली हो, जिससे सन्तान-उत्पत्ति सुविधा से हो सके। ३. गृहस्थ के पच्चीस वर्षों में अधिक-से-अधिक दस सन्तानों का विधान है। एवं, एक सन्तान के बाद दूसरी सन्तान में ढाई वर्ष का अन्तर आवश्यक है। कम-से-कम इतने अन्तर से सन्तानों को जन्म देनेवाली नारी ही 'ऋतप्रजाता' है। पुरुष कामादि को वश में करनेवाला, यज्ञशेष का सेवन करनेवाला तथा बुद्धिमत्ता से कार्यों को करनेवाला हो और नारी 'ऋतप्रजाता' हो तो सन्तान अवश्य सुख से होंगे। इस कार्य के लिए स्त्री के लिए भी आवश्यक है कि वह दैनिक कार्यक्रम को ठीक से करे और अङ्ग-पों में तनाव उत्पन्न न होने दे। ४. पति-पत्नी के लिए प्रभु के प्रति अपना अर्पण करना तो आवश्यक है ही।
भावार्थ
सुख-प्रसव के लिए आवश्यक है कि [क] पति-पत्नी प्रभु के प्रति अपना समर्पण करनेवाले हों, [ख] पुरुष काम से अनभिभूत, यज्ञशेष का सेवी और बुद्धिमान् हो, [ग] नारी कम-से-कम ढाई वर्ष के अन्तर से सन्तान को जन्म देनेवाली हो। दैनिक कार्यक्रम में ठीक रहे। अङ्ग-पों में तनाव उत्पन्न न होने दे। -
भाषार्थ
(पूषन्) हे पुष्टि करनेवाले ! (अस्मिन्: सूतौ) इस प्रसूति-यज्ञ में (अर्यमा) आर्यों का मान करनेवाला, (वेधाः) और यज्ञविधि का विधान करनेवाला, (होता) आहुति देनेवाला ऋत्विक् (ते ) तेरे लिये ( वषट्) वषट् शब्द का उच्चारण करके (कृणोतु) आहुति प्रदान करे। (ऋतप्रजाता१) सत्यनियमानुसार प्रजन करनेवाली गर्भवती हुई (नारी) नारी (सिस्रताम्) अङ्गों में ढीली हो जाय, (पर्वाणि) जोड़ (विजिहताम्) खुल जाये, [वि+ हाङ् गतौ], (सूत उ) प्रसूति के लिये।
टिप्पणी
[वषट्, वौषट् तथा बह समानार्थक हैं। तीनों पद "वह" धातु के रूप हैं। "वह प्रापणे" (भ्वादिः)। वषट्=वह +सत् (अस्+शतृ) + हकार का लोप। वौषट् = वह के हकार को "ऊठ्" करके "वृद्धि" + सत् (अस् + शतृ) अथवा वकार के उत्तरवर्ती अकार को प्लुत औकार। वह प्रापणे (भ्वादिः) पूषन्=पुष्टि करनेवाला परमेश्वर। प्रसव क्रिया से पूर्व परमेश्वर के नाम पर यज्ञ किया है। उसका निर्देश अस्मिन् द्वारा हुआ है। प्रसूतियज्ञ है जातकर्म संस्कार।] [१. ऋतम् सत्यनाम (निघं० ३।७)। प्रजाता=कर्तरि क्तः ।]
विषय
सुखपूर्वक प्रसवविद्या ।
भावार्थ
इस सूक्त में गर्भिणी के उपचार अर्थात् सुख से प्रसव कराने और पुत्रजनन विज्ञान और प्रसव कर्म का उपदेश किया है । हे पूषन् ? स्त्री आदि के पोषक गृहपते ! (अस्मिन्) इस (सूतौ) बालप्रसव कार्य में ( वेधाः ) प्रसव कराने वाला विद्वान् (अर्यमा) श्रेष्ठ अर्थात् श्रेष्ठ विचार और श्रेष्ठ कर्मों वाला ( होता ) इस प्रसव-यज्ञ में होता अर्थात् सन्तान को बुलाने वाला होकर ( ते ) तेरे लिये ( वषट् कृणोतु ) सन्तति का वहन कार्य करे अर्थात् सन्तति को गर्भ से बाहर निकाले । जिससे (नारी ) स्त्री (ऋतप्रजाता) ठीक रीति से जीवित बालक को प्रसव करने हारी होकर ( सिस्रतां ) बालक को जने । और स्त्री के शरीर के ( पर्वाणि ) सन्धिस्थान ( सूतवा ) सुखपूर्वक प्रसव करने के लिये ( विजिहतां ) विशेषरूप से ढीले हो जाय ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः पूषा देवता । १ पंक्तिश्छन्दः, २ अनुष्टुप् ३ उष्णिगर्भा ककुम्मती अनुष्टुप्, ४–६, पथ्यापंक्तिः । षड़र्चं सूक्तम् ।
इंग्लिश (4)
Subject
Easy Delivery
Meaning
O Pusha, spirit of life’s procreation, for the expectant mother, may every thing be good and auspicious in this child birth. May Aryama, creative law of nature, hota, the father, Vedha, the specialist physician, all be good and helpful and auspicious. May the mother give birth to the baby comfortably. May she relax all over her body system.
Subject
Pusan etc,
Translation
O nourisher Lord, dedication (vasat) to you. At this birth let the close companion (aryaman, the gyanocologist) act as a wise accomplisher. May this lady who has been bearing children in the past in a normal way, start- bring forth her child this time also. Let her relax her limbs for child-birth.
Translation
O' Pushan (the householding man) in the task of child delivery the expert of maternity, the physician and the person knowing the nursing do the work for your good. The parturient woman give birth to child. The joints of her become loose to facilitate delivery.
Translation
O God, we dedicate ourselves to Thee! May Thou, the Friend of the noble, the Creator of the universe, the Giver of all joys, help us in this child birth, Let this dame, who knows the laws of eugenics, remain cautious and Keep her organs loose and tender.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−वषट्। वह प्रापणे−डषटि। इति शब्दस्तोममहानिधौ। आहुतिः, हविर्दानम्। भक्तिः। स्वाहा। पूषन्। १।९।१। पुष्णातीति पूषा। हे सर्वपोषक, परमेश्वर। अस्मिन्। अस्मिन् काले, इदानीम्। सूतौ। षूङ् प्राणिप्रसवे-क्तिन्। सुपां सुपो भवन्तीति वक्तव्यम्। वार्तिकम्, पा० ७।१।३९। इति द्वितीयार्थे सप्तमी। प्रसवकर्म, जन्म। अर्यमा। ऋ गतौ-यत्। अर्यः श्रेष्ठः। श्वनुक्षन्पूषन्०। उ० १।१५९। इति अर्य+मा माने-कनिन्। अर्य्यान् श्रेष्ठान् मिमीते मानयतीति। यथार्थज्ञाता, न्यायकारी होता। नप्तृनेष्टृत्वष्टृहोतृ। उ० २।९६। इति हु दानादानादनेषु। यद्वा ह्वेञ् आह्वाने-तृन्। नित्त्वाद् आद्युदात्तः। दाता। होमकर्त्ता, ऋत्विक्, आह्वाता। कृणोतु। कृवि हिंसाकरणयोः−लोट्। भवान् पूषा उपकरोतु। वेधाः। विधाञो वेध च। उ० ४।२२५। वि+धाञ् धारणपोषणदानेषु−असि, वेधादेशः। विशेषेण दधातीति। ब्रह्मा, चतुर्वेदवेत्ता। मेधावी−निघ० ३।१५। विधाता, रचयिता। सिस्रताम्। सृ गतौ−लोट्, आत्मनेपदम् जुहोत्यादित्वात् शपः श्लुः। अभ्यासस्य इत्त्वम् पुनरपि विकरणः शः। गच्छतु, सावधाना सुखप्रसूता वा भवतु। नारी। ऋतोऽञ्। पा० ४।४।४९। इति नृ नीतौ−अञ्। नृणाति नयतीति नरः। नराच्चेति वक्तव्यम्। तत्र वार्त्तिकम्। नर−अञ्। शार्ङ्गरवाद्यञो ङीन्। पा० ४।१।७३। इति ङीन्। नुर्नरस्य वा धर्म्या। नारी धर्माचारयुक्ता। स्त्री, वधूः। ऋत-प्रजाता। अर्शआदिभ्योऽच्। पा० ५।२।१२७। इति ऋत+प्रजात-अच्, टाप्। ऋतं सत्यं प्रजातं प्रजननमस्त्यस्याः। सत्यप्रसवा, उचितसमयप्रसूता, जीवदपत्या। पर्वाणि। पर्व गतौ-कनिन्। यद्वा स्नामदिपद्यर्त्तिपॄशकिभ्यो वनिप्। उ० ४।११३। इति पॄ पूर्त्तौ पालने च-वनिप्। शरीरग्रन्थयः, देहसन्धयः। वि+जिहताम्। ओहाङ् गतौ−लोट् बहुवचनम्, जुहोत्यादिः। विशेषेण गच्छन्तु कोमलानि सुखप्रसवयोग्यानि भवन्तु। सूतवै। तुमर्थे सेसेन्०। पा० ३।४।९। इति षूङ् प्राणिगर्भविमोचने तवै प्रत्ययः। प्रसवार्थम् ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(পূষন্) হে সর্ব পোষক পরমাত্মন! (তে) তোমার জন্য (বষট্) এই আহুতি প্রদান করিতেছি। (অস্মিন্) এই সময়ে (সূতৌ) সন্তানের জন্মকে (অর্রমা) ন্যায়বান (হোতা) দাতা (বেধাঃ) রচয়িতা (কৃণীতু) সম্পাদন করুন। (ঋত প্রজতা) পূর্ণ গর্ভবতী (নারী) স্ত্রী (সিস্প্রতাং) সাবধানে থাকুক (পূর্বাণি) অঙ্গ প্রত্যঙ্গ সমূহ (উ) ও (সূতবৈ) সন্তান উৎপাদন হেতু (বিজিহতাম্) কোমর হউক।।
भावार्थ
হে সর্ব পোষক পরমাত্মন! তোমার উদ্দেশেই আত্মনিবেদন করিতেছি। ন্যায়বান, দাতা, রচয়িতা পরমাত্মা এই সময় সন্তানের জন্ম বিধান করুন। পূর্ণ গর্ভা স্ত্রী সাবধানে থাকুক। ইহার অঙ্গ প্রতাঙ্গাদি সন্তানোৎপাদন হেতু কোমল হউক।।
প্রসব কালে আত্মীয়রা ঈশ্বর ভক্তির সহিত হোম করিয়া স্ত্রীকে প্রসন্ন করিবে। স্ত্রী শ্বাস প্রশ্বাস দ্বারা অতি সাবধানে অঙ্গকে কোমল রাখিবে। ইহাতে সন্তান শান্তির সহিত ভূমিষ্ঠ হইবে।।
मन्त्र (बांग्ला)
বর্ষট্ তে পূষন্নস্মিনৎ সূতাবয়মা হোতা কৃণীতু বেধাঃ । সিপ্রতাং নায়ত প্রজাতা বি পর্বাণি জিহতাং সূতবা উ।।
ऋषि | देवता | छन्द
অর্থবা। পৃষাদয়ো মন্তোক্তাঃ। পঙক্তিঃ
मन्त्र विषय
(সৃষ্টি বিদ্যা বর্ণনম্) সৃষ্টিবিদ্যার বর্ণনা
भाषार्थ
(পূষন্) হে সর্বপোষক, পরমেশ্বর ! (তে) আপনার জন্যই (বষট্) এই আহুতি [ভক্তি]। (অস্মিন্) এই সময়ে (সূতৌ) সন্তানের জন্মকে (অর্যমা) ন্যায়কারী, (হোতা) দাতা, (বেধাঃ) সবকিছুর রচয়িতা ঈশ্বর (কৃণোতু) করুন। (ঋতপ্রজাতা) পূর্ণ গর্ভবতী (নারী) মানুষের হিতকর স্ত্রী (সিস্রতাম্) সাবধান থেকো, (পর্বাণি) এর সমস্ত অঙ্গ (উ) ও (সূতবৈ) সন্তান উৎপন্ন করার জন্য (বিজিহাতাম্) কোমল হোক/হয়ে যাক ॥১॥
भावार्थ
প্রসবসময় হলে পতি আদি বিদ্বানগণ পরমেশ্বরের ভক্তির সাথে হবনাদি কর্ম প্রসূতা স্ত্রীর প্রসন্নতার জন্য করুক এবং সেই স্ত্রী সাবধান হয়ে শ্বাস-প্রশ্বাস আদি দ্বারা নিজের অঙ্গকে কোমল রাখুক, ফলে বালক সুখপূর্বক উৎপন্ন হবে ॥১॥ টিপ্পণী−এই সূক্তে মাতার থেকে সন্তান উৎপন্ন হওয়ার উদাহরণ দিয়ে বলা হয়েছে যে মনুষ্য সৃষ্টি বিদ্যার জ্ঞান দিয়ে ঈশ্বরের অনন্ত মহিমার বিচার করে পরস্পর উপকারী হোক ॥
भाषार्थ
(পূষন্) হে পুষ্টিকারক ! (অস্মিন্ঃ সূতৌ) এই প্রসূতি-যজ্ঞে (অর্যমা) আর্যদের সম্মানকারী, (বেধাঃ) এবং যজ্ঞবিধির বিধানকারী/বিধাতা, (হোতা) আহুতি প্রদানকারী ঋত্বিক্ (তে) তোমার জন্য (বষট্) বষট্ শব্দের উচ্চারণ করে (কৃণোতু) আহুতি প্রদান করে/করুক। (ঋতপ্রজাতা১) সত্যনিয়মানুসারে প্রজননকারী গর্ভবতী (নারী) নারী (সিস্রতাম্) অঙ্গ-অঙ্গ শিথিল হোক/হয়ে যাক, (পর্বাণি) জোড়/পর্ব-পর্ব (বিজিহতাম্) খুলে যাক/মুক্ত হোক, [বি+ হাঙ্ গতৌ], (সূতবৈ উ) প্রসূতির জন্য।
टिप्पणी
[বষট্, বৌষট্ এবং বহ সমানার্থক। তিনটি পদ "বহ" ধাতুর রূপ। "বহ প্রাপণে" (ভ্বাদিঃ)। বষট্=বহ +সৎ (অস্+শতৃ) + হকার-এর লোপ। বৌষট্ = বহ-এর হকারকে "ঊঠ্" করে "বৃদ্ধি" + সৎ (অস্ + শতৃ) অথবা বকার-এর উত্তরবর্তী অকারকে প্লুত ঔকার। বহ প্রাপণে (ভ্বাদিঃ) পূষন্=পুষ্টিকারক পরমেশ্বর। প্রসব ক্রিয়ার পূর্বে পরমেশ্বরের নামে যজ্ঞ করা হয়েছে। সেটার নির্দেশ অস্মিন্ দ্বারা হয়েছে। প্রসূতিযজ্ঞ হল জাতকর্ম সংস্কার।] [১. ঋতম্ সত্যনাম (নিঘং০ ৩।৭)। প্রজাতা=কর্তরি ক্তঃ।]
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