अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 1
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - वरुणो अथवा यमः
छन्दः - ककुम्मत्यनुष्टुप्
सूक्तम् - कुलपाकन्या सूक्त
1
भग॑मस्या॒ वर्च॒ आदि॒ष्यधि॑ वृ॒क्षादि॑व॒ स्रज॑म्। म॒हाबु॑ध्न इव॒ पर्व॑तो॒ ज्योक्पि॒तृष्वा॑स्ताम् ॥
स्वर सहित पद पाठभग॑म् । अ॒स्या॒: । वर्च॑: । आ । अ॒दि॒षि॒ । अधि॑ । वृ॒क्षात्ऽइ॑व । स्रज॑म् ।म॒हाबु॑ध्न:ऽइव । पर्व॑त: । ज्योक् । पि॒तृषु॑ । आ॒स्ता॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
भगमस्या वर्च आदिष्यधि वृक्षादिव स्रजम्। महाबुध्न इव पर्वतो ज्योक्पितृष्वास्ताम् ॥
स्वर रहित पद पाठभगम् । अस्या: । वर्च: । आ । अदिषि । अधि । वृक्षात्ऽइव । स्रजम् ।महाबुध्न:ऽइव । पर्वत: । ज्योक् । पितृषु । आस्ताम् ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विवाहसंस्कार का उपदेश।
पदार्थ
(अस्याः) इस [वधू] से (भगम्) [अपने] ऐश्वर्य को और (वर्चः) तेज को (आ अदिषि) मैंने माना है, (इव) जैसे (वृक्षात् अधि) वृक्ष से (स्रजम्) फूलों की माला को। (महाबुध्नः) विशाल जड़वाले (पर्वतः इव) पर्वत के समान [यह वधू] (पितृषु) [मेरे] माता-पिता आदि बान्धवों में (ज्योक्) बहुत काल तक (आस्ताम्) रहे ॥१॥
भावार्थ
यह वर का वचन है। विद्वान् पुरुष खोज कर अपने समान गुणवती स्त्री से विवाह करके संसार में ऐश्वर्य और शोभा पाता है, जैसे वृक्ष के सुन्दर फूलों से शोभा होती है। वधू अपने सास ससुर आदि माननीयों की सेवा और शिक्षा से दृढ़चित्त होकर घर के कामों का सुप्रबन्ध करके गृहलक्ष्मी की पक्की नेव जमावे और पति पुत्र आदि कुटुम्बियों में बड़ी आयु भोग कर आनन्द करे ॥१॥
टिप्पणी
१−भगम्। पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण। पा० ३।३।११८। इति भज सेवायाम्−घ प्रत्ययः। चजोः कु घिण्ण्यतोः। पा० ७।३।५२। इति घत्वम्। भगः। धननाम निघ० २।१०। श्रियम्, ऐश्वर्यम् कीर्त्तिम्। अस्याः। नवोढायाः स्त्रियाः सकाशात्। वर्चः। १।९।४। रूपम्। तेजः। आ+अदिषि। आङ् पूर्वकात् डुदाञ् आदाने-लुङ्। आङो दोऽनास्यविहरणे। पा० १।३।२०। इति आत्मनेपदम्। अहं गृहीतवान् प्राप्तवानस्मि। अधि। पञ्चम्यर्थानुवादी। उपरि। वृक्षात् इव। १।२।३। इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३५। इति वृक्ष वरणे-क। वृक्ष्यते व्रियते सेव्यते छायाफलार्थम्। विटपाद् यथा। स्रजम्। ऋत्विग्दधृक्स्रग्दिगुष्णिक्०। पा० ३।२।५९। इति सृज विसर्गे−क्विन्। सृजति ददाति शोभामिति स्रक्। पुष्पमालाम्। महाबुध्नः। बन्धेर्ब्रधिबुधी च। उ० ३।५। इति बन्ध बन्धने−नक्, बुधादेशश्च। विशालमूलः, दृढमूलः। पर्वतः। १।१२।३। शैलः। भूधरः। ज्योक्। १।६।३। चिरकालम्। पितृषु। १।२।१। रक्षकेषु। जनकवत् मान्येषु, मातापित्रादिषु बन्धुषु। आस्ताम्। आस उपवेशने−लोट्। तिष्ठतु। निवसतु ॥१॥
विषय
कुलवधू के मुख्य गुण 'भगं, वर्चः'
पदार्थ
१. वैदिक पद्धति में एक युवक अपनी जीवन-यात्रा की निर्विघ्न पूर्ति के लिए अपना एक साथी चुनता है। वह वरणीय कन्या में दो गुणों को महत्त्व देता है। वे गुण हैं-('भर्ग, वर्च:')। वह कहता है कि मैं (अस्या:) = इस कन्या के (भगम्) = अन्त: व बाह्य सौन्दर्य [Exellence, Beauty] को तथा (वर्च:) = तेजिस्वता को (आदिषि) = आदर से देखता हूँ [Pay atribute to] और (वृक्षात् अधि स्त्रजम् इव) = वृक्ष से जैसे माला को ग्रहण करते हैं, पुष्यों को लेकर माला बनाते हैं, इसीप्रकार इस कन्या के पितृकुलरूप वृक्ष से गणरूपी माला से अलंकत इस कन्या का ग्रहण करता हैं।
२. (महाबुध्नः पर्वतः इव) = जैसे विशाल मूलवाला पर्वत स्थिरता से एक स्थान में रहता है, उसी प्रकार यह कन्या (ज्योक्) = दीर्घकाल (पितृषु) = माता-पिता (आस्ताम्) = निवास करे| यहाँ माता-पिता के साथ देर थक रहना उसके बड़ी अवस्था में विवाह का संगीत करता है, तथा घर में पर्वत के सामान स्थिरता से रहना उसके व्यर्थ इधर-उधर न घूमने व सच्चरित्रता को व्यक्त करता है|
भावार्थ
विवाह के योग्य कन्या 'भग व वर्च' वाली है , बड़ी अवस्थावाली व युवती है , घर में स्थिरता से रहनेवाली अचपल है|
भाषार्थ
(अस्याः) इस कन्या के (भगम्) सौभाग्य को, (वर्चः) दीप्ति अर्थात् कान्ति को (आदिषि) मैं [वर ] ने प्राप्त किया है, ( इव ) जैसे (वृक्षात्) [पुष्प वाले ] वृक्ष से (स्रजम् ) पुष्पमाला प्राप्त की जाती है । (महाबुध्न:१) महामूल अर्थात् दीर्घविस्तारी मूल वाले (पर्वतः इव ) पर्वत के सदृश (ज्योक्) चिरकाल तक (पितृषु) हे वर ! तेरे माता-पिता आदि बन्धु में (आस्ताम्) यह रहे।
टिप्पणी
[१. जैसे महाबुध्न पर्वत पृथिवी में अविचल रूप में रहता है, वैसे वधू पतिगृह में अविचलरूप में रहे।]
विषय
कन्यादान, विद्युत् सम्बन्धी रहस्य
भावार्थ
इस सूक्त में कन्या को उचित आयु पर उचित पात्र के हाथ में देने का उपदेश है। ( वृक्षाद् अधि ) जिस प्रकार वृक्ष से ( स्रजम् इव ) फूल लेकर गले की माला बनाली जाती है उसी प्रकार मैं समावर्त्तन के अनन्तर गुरुगृह से आया विवाहेच्छु ब्रह्मचारी (अस्याः) इस वधू से ( भग ) ज्ञान आदि सद्गुण ( वर्चः ) तथा तेज का ( आदिषि ) ग्रहण करता हूं और यह (पितृषु ) अपने नूतन मां बाप के बीच ( महाबुध्नः ) बड़े मूल वाले (पर्वत इव) पर्वत, चट्टान के समान (आस्ताम् ) स्थित रहे।
टिप्पणी
सायण ने यह मन्त्र स्त्री के दौर्भाग्य करने अर्थ में लगाया है यह उसका भ्रम है। क्योंकि स्त्री का पर्वत के समान स्थिर रहना गृहस्थ धर्म के प्रारम्भक विवाह संस्कार में प्रतिज्ञा रूप में कराया जाता है। जैसा पारस्कर गृह्यसूत्र (का० १। कं० ७) में लिखा है “आरोहेममश्मानमश्मेव त्वं स्थिरा भवा” और उसी प्रकार आश्वलायन में - परिणीय परिणीय अश्मानमारोहयति । इममश्मानमारोह अश्मेव त्वं स्थिरा भव ॥ ( आश्व० गृ० १। ७) अर्थात् प्रत्येक विवाह में कन्या का शिला पर पैर रखा रखा कर पति कहे हे स्त्री तू चट्टान की तरह स्थिर होजा। सायण ने इस मन्त्र में यह अर्थ किया है—‘मैं स्त्रीद्वेषी पति इस स्त्री का सौभाग्य अपने वश करता हूं कि यह पिता के घर में पहाड़ की तरह सदा बनी रहे ।’ यह कितना असंगत अर्थ है वेद में स्त्रियों से द्वेष निकालने का भाव सर्वथा निरर्गल है । सायण ने इस सूक्त के अगले मन्त्रों में और भी अनर्थ किया है सो आगे लिखेंगे । ह्विटनी आदि ने अविवाहित कन्या को ‘यमकन्या’ मानकर अविवाहिता को मृतकन्या के समान माना है और फिर भी सायण का अनुसरण किया है सो उपहास योग्य है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वंगिरा ऋषिः । ‘विद्युत्’ वरुणो, यमो वा देवता । १, ककुम्मती अनुष्टुप् । २, ४ अनुष्टुभौ । ३ चतुष्पाद विराङ्। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Bride
Meaning
I love and honour the beauty, dignity and brilliance of this bride and I declare I accept her for wife as a garland of flowers culled from a spring garden in bloom, and may she, like a mighty mountain broad and deep at the base, stay firm and live a long long time among my father, mother and seniors of the family.
Subject
Yama
Translation
I have taken her riches (bhaga) as well as her reputation, as one takes a wreath from a tree. Like a big rooted tree (or a hill with big base), let her stay with her parents for a while.
Translation
As a wreath from the tree I, the bride-groom assume prosperity, knowledge etc. from this bride. She be firm like broad based mountain in my parental family.
Translation
As from the tree a wreath, have I assumed her fortune and her fame among my kinsfolk may she dwell for long, like a mountain broad-based.
Footnote
I refers to the bridegroom, and her refers to the bride., Sayana interprets this verse as a misfortune, that the girl remains unmarried in the house of her parents. This is illogical. A girl is expected to remain firm and steadfast in her domestic life, after marriage, in the house of her father-in-law, and not that of her own parents. Weber, Zimoner and Ludwig rightly assign this verse to the bridegroom. This hymn is spoken by the bridegroom.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−भगम्। पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण। पा० ३।३।११८। इति भज सेवायाम्−घ प्रत्ययः। चजोः कु घिण्ण्यतोः। पा० ७।३।५२। इति घत्वम्। भगः। धननाम निघ० २।१०। श्रियम्, ऐश्वर्यम् कीर्त्तिम्। अस्याः। नवोढायाः स्त्रियाः सकाशात्। वर्चः। १।९।४। रूपम्। तेजः। आ+अदिषि। आङ् पूर्वकात् डुदाञ् आदाने-लुङ्। आङो दोऽनास्यविहरणे। पा० १।३।२०। इति आत्मनेपदम्। अहं गृहीतवान् प्राप्तवानस्मि। अधि। पञ्चम्यर्थानुवादी। उपरि। वृक्षात् इव। १।२।३। इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३५। इति वृक्ष वरणे-क। वृक्ष्यते व्रियते सेव्यते छायाफलार्थम्। विटपाद् यथा। स्रजम्। ऋत्विग्दधृक्स्रग्दिगुष्णिक्०। पा० ३।२।५९। इति सृज विसर्गे−क्विन्। सृजति ददाति शोभामिति स्रक्। पुष्पमालाम्। महाबुध्नः। बन्धेर्ब्रधिबुधी च। उ० ३।५। इति बन्ध बन्धने−नक्, बुधादेशश्च। विशालमूलः, दृढमूलः। पर्वतः। १।१२।३। शैलः। भूधरः। ज्योक्। १।६।३। चिरकालम्। पितृषु। १।२।१। रक्षकेषु। जनकवत् मान्येषु, मातापित्रादिषु बन्धुषु। आस्ताम्। आस उपवेशने−लोट्। तिष्ठतु। निवसतु ॥१॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(অস্যাঃ) এই বধু হইতে (ভগম্) ঐশ্বর্যকে ও (বর্চঃ) তেজকে (আ অদিষি) আমি মানিয়াছি (ইব) যেমন (বৃক্ষাৎ অধি) বৃক্ষ হইতে (প্রজম্) পুষ্প মাল্যকে (মহাবুধ্ন) মহামুল (পর্বতঃ ইব) পর্বতের ন্যায় (পিতৃষু) আমার পিতৃকুলে (জ্যোক্) দীর্ঘ দিন পর্যন্ত (আস্তাম্) থাকুক ।।
भावार्थ
(বিবাহ সংস্কারে বরের উক্তি) এই বধু হইতে আমি ঐশ্বর্য ও তেজকে গ্রহণ করিতেছি। বৃক্ষের পুষ্পরাশি যেমন মাল্যাকারে শোভাদান করে, মহামুল পর্বত যেমন সুদৃঢ় ভাবে অবস্থান করে তেমন দীর্ঘকাল পর্যন্ত সে আমার পিতৃকুলে অবস্থান করুক।।
मन्त्र (बांग्ला)
ভগমস্যা বৰ্চ আদিষ্যধি বৃক্ষাদিব প্রজম্ মহাবুধ্ন ইব পর্বতো জ্যোক্ পিতৃষা স্তাম্ ।
ऋषि | देवता | छन्द
ভৃগ্বঙ্গিরাঃ। যম। ককুম্মত্যনুষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(বিবাহসংস্কারোপদেশঃ) বিবাহসংস্কারের উপদেশ
भाषार्थ
(অস্যাঃ) এই [বধূ] থেকে/মাধ্যমে (ভগম্) [নিজের] ঐশ্বর্য এবং (বর্চঃ) তেজ (আ অদিষি) আমি মেনেছি/মান্য করেছি, (ইব) যেভাবে (বৃক্ষাৎ অধি) বৃক্ষের থেকে (স্রজম্) ফুলের মালাকে। (মহাবুধ্নঃ) বিশাল মূলের (পর্বতঃ ইব) পর্বতের সমান [এই বধূ] (পিতৃষু) [আমার] মাতা-পিতা আদি বান্ধবদের মধ্যে (জ্যোক্) অনেক কাল পর্যন্ত (আস্তাম্) থাকুক ॥১॥
भावार्थ
এটা বরের বচন। বিদ্বান্ পুরুষ খোঁজ করে নিজের সমান গুণবতী নারীর সঙ্গে বিবাহ করে সংসারে ঐশ্বর্য এবং শোভা পায়/প্রাপ্ত হয়, যেভাবে বৃক্ষ সুন্দর ফুলের শোভা হয়। বধূ নিজের শশুর শাশুড়ি আদি মাননীয়দের সেবা ও শিক্ষার মাধ্যমে দৃঢ়চিত্ত হয়ে ঘরের কাজকে সুপ্রবন্ধ করে গৃহলক্ষ্মীর পক্কতা প্রাপ্ত করবে/করুক এবং পতি পুত্র আদি আত্মীয়ের মধ্যে দীর্ঘায়ু ভোগ করে আনন্দ করে/করুক ॥১॥
भाषार्थ
(অস্যাঃ) এই কন্যার (ভগম্) সৌভাগ্য, (বর্চঃ) দীপ্তি অর্থাৎ কান্তি (আদিষি) আমি [বর] প্রাপ্ত করেছি, (ইব) যেমন (বৃক্ষাৎ) [পুষ্প বিশিষ্ট] বৃক্ষ থেকে (স্রজম্) পুষ্পমালা প্রাপ্ত করা হয়। (মহাবুধ্নঃ১) মহামূল অর্থাৎ দীর্ঘবিস্তারী মূলবিশিষ্ট (পর্বতঃ ইব) পর্বতের সদৃশ (জ্যোক্) চিরকাল পর্যন্ত (পিতৃষু) হে বর ! তোমার মাতা-পিতা আদি বন্ধুর মধ্যে (আস্তাম্) থাকুক।
टिप्पणी
[১. যেমন মহাবুধ্ন পর্বত পৃথিবীতে অবিচল রূপে থাকে, সেভাবেই বধূ পতিগৃহে অবিচলরূপে থাকুক।]
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