अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 17/ मन्त्र 1
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - योषित्
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - रुधिरस्रावनिवर्तनधमनीबन्धन सूक्त
2
अ॒मूर्या यन्ति॑ यो॒षितो॑ हि॒रा लोहि॑तवाससः। अ॒भ्रात॑र इव जा॒मय॒स्तिष्ठ॑न्तु ह॒तव॑र्चसः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒मू: । या: । यन्ति॑ । यो॒षित॑:। हि॒रा: । लोहि॑तऽवासस: । अ॒भ्रात॑र:ऽइव । जा॒मय॑: । तिष्ठ॑न्तु । ह॒तऽव॑र्चस: ॥
स्वर रहित मन्त्र
अमूर्या यन्ति योषितो हिरा लोहितवाससः। अभ्रातर इव जामयस्तिष्ठन्तु हतवर्चसः ॥
स्वर रहित पद पाठअमू: । या: । यन्ति । योषित:। हिरा: । लोहितऽवासस: । अभ्रातर:ऽइव । जामय: । तिष्ठन्तु । हतऽवर्चस: ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
नाडीछेदन [फ़सद् खोलने] के दृष्टान्त से दुर्वासनाओं के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(अमूः) वे (याः) जो (योषितः) सेवायोग्य वा सेवा करनेहारी [अथवा स्त्रियों के समान हितकारी] (लोहितवाससः) लोह में ढकी हुयी (हिराः) नाड़ियाँ (यन्ति) चलती हैं, वे (अभ्रातरः) बिना भाइयों की (जामयः इव) बहिनों के समान, (हतवर्चसः) निस्तेज होकर (तिष्ठन्तु) ठहर जाएँ ॥१॥
भावार्थ
इस सूक्त में सिराछेदन, अर्थात् नाड़ी [फ़सद्] खोलने का वर्णन है। मन्त्र का अभिप्राय यह है कि नाड़ियाँ रुधिरसंचार का मार्ग होने से शरीर की (योषितः) सेवा करनेहारी और सेवायोग्य हैं। जब किसी रोग के कारण वैद्यराज नाड़ीछेदन करे और रुधिर निकलने से रोग बढ़ाने में नाड़ियाँ ऐसी असमर्थ हो जाएँ जैसे माता-पिता और भाइयों के बिना कन्याएँ असहाय हो जाती हैं, तब नाड़ियों को रुधिर बहने से रोक दे। २−मनुष्य के सब कार्य कुकामनाओं को रोककर मर्यादापूर्वक करने से सफल होते हैं ॥१॥
टिप्पणी
१−अमूः। १।४।२। ताः परिदृश्यमानाः। यन्ति। गच्छन्ति योषितः। हृसृरुहिहियुषिभ्य इतिः। उ० १।९७। युष सेवने-इति, अयं सौत्रो धातुः। योषति सेवते युष्यते सेव्यते वा सा योषित्। सेवयित्र्यः। सेव्याः। स्त्रियः। हिराः। स्फायितञ्चिवञ्चिशकि०। उ० २।१३। इति हि वर्धने गतौ च-रक् टाप्। हिनोति वर्धयति वा गच्छति व्याप्नोति शरीररुधिरादिकमिति हिरा, नाडी। सिराः, नाड्यः। लोहित-वाससः। वसेर्णित्। उ० ४।२१८। इति लोहित+वस आच्छादने, असुन्। णिद्वद्भावाद् उपधावृद्धिः। रुधिरस्य आच्छादनभूताः। रक्तवर्णवस्त्राः। अभ्रातरः। नप्तृत्वष्टृ०। उ० २।९६। इति भ्राजृ दीप्तौ-तृन्, निपात्यते। अभ्रातृकाः, सहोदररहिताः, असहाया इत्यर्थः। जामयः। १।४।१। भगिन्यः। तिष्ठन्तु। स्थिता निवृत्तगतयो भवन्तु। हत-वर्चसः। सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति वर्च दीप्तौ-असुन्। हततेजस्काः, नष्टवीर्याः। रोगोत्पादने असमर्थाः ॥
विषय
लोहितवासस् हिराएँ
पदार्थ
१. शरीर में नाडीचक्ररुधिर के अभिसरण के द्वारा आवश्यक सब धातुओं को यथास्थान पहुँचाता है। इनमें धमनियों हृदय से शरीर में रुधिर को ले-जाती हैं और इस यात्रा में कुछ मलिन हो गये रुधिर को शिराएँ [हिराएँ] पुनः हृदय में पहुँचाती हैं। इसप्रकार धमनियों और शिराओं का कार्यक्रम चलता है। घाव लगने पर नाड़ी के फटने से रुधिर के बाहर निकलने को रोकने के लिए उस स्थान को बाँधना आवश्यक हो जाता है। उस समय ये नाड़ियाँ अपने कार्यक्रम में कुछ रुक जाती हैं, अतः मन्त्र में कहा है कि (अमू:) = वे (याः) = जो (योषित:) = रुधिर का मिश्रण व अमिश्रण करनेवाली (हिरा:) = शिराएँ (लोहितवासस:) = रुधिर के निवासवाली (यन्ति) = गति करती हैं, वे अब घाव लगने पर बन्ध के कारण (हतवर्चस:) = नष्टतेज-सी हुई-हुई (तिष्ठन्त) = ठहर जाएँ। (इव) = इसप्रकार ठहर जाएँ जैसे कि (अभातर:) = बिना भाईवाली (जामय:) = बहिनें निस्तेज सी होकर ठहर जाती हैं। २. विवाहित होने पर कन्या कभी-कभी अपने पितृगृह में आती रहती है, पिता चले भी जाते हैं तो भाइयों के कारण उसका आना-जाना बना ही रहता है, परन्तु भाई भी न रहे तो बहिन का आना रुक जाता है। वह अपने-आपको कुछ निस्तेज-सा अनुभव करती है। इसीप्रकार बद्ध-नाड़ी निस्तेज-सी हो जाती है। ३. सम्भवतः बिना भाई को बहिनें लोहितवासस्-लाल रङ्ग के कपड़े पहनें, ऐसा यहाँ सङ्केत है। अभिप्रायः इतना ही है कि
निस्तेज बनकर पड़ जाने की अपेक्षा वे तेजस्विता के कार्यों को करने का निश्चय करें।
भावार्थ
घाव लगने पर रुधिरस्ताव को रोकने के लिए नाड़ियों को बाँधने पर वे हतवर्चस् सी होकर रुक जाती हैं।
भाषार्थ
(योषितः) स्त्री की (लोहितवाससः) रक्त की निवासभूत (अमूः याः) वे जो (हिरा:) सिराएँ (यन्ति) गति करती हैं, वे ( तिष्ठन्तु) ठहर जाएँ, गतिरहित हो जाएँ, (हतवर्चसः) निज तेज से विहीन हुईं। (इव ) जैसे कि (अभ्रातरः जामयः) भाई बिना बहिनें (तिष्ठन्तु) निज गृह में ही स्थित रहती हैं।
टिप्पणी
[हिरा:=सिराएँ, जो कि अशुद्ध रक्त को बहाती हैं, इन्हें ( Vains ) कहते हैं। इनमें अशद्ध रक्त सरण करता है, शनैः-शनैः गति करता है । सिराः= हिराः, यथा सिन्धु=हिन्दु । भाईरहित बहिनें पितृकुल में ही रहकर स्वपति के साथ निवास कर पितृकुल का संवर्धन करती हैं। ऐसे पति को गृहजामाता कहते हैं।]
विषय
शरीर की नाडियों और स्त्रियों का वर्णन ।
भावार्थ
( अमूः ) वे (याः) जो (लोहितवाससः) रक्त का जिन में निवास है ऐसी ( हिराः ) नाडीयां हैं, वे ( योषितः ) विवाहित स्त्रियों की न्याई ( यन्ति ) शरीर में सदा गति करती रहें। परन्तु ( अभ्रातरः ) भर्त्ता रहित (हतवर्चसः) और इसीलिये नष्ट तेज वाली (जामयः इव ) अविवाहित स्त्रियों की नाईं ( तिष्ठन्तु ) स्थित रहें अर्थात अपने अपने स्थान से विचलित न हों। अर्थात् शरीर की नाडियां सदा गति करती रहें, उनमें रक्त बहता रहे और परमात्माने उन्हें जिस जिस स्थान में स्थित किया है उस उस स्थान से विचलित न हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः । योषितो लोहितवाससो हिरा वा मन्त्रोक्ता देवताः। १ भुरिक् अनुष्टुप् २, ३ अनुष्टुप्। ४ त्रिपदा आर्षी गायत्री चतुऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Stop Bleeding
Meaning
Let those blood vessels which circulate blood in the body stop, having lost their vigour like sisters who have lost their glow for want of their brothers.
Subject
Yositah-Dhamani-Artery
Translation
Let these ladies, who go around clad in blood-red robes, the veins, stand still-devoid of vigour, like brotherless sisters.
Translation
Those tubular vessels of the body which are serving and are with blood be powerless in their flow of blood like the girls who have no brothers.
Translation
Those veins, serviceable like maidens, which run their course clothed in blood, must now stand quiet, like sisters who are brotherless and bereft of power.
Footnote
When a surgeon performs venesection, to take out the dirty and superfluous blood he should be cautious to watch when to stop bleeding and prevent the excessive oozing of blood, to make the veins calm and restore health to the patient. Here veins are compared to maidens. Just as maidens are serviceable to the parents so are the veins to the body. After the performance of an operation, the veins should be made calm and quiet like brotherless sisters, to restore health to the patients.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−अमूः। १।४।२। ताः परिदृश्यमानाः। यन्ति। गच्छन्ति योषितः। हृसृरुहिहियुषिभ्य इतिः। उ० १।९७। युष सेवने-इति, अयं सौत्रो धातुः। योषति सेवते युष्यते सेव्यते वा सा योषित्। सेवयित्र्यः। सेव्याः। स्त्रियः। हिराः। स्फायितञ्चिवञ्चिशकि०। उ० २।१३। इति हि वर्धने गतौ च-रक् टाप्। हिनोति वर्धयति वा गच्छति व्याप्नोति शरीररुधिरादिकमिति हिरा, नाडी। सिराः, नाड्यः। लोहित-वाससः। वसेर्णित्। उ० ४।२१८। इति लोहित+वस आच्छादने, असुन्। णिद्वद्भावाद् उपधावृद्धिः। रुधिरस्य आच्छादनभूताः। रक्तवर्णवस्त्राः। अभ्रातरः। नप्तृत्वष्टृ०। उ० २।९६। इति भ्राजृ दीप्तौ-तृन्, निपात्यते। अभ्रातृकाः, सहोदररहिताः, असहाया इत्यर्थः। जामयः। १।४।१। भगिन्यः। तिष्ठन्तु। स्थिता निवृत्तगतयो भवन्तु। हत-वर्चसः। सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति वर्च दीप्तौ-असुन्। हततेजस्काः, नष्टवीर्याः। रोगोत्पादने असमर्थाः ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(অমূঃ) এই সব (য়াঃ) যে (য়োষিতঃ) সেবাযোগ্য স্ত্রী সদৃশ (লোহিত বাসসঃ) বস্ত্রাচ্ছাদিত (হিরাঃ) নাড়ী (য়ন্তি) চলিতেছে তাহা (অভ্রাতরঃ) ভ্রাতৃহীন (জাময়ঃ ইব) ভগ্নীদের ন্যায় (হতবচসঃ) নিস্তেজ হইয়া (তিষ্ঠন্তু) অবস্থান করুক।।
য়োষিতঃ’ য়ুধ সেবনে। য়োষতি সেব্যতে বা সা য়োষিং। স্ক্রিয়ঃ। ‘হিরাঃ’ হি বর্ধনে গতৌ চ রক্ টাপ্। হিনোতি বর্ধয়তি বা গচ্ছতি ব্যাপ্লোতি শরীর রুধিরাদিকমিতি হিরা, নাড়ী।।
भावार्थ
এই সব স্ত্রীসদৃশ সেবাযোগ্যা নাড়ী শিরা স্নায়ু আদি রক্ত প্লাবিত অবস্থায় চলিত থাকে। (শিরা ছেদনের সময়) তাহারা ভ্রাতৃহীনা ভগ্নীর ন্যায় নিস্তেজ হইয়া অবস্থান করুন।।
নাড়ী, শিরা ও স্নায়ু আদি ছেদনের জন্য এইরূপ বর্ণনা। নাড়ী, শিরা ও স্নায়ু আদি রক্ত সঞ্চালন দ্বারা শরীরের সেবা করে এজন্য যখন বৈদ্য নাড়ী স্নায়ু ও শিরা ছেদন করে তখন তাহারা নিস্তেজ হইয়া যায়।।
मन्त्र (बांग्ला)
অমূর্য্যা য়ন্তি য়োষিতা হিরা লোহিত বাসসঃ। অভ্রাতর ইব জাময় স্তিষ্ঠন্তু হতবচসঃ।।
ऋषि | देवता | छन्द
ব্ৰহ্মা। যোষিতো ধমন্যশ্চ। ভুরিগনুষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(নাডীছেদনদৃষ্টান্তেন কুবাসনানাশঃ) নাড়ীছেদনের দৃষ্টান্ত দ্বারা দুর্বাসনাসমূহের নাশের উপদেশ
भाषार्थ
(অমূঃ) সেসব (যাঃ) যে/যা (যোষিতঃ) সেবাযোগ্য বা সেবাকারী [অথবা স্ত্রীদের ন্যায় হিতকারী] (লোহিতবাসসঃ) লোহায় আবৃত (হিরাঃ) নাড়ীসমূহ (যন্তি) চলমান হয়, সেগুলো (অভ্রাতরঃ) ভাই বিনা (জাময়ঃ ইব) বোনদের ন্যায় (হতবর্চসঃ) নিস্তেজ হয়ে (তিষ্ঠন্তু) থেমে যাক॥১॥
भावार्थ
এই সূক্তে শিরাছেদন, অর্থাৎ নাড়ী [জট] মুক্ত করার বর্ণনা রয়েছে। মন্ত্রের অভিপ্রায়, নাড়ীসমূহ রক্তের সঞ্চার মার্গ হওয়ার কারণে শরীরের (যোষিতঃ) সেবাকারী এবং সেবাযোগ্য হয়ে থাকে। যখন কোনো রোগের কারণে বৈদ্যরাজ নাড়ীছেদন করার মাধ্যমে এবং রক্ত বের করার মাধ্যমে রোগের বৃদ্ধিতে নাড়ীসমূহ এরূপ অসমর্থ হয়ে যায়, যেরূপ মাতা-পিতা এবং ভাইদের বিনা কন্যাগণ অসহায় হয়ে যায়। তখন নাড়ীসমূহকে রক্ত সংবহনে থামিয়ে দেয়। ২−মনুষ্যের সকল কার্যে কুকামনাসমূহকে রোধ করে মর্যাদাপূর্বক কার্য করার মাধ্যমে/ফলে সুফল প্রাপ্ত হয়॥১॥
भाषार्थ
(যোষিতঃ) স্ত্রী-এর (লোহিতবাসসঃ) রক্তের নিবাসভূত (অমূঃ যাঃ) সেই যে (হিরাঃ) শিরাসমূহ (যন্তি) যায়/গতি করে, সেগুলো (তিষ্ঠন্তু) স্থির হোক, গতিরহিত হোক, (হতবর্চসঃ) নিজ তেজবিহীন হয়ে। (ইব) যেভাবে (অভ্রাতরঃ জাময়ঃ) ভাইরহিত বোন (তিষ্ঠন্তু) নিজ গৃহেই স্থিত থাকে।
टिप्पणी
[হিরাঃ= শিরা, যা অশুদ্ধ রক্তকে প্রবাহিত করে, এগুলোকে (Veins) বলে। এর মধ্যে অশুদ্ধ রক্ত সরণ/প্রবাহিত হয়, ধীরে ধীরে চলে। সিরাঃ=হিরাঃ, যথা সিন্ধু=হিন্দু। ভাইরহিত বোন পিতৃকুলেই থেকে স্বপতির সাথে নিবাস করে পিতৃকুলের সংবর্ধন করে। এমন পতিকে গৃহজামাতা বলে।]
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