अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 1
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - यक्ष्मनाशनम्
छन्दः - जगती
सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त
16
ज॑रायु॒जः प्र॑थ॒म उ॒स्रियो॒ वृषा॑ वातभ्र॒जा स्त॒नय॑न्नेति वृ॒ष्ट्या। स नो॑ मृडाति त॒न्व॑ ऋजु॒गो रु॒जन्य एक॒मोज॑स्त्रे॒धा वि॑चक्र॒मे ॥
स्वर सहित पद पाठज॒रा॒यु॒ऽज: । प्र॒थ॒म: । उ॒स्रिय॑: । वृषा॑ । वात॑ऽभ्रजा: । स्त॒नय॑न् । ए॒ति॒ । वृ॒ष्ट्या । स: । न॒: । मृ॒डा॒ति॒ । त॒न्वे । ऋ॒जु॒ऽग: । रु॒जन् । य: । एक॑म् । ओज॑: । त्रे॒धा । वि॒ऽच॒क्र॒मे ॥
स्वर रहित मन्त्र
जरायुजः प्रथम उस्रियो वृषा वातभ्रजा स्तनयन्नेति वृष्ट्या। स नो मृडाति तन्व ऋजुगो रुजन्य एकमोजस्त्रेधा विचक्रमे ॥
स्वर रहित पद पाठजरायुऽज: । प्रथम: । उस्रिय: । वृषा । वातऽभ्रजा: । स्तनयन् । एति । वृष्ट्या । स: । न: । मृडाति । तन्वे । ऋजुऽग: । रुजन् । य: । एकम् । ओज: । त्रेधा । विऽचक्रमे ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ईश्वर के गुण।
पदार्थ
(जरायुजः) झिल्ली से [जरायुरूप प्रकृति से] उत्पन्न करनेवाला, (प्रथमः) पहले से वर्तमान, (उस्रियः) प्रकाशवान् [हिरण्यगर्भनाम], (वातभ्रजाः) पवन के साथ पाकशक्ति वा तेज देनेवाला, (वृषा) मेघरूप परमेश्वर (स्तनयन्) गरजता हुआ (वृष्ट्या) बरसा के साथ (एति) चलता रहता है। (सः) वह (ऋजुगः) सरलगामी (रुजन्) [दोषों को] मिटाता हुआ, (नः) हमारे (तन्वे) शरीर के लिये (मृडाति) सुख देवे, (यः) जिस (एकम्) अकेले (ओजः) सामर्थ्य ने (त्रेधा) तीन प्रकार से (विचक्रमे) सब ओर को पद बढ़ाया था ॥१॥
भावार्थ
जैसे माता के गर्भ से जरायु में लिपटा हुआ बालक उत्पन्न होता है, वैसे ही (उस्रियः) प्रकाशवान् हिरण्यगर्भ और मेघरूप परमेश्वर (वातभ्रजाः) सृष्टि में प्राण डालकर पाचनशक्ति और तेज देता हुआ सब संसार को प्रलय के पीछे प्रकृति, स्वभाव, वा सामर्थ्य से उत्पन्न करता है, वही त्रिकालज्ञ और त्रिलोकीनाथ आदि कारण जगदीश्वर हमें सदा आनन्द देवे ॥१॥ यजुर्वेद में इस प्रकार वर्णन है−य० १३।४ ॥ हि॒र॒ण्य॒ग॒र्भः सम॑वर्त॒ताग्रे॑ भू॒तस्य॑ जा॒तः पति॒रेक॑ आसीत्। स दा॑धार पृथि॒वीं द्यामु॒तेमां कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥ (हिरण्यगर्भः) तेजों का आधार परमेश्वर पहिले ही पहिले नियमपूर्वक वर्तमान था, वह संसार का प्रसिद्ध एक स्वामी था। उसने इस पृथिवी और प्रकाश को धारण किया था, हम सब उस प्रकाशमय प्रजापति परमेश्वर की भक्ति से सेवा किया करें ॥ और भी देखो ऋ० १।२२।१७। इ॒दं विष्णु॒र्विच॑क्रमे त्रे॒धा निद॑धे प॒दम्। समू॑ढमस्य पांसुरे ॥ (विष्णु) व्यापक परमेश्वर ने इस [जगत्] में अनेक-अनेक प्रकार से पग को बढ़ाया, उसने अपने विचारने योग्य पद को तीन प्रकार से परमाणुओं से युक्त [संसार] में जमाया ॥ सायणभाष्य में (वातभ्रजाः) के स्थान में (वातव्रजाः) शब्द और अर्थ “वायुसमान शीघ्रगामी” है ॥
टिप्पणी
१−जरायुजः। पञ्चम्यामजातौ। पा० ३।२।९८। इति जरायु+जन जननप्रादुर्भावयोः−ड। जरायोः प्रकृतिरूपाद् गर्भाशयाज्जनयति उत्पादयति सः। जरायुरूपायाः प्रकृतेः सृष्टिजनयिता। प्रथमः। प्रथेरमच्। उ० ५।६८। इति, प्रथ ख्यातौ−अमच्। आदिमः, जगतः पूर्वं वर्तमानः। उस्रियः। स्फायितञ्चि०। उ० २।१३। इति वस निवासे−रक्। वसत्येषु सूर्यादिपरतेजः, वसन्त्येषु रसा इति उस्राः किरणाः, ततो मत्वर्थीयो घः। रश्मिवान्, हिरण्यगर्भः। परमेश्वरः। वृषा। कनिन् युवृषितक्षि० उ० १।१५६। इति वृषु सेचने, प्रजनैश्वर्ययोः−कनिन्। नित्वाद् आद्युदात्तः। वर्षकः। ऐश्वर्यवान्। इन्द्रः, सूर्यः, मेघः। तद्वद् वर्तमानः। वातभ्रजाः। वात+भ्रस्ज-पाके वा भ्राज दीप्तौ-असुन्। वातेन सह पाकः, दीप्तिस्तेजो वा यस्य स वातभ्रजाः। स्तनयन्। स्तन देवशब्दे, चुरादिः-, शतृ। गर्जयन्। एति। गच्छति। वृष्ट्या। वृषु सेचने-क्तिन्। वर्षणेन। मृडाति। मृड सुखने-लेट्, आडागमः। सुखयेत्। तन्वे। १।१।१। स्वरितश्च। शरीराय। ऋजुगः। ऋजु+गम्लृ-ड। सरलगामी। रुजन्। रुजो भङ्गे, तुदादिः−शतृ। भञ्जन्, दोषान् निवारयन्। एकम्। इण् भीकापा०। उ० ३।४३। इति इण् गतौ-कन्। एति सर्वं व्याप्नोतीति एकः। मुख्यम्, केवलम्। ओजः। उब्जेर्बले बलोपश्च। उ० ४।१९२। इति उब्ज आर्जवे−असुन्। बलम्, तेजः। त्रेधा। संख्याया विधार्थे धा। पा० ५।३।४२। त्रिप्रकारेण, भूतवर्तमानभविष्यति वर्तमानत्वेन, त्रिलोक्यां व्यापनेन। वि-चक्रमे। क्रमु पादविक्षेपे-लिट्, वेः पादविहरणे। पा० १।३।४१। इति आत्मनेपदम्। विविधम् आक्रान्तवान् ॥
विषय
वात व वृष्टि का कारणभूत 'सूर्य'
पदार्थ
१. (जरायुज: प्रथमः) = [जरायु Womb] पृथिवी के गर्भ से सबसे प्रथम उत्पन्न होनेवाला। सूर्य ही तो प्रथम उत्पन्न होता है, उसी का कुछ अंश टूटकर पृथिवी रूप हो गया है। यह सूर्य (उस्त्रियः) = [उस्त्रिया अस्य अस्ति] चमक और प्रकाशमय किरणोंवाला, (वृषा) = वृष्टि का कारणभूत (वातभ्रजा:) = वायु ब अधों [मेघों] को जन्म देनेवाला है। सूर्य की उष्णता से भूमिपृष्ठ गरम होता है। इस गर्मी से वहाँ की वायु गरम होकर फैलती है और हल्की होकर ऊपर उठती है। उसका स्थान लेने के लिए समुद्र की ओर से वायु स्थल की ओर आने लगती है। इसप्रकार वायु में गति होती है। इस गति का कारण सूर्य ही है। जलों के वाष्पीकरण के द्वारा मेघों का निर्माण भी सूर्य से ही होता है। २. यह सूर्य (स्तनयन) = विद्युत् के रूप में गर्जना करता हुआ (वृष्टया) = वृष्टि के साथ (एति) = आता है। धुलोक में प्रभु का जो ओज सूर्यरूप में प्रकट हो रहा है, वही अन्तरिक्ष में विद्युत् के रूप में और पृथिवी पर अग्नि के रूप में प्रकट होता है। एवं विद्युत् के रूप में सूर्यवाला ओज ही गर्जना कर रहा होता है। ३. (स:) = यह सूर्य (नः तन्वे) = हमारे शरीर के लिए (मृडाति) = सुख उत्पन्न करता है। (ऋजुग:) = यह सरल मार्ग से चलता है और (रुजन्) = हमारे शरीर के दोषों को नष्ट करता हुआ अपने मार्ग पर जाता है। सूर्य की किरणें शरीर के दोषों को नष्ट करती ही हैं। यह सूर्य वह है (यः) = जोकि (एकम् ओजः) = एक ही ओज को (त्रेधा) = तीन प्रकार से (वि चक्रमे) = विक्रान्त करता है-[क] इसके ओज से सर्वत्र प्राणशक्ति का सञ्चार होता है, [ख] अन्धकार दूर होता है, सर्वत्र प्रकाश फैलता है तथा [ग] वसन्त आदि ऋतुभेद व सम्पूर्ण काल-व्यवहार का यह कारण बनता है। 'प्राणशक्ति का सञ्चार, प्रकाश का विस्तार व काल का निर्माण'-ये तीन कार्य इस सूर्य के ओज से हो रहे हैं।
भावार्थ
सूर्य वात व वृष्टि का कारण है। वह रोगों को दूर करता है।
भाषार्थ
(प्रथमः) प्रथमकाल से विद्यमान अर्थात् अनादि, (जरायुजः) जीर्ण होनेवाली प्रकृति से प्रकट हुआ, (उस्रिया) किरणोंवाले सूर्यादि का स्वामी, (वृषा) सुखवर्षी, (वातभ्रजाः) वायु और मेघों का उत्पादक, (वृष्ट्या, स्तनयन् एति) वृष्टि के साथ, मेघों को गर्जाता हुआ परमेश्वर आता है, प्रकट होता है [जगत् में ] (ऋजुगः) ऋजु अर्थात् सत्यमार्गगामी (सः) वह (नः तन्वः) हमारी तनुओं को (मृडाति) सुखी करे। (रुजन्) प्रलयकाल में जगत् को भंग करता हुआ (यः) जो परमेश्वर (एकम् ओज:) निज एक ओज को (त्रेधा) तीन प्रकार से (विचक्रमे) विक्षिप्त करता है ।
टिप्पणी
[जरायुजः = तीन अनादि हैं-परमेश्वर, जीवात्मा, प्रकृति। प्रकृति भी अनादि है जोकि त्रिरूपा है, सत्त्व, रजस् और तमोरूपा । यह ओज: रूप है, शक्तिरूप है । परमेश्वर इस द्वारा निज ओज को प्रकट करता है । इसे परमेश्वर ने तीन स्थानों में विभक्त किया है– पृथिवी में, अन्तरिक्ष में तथा द्युलोक में। विचक्रमे= वि + क्रमु पादविक्षेपे (भ्वादिः)। ऋजुगः = ऋजुमार्ग है सत्यमार्ग। यथा "तयोर्यत् सत्यं यतरदृजीयः" (अथर्व० ८।४।१२)। उस्रिया=उस + इयाट्। मन्त्र में परमेश्वर का वर्णन हुआ है, उसे ही नमस्यन्तः द्वारा नमस्कार किया है (अथर्व० १।१२।१), तथा बार-बार नमस्कार किया है (अथर्व० १।१३। १-४ ) । रुजन् =रुजो भंगे (तुदादिः) । सूक्त १२, १३ में परमेश्वर का ही वर्णन है । नमस्कार चेतन को ही किया जाता है । ]
विषय
उत्तम नीरोग सन्तति ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( उस्रियः ) सूर्य की किरणों द्वारा उत्पन्न ( वातभ्रजा ) वात, प्रचण्ड वायु से मथित ( स्तनयन्) ध्वनि या गर्जन करता हुआ मेघ ( वृष्ठ्या ) वृष्टि के साथ आता है उसी प्रकार ( प्रथमः ) प्रथम प्रथम ( जरायुजः ) जरायु से उत्पन्न होने वाला अर्थात् जेर में लिपटा बालक ( उस्रियः ) आदित्य ब्रह्मचारी के तेज से उत्पन्न ( वृषा ) माता पिता को सुख से पूर्ण करता हुआ अथवा हृष्टपुष्ट ( वातभ्रजाः ) गर्भस्थ अपान वायु द्वारा कम्पन करता या कुछ कुछ सरकता हुआ, ( स्तनयन् ) स्तनों को उभारता हुआ ( वृष्ट्या ) योनिमार्ग से जलप्रस्रवणों सहित ( एति ) बाहर आता है। ( सः ) वह ( ऋजुगः ) सरल सीधे मार्ग से निकलता हुआ ( नः ) हमारे, प्रसवकारिणी माताओं के ( तन्वः ) शरीरों को (रुजन्) प्रसवकाल में पीड़ा देकर भी ( मृडाति ) सुख प्रदान करता है और ( यः ) जो बालक ( एकम् ) एक ( ओजः ) ओजः स्वरूप होकर, अर्थात् ब्रह्मचर्याश्रम में ओजस्वी बनकर ( त्रेधा ) तीन प्रकार अर्थात् अगले तीन आश्रमों वा शैशवआदि तीन अवस्थाओं की ओर (विचक्रमे) क्रमशः पग बढ़ाता है ।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘वातभ्रजः’ इति ह्विटनीकामितः पाठः। ‘वातव्रजा’ इति बेबरकामितः ‘व्रातव्रजाः’ इति सायणाभिमतः शं० पा० प्राप्ता दर्शग्रन्थयोर्द्वर्योरुपलभ्यते च ‘वातव्रजाः’ इति। ‘यस्यैकमोज’ इति हिटनीकामितः पाठः ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगवंगिराः ऋषिः। यक्ष्मनाशनो देवता। १,३ जागतं छन्दः । ४ अनुष्टुप चतुऋचं सक्तम् ।
इंग्लिश (4)
Subject
Lavation of Disease
Meaning
The first, born of the sheath of life in the dark womb, it goes forward into life, clad in the rays of light, overflowing, wind impelled, thundering with rain, shattering, straight on, the one living force moving three ways. Benevolent power? May it bless our physical existence. Malevolent? May it spare us in body and mind. Note: This is a mysteriously comprehensive verse in its symbolism. The first one born of ‘Jara’, life sheath in the womb, has been interpreted as the cosmic spirit born of, i.e., manifested from, the darkness darker than the darkest of the Nasadiya sukta of Rgveda, 10, 129, 3 and Devatmashakti of Shvetashvatara Upanishad 1, 3, Svagunair-nigudha, covered under its own primordial potential. It is also interpreted as the sun manifested from the womb of night at dawn or also appearing from the thick cover of dark clouds. It is also interpreted as the cloud of rain born of wind and vapour electrified by thunder. In continuance of the earlier hymn, it is interpreted as the baby. And later it is also interpreted as natal disease born of exposure to sun, wind and rain. Hence the interpretation of ‘mrdati’: Benevolent power? Bless us. Malevolent? Spare us.
Subject
Yaksmi-Disease and Cure
Translation
Born first from the after-birth, a ruddy over-whelming , born of wind and the cloud, it (the puerperal fever) comes thundering with rain. May it spare our body. It goes on straight causing pain. Though being one, it progresses in three forms.
Translation
As the cloud which is formed by the rays of the Sun and churned by the gust of wind, comes onwards, thundering with rain and gives pleasure to our body, so the Vrisha, the Puerperal fever caused by secundines affecting directly creating great sensation and 8iving trouble to body comes onwards. It is only one force which later on cross:is into three regions the mind, the intestine and the bones.
Translation
The Primordial, Refulgent, Dignity-bestowing God, happiness like a cloud, creates the world from the womb of Mother, and reigns supreme, full of strength, showering joy on humanity. He, free from crookedness, averting sins, affords ease to our body, the sole Lord, exists in Past Present and Future.
Footnote
Pt. Jaidev interprets the verse differently. Some commentators apply it to the Sun. I have given Pt. Khem Karan Das Trivedi’s interpretation may also refer to three worlds, the Earth, Space and Sky.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−जरायुजः। पञ्चम्यामजातौ। पा० ३।२।९८। इति जरायु+जन जननप्रादुर्भावयोः−ड। जरायोः प्रकृतिरूपाद् गर्भाशयाज्जनयति उत्पादयति सः। जरायुरूपायाः प्रकृतेः सृष्टिजनयिता। प्रथमः। प्रथेरमच्। उ० ५।६८। इति, प्रथ ख्यातौ−अमच्। आदिमः, जगतः पूर्वं वर्तमानः। उस्रियः। स्फायितञ्चि०। उ० २।१३। इति वस निवासे−रक्। वसत्येषु सूर्यादिपरतेजः, वसन्त्येषु रसा इति उस्राः किरणाः, ततो मत्वर्थीयो घः। रश्मिवान्, हिरण्यगर्भः। परमेश्वरः। वृषा। कनिन् युवृषितक्षि० उ० १।१५६। इति वृषु सेचने, प्रजनैश्वर्ययोः−कनिन्। नित्वाद् आद्युदात्तः। वर्षकः। ऐश्वर्यवान्। इन्द्रः, सूर्यः, मेघः। तद्वद् वर्तमानः। वातभ्रजाः। वात+भ्रस्ज-पाके वा भ्राज दीप्तौ-असुन्। वातेन सह पाकः, दीप्तिस्तेजो वा यस्य स वातभ्रजाः। स्तनयन्। स्तन देवशब्दे, चुरादिः-, शतृ। गर्जयन्। एति। गच्छति। वृष्ट्या। वृषु सेचने-क्तिन्। वर्षणेन। मृडाति। मृड सुखने-लेट्, आडागमः। सुखयेत्। तन्वे। १।१।१। स्वरितश्च। शरीराय। ऋजुगः। ऋजु+गम्लृ-ड। सरलगामी। रुजन्। रुजो भङ्गे, तुदादिः−शतृ। भञ्जन्, दोषान् निवारयन्। एकम्। इण् भीकापा०। उ० ३।४३। इति इण् गतौ-कन्। एति सर्वं व्याप्नोतीति एकः। मुख्यम्, केवलम्। ओजः। उब्जेर्बले बलोपश्च। उ० ४।१९२। इति उब्ज आर्जवे−असुन्। बलम्, तेजः। त्रेधा। संख्याया विधार्थे धा। पा० ५।३।४२। त्रिप्रकारेण, भूतवर्तमानभविष्यति वर्तमानत्वेन, त्रिलोक्यां व्यापनेन। वि-चक्रमे। क्रमु पादविक्षेपे-लिट्, वेः पादविहरणे। पा० १।३।४१। इति आत्मनेपदम्। विविधम् आक्रान्तवान् ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(জরায়ুজঃ) জরায়ুরূপ প্রকৃতি দ্বারা উৎপাদক (প্রথমঃ) প্রথম হইতে বর্তমান (উপ্রিয়ঃ) জ্যোতিষ্মান (বাতভ্রজাঃ) পবনের তেজদাতা (বৃয়া) পরমেশ্বর (স্তনয়ন্) গর্জন করিতে করিতে (বৃষ্ট্যা) বৃষ্টির সহিত (এতি) চালিয়া থাকেন। (সঃ) তিনি (ঋজুগঃ) সরলগামী (রুজন্) দোষকে মিটাইয়া (নঃ) আমাদের (তন্বে) শরীরের জন্য (মৃডাতি) সুখদান করেন। (য়ঃ) যে (একং) এক (ওজঃ) সামর্থই (ত্রেধা) তিন প্রকারে (বিচক্রমে) সব দিকে পাদবিক্ষেপ করিয়াছেন।।
भावार्थ
পরমেশ্বর জরায়ুরূপ প্রকৃতি হইতে জগৎ রচনা করেন। তিনি প্রথম হইতেই বর্তমান আছেন। তিনিই বায়ুকে তেজ দান করিয়াছেন। যেন তিনিই গর্জন করিতে করিতে চলিয়া থাকেন। তিনি মহা দোষকেও মিটাইয়া আমাদের শরীরে সুখ সঞ্চার করেন। তাহার প্রকৃতিরূপ এক সামর্থই স্কুল, সূক্ষ্ম বা কারণ এই তিন ভেদে সর্বত্র বিস্তৃত রহিয়াছে।।
বেদের অন্যত্রও এইরূপ বর্ণনা পাওয়া যায় হিরণ্য গর্ভ সমবর্ত্ততাগ্রে ভূতস্য জাতঃ পতিরেক আসীৎ। সদাধার পৃথিবীং দ্যামুতেমাং কল্মৈ দেবায় হবিষা বিধেম ।। যজু০ ১৩.৪ অর্থাৎ তেজের আধার পরমেশ্বর প্রথম হইতেই নিয়ম পূর্বক বর্তমান আছেন। তিনি সংসারের একমাত্র প্রসিদ্ধ স্বামী। তিনি এই পৃথিবী ও দ্যুলোককে ধারণ করিয়াছেন। আমরা সেই জ্যোতির্ম্ময় প্রজাপতি পরমেশ্বরকে ভক্তি দ্বারা সেবা করি। ইদা বিষ্ণুর্বিচক্রমে ত্রেধা নিদধে পদম্ ।সমূঢ়মস্য পাংসুরে।। [ঋ০ ১.২২.১৭] অর্থাৎ ব্যাপক পরমেশ্বর এই জগতে নানা প্রকারে বিভূতি বিস্তার করিয়াছেন। তিনি স্বীয় বিচারণীয় পদকে তিন প্রকারে এই পরমাণুযুক্ত সংসারে বিস্তৃত করিয়াছেন।
मन्त्र (बांग्ला)
জরায়ুজঃ প্রথম উপ্রিয়ো বৃয়া বাতভ্রজা স্তনয়ন্নেতি বৃষ্ট্যা ৷ সনো মৃডাতি তন্ত্র ঋজুগো রুজ য় একমোজস্ত্রেধা বিচক্ৰমে।।
ऋषि | देवता | छन्द
ভৃগ্বঙ্গিরাঃ। যক্ষ্মনাশনম্। জগতী
मन्त्र विषय
(ঈশ্বরগুণঃ) ঈশ্বরের গুণ
भाषार्थ
(জরায়ুজঃ) ঝিল্লি থেকে [জরায়ুরূপ প্রকৃতি থেকে] উৎপন্নকারী, (প্রথমঃ) প্রথম থেকে বর্তমান, (উস্রিয়ঃ) প্রকাশবান্ [হিরণ্যগর্ভনাম], (বাতভ্রজাঃ) পবনের সাথে পাকশক্তি বা তেজ প্ৰদানকারী, (বৃষা) মেঘরূপ পরমেশ্বর (স্তনয়ন্) গর্জন করে (বৃষ্ট্যা) বর্ষার সাথে (এতি) চলতে থাকেন। (সঃ) তিনি (ঋজুগঃ) সরলগামী (রুজন্) [দোষসমূহ] দূর/দূরীভূত করে, (নঃ) আমাদের (তন্বে) শরীরের জন্য (মৃডাতি) সুখ দেবেন/প্রদান করবেন/করে/, (যঃ) যে (একম্) একাকী (ওজঃ) সামর্থ্য (ত্রেধা) তিন প্রকারে (বিচক্রমে) সমস্ত দিকে পদ বাড়িয়ে ছিলেন/পাদবিক্ষেপ করেছিলেন ॥১॥
भावार्थ
যেভাবে মাতার গর্ভ থেকে জরায়ুতে থাকা সন্তান উৎপন্ন হয়, সেভাবেই (উস্রিয়ঃ) প্রকাশবান্ হিরণ্যগর্ভ ও মেঘরূপ পরমেশ্বর (বাতভ্রজাঃ) সৃষ্টিতে প্রাণ সঞ্চার করে পাচনশক্তি ও তেজ দিয়ে সমস্ত সংসারকে প্রলয়ের পরে প্রকৃতি, স্বভাব, বা সামর্থ্য দ্বারা উৎপন্ন করেন, সেই ত্রিকালজ্ঞ এবং ত্রিলোকীনাথ আদি কারণ জগদীশ্বর আমাদের সদা আনন্দ দেবেন/প্রদান করেন ॥১॥ যজুর্বেদে এই প্রকারের বর্ণনা রয়েছে− য০ ১৩/৪॥ হিরণ্যগর্ভঃ সমবর্ততাগ্রে ভূতস্য জাতঃ পতিরেক আসীৎ। স দাধার পৃথিবীং দ্যামুতেমাং কস্মৈ দেবায় হবিষা বিধেম ॥ (হিরণ্যগর্ভঃ) তেজস্বী পরমেশ্বর প্রথম থেকেই নিয়মপূর্বক ছিলেন, তিনি সংসারের প্রসিদ্ধ এক স্বামী। তিনি এই পৃথিবী এবং প্রকাশ/আলো ধারণ করেছিলেন, আমরা সবাই সেই প্রকাশময় প্রজাপতি পরমেশ্বরের ভক্তির দ্বারা সেবা করি॥ আরোও দেখুন ঋ০ ১।২২।১৭। ইদং বিষ্ণুর্বিচক্রমে ত্রেধা নিদধে পদম্। সমূঢ়মস্য পাংসুরে ॥ (বিষ্ণু) সর্বব্যাপক পরমেশ্বর এই [জগৎ] এ অনেক অনেক প্রকারে পাদবিক্ষেপ করেছেন, তিনি নিজের বিচার যোগ্য পদকে তিন প্রকারে পরমাণুযুক্ত [সংসার] এ স্থিত করেছেন ॥ সায়ণভাষ্যে (বাতভ্রজাঃ) এর স্থানে (বাতব্রজাঃ) শব্দ এবং অর্থ “বায়ুসমান শীঘ্রগামী” রয়েছে ॥
भाषार्थ
(প্রথমঃ) প্রথমকাল থেকে বিদ্যমান অর্থাৎ অনাদি, (জরায়ুজঃ) জীর্ণ হওয়া প্রকৃতি থেকে প্রকটিত, (উস্রিয়ঃ) কিরণসম্পন্ন সূর্যাদির স্বামী, (বৃষা) সুখবর্ষী, (বাতভ্রজাঃ) বায়ু ও মেঘের উৎপাদক, (বৃষ্ট্যা, স্তনয়ন্ এতি) বৃষ্টির সাথে, মেঘকে গর্জিত করে পরমেশ্বর আসেন, প্রকট হন [জগতে] (ঋজুগঃ) ঋজু অর্থাৎ সত্যমার্গগামী (সঃ) তিনি (নঃ তন্বঃ) আমাদের শরীরকে (মৃডাতি) সুখী করেন। (রুজন্) প্রলয়কালে জগৎকে ভঙ্গ করে (যঃ) যে পরমেশ্বর (একম্ ওজঃ) নিজ এক তেজকে (ত্রেধা) তিন প্রকারে (বিচক্রমে) বিক্ষিপ্ত করেন ।
टिप्पणी
[জরায়ুজঃ = তিন অনাদি হল-পরমেশ্বর, জীবাত্মা, প্রকৃতি। প্রকৃতিও অনাদি যা ত্রিরূপা, সত্ত্ব, রজস্ ও তমোরূপা। ইহা ওজঃ রূপ, শক্তিরূপ। পরমেশ্বর-এর দ্বারা নিজ ওজকে প্রকট করে। ইহাকে পরমেশ্বর তিনটি স্থানে বিভক্ত করেছেন– পৃথিবীতে, অন্তরিক্ষে এবং দ্যুলোকে। বিচক্রমে= বি + ক্রমু পাদবিক্ষেপে (ভ্বাদিঃ)। ঋজুগঃ = ঋজুমার্গ হল সত্যমার্গ। যথা "তয়োর্যৎ সত্যং যতরদৃজীয়ঃ" (অথর্ব০ ৮।৪।১২)। উস্রিয়া=উস + ইয়াট্। মন্ত্রে পরমেশ্বরের বর্ণনা হয়েছে, উনাকেই নমস্যন্তঃ দ্বারা নমস্কার করা হয়েছে (অথর্ব০ ১।১২।১), এবং বার-বার নমস্কার করা হয়েছে (অথর্ব০ ১।১৩। ১-৪ )। রুজন্ =রুজো ভঙ্গে (তুদাদিঃ)। সূক্ত ১২, ১৩ এ পরমেশ্বরের বর্ণনা হয়েছে। নমস্কার চেতনকেই করা হয়।]
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