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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 1
    ऋषिः - द्रविणोदाः देवता - विनायकः छन्दः - उपरिष्टाद्विराड्बृहती सूक्तम् - अलक्ष्मीनाशन सूक्त
    1

    निर्ल॒क्ष्म्यं॑ लला॒म्यं॑१ निररा॑तिं सुवामसि। अथ॒ या भ॒द्रा तानि॑ नः प्र॒जाया॒ अरा॑तिं नयामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ‍नि: । ल॒क्ष्म्यम् । ल॒ला॒म्यम् । नि: । अरा॑तिम् । सु॒वा॒म॒सि॒ ।अथ॑ । या । भ॒द्रा । तानि॑ । न॒: । प्र॒ऽजायै॑ । अरा॑तिम् । न॒या॒म॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    निर्लक्ष्म्यं ललाम्यं१ निररातिं सुवामसि। अथ या भद्रा तानि नः प्रजाया अरातिं नयामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ‍नि: । लक्ष्म्यम् । ललाम्यम् । नि: । अरातिम् । सुवामसि ।अथ । या । भद्रा । तानि । न: । प्रऽजायै । अरातिम् । नयामसि ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 18; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के लिये धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (ललाम्यम्=०-मीम्) [धर्म से] रुचि हटानेवाली (निर्लक्ष्म्यम्=०-क्ष्मीम्) अलक्ष्मी [निर्धनता] और (अरातिम्) शत्रुता को (निः सुवामसि=०-मः) हम निकाल देवें। (अथ) और (या=यानि) जो (भद्रा=भद्राणि) मङ्गल हैं (तानि) उनको (नः) अपनी (प्रजायै) प्रजा के लिये (अरातिम्) सुख न देनेहारे शत्रु से (नयामसि=०-मः) हम लावें ॥१॥

    भावार्थ

    राजा अपने और प्रजा की निर्धनता आदि दुर्लक्षणों को मिटावे और शत्रु को दण्ड देकर प्रजा में आनन्द फैलावे ॥१॥ सायणभाष्य में (लक्ष्म्यम्) के स्थान में [लक्ष्यम्] पाठ है ॥१॥

    टिप्पणी

    १−निः+लक्ष्म्यम्। नॄ नये−क्विप्। ॠत इद्धातोः। पा० ७।१।१००। इति धातोरङ्गस्य इत्। इति निर्। लक्षेर्मुट् च। उ० ३।१६०। इति लक्ष दर्शनाङ्कनयोः−ई प्रत्ययो मुडागमः। लक्ष्यते दृश्यते सा लक्ष्मीः। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति अमि पूर्वरूपाभावे। इको यणचि। पा० ६।१।७७। इति यण् आदेशः। उदात्तस्वरितयोर्यणः स्वरितोऽनुदात्तस्य। पा० ८।२।४। इति यणः परतोऽनुदात्तस्य स्वरितत्वम्। निर्लक्ष्मीम्, अलक्ष्मीम्, निर्धनताम्, दुर्भाग्यताम्। ललाम्यम्। लल ईप्से−अच्। ततः। अवितॄस्तृतन्त्रिभ्य ईः। उ० ३।१५८। इति बाहुलकात्, अम रोगे, पीडने−ई प्रत्ययः। ललम् इच्छां शुभरुचिं आमयति नाशयतीति ललामीः। पूर्ववत् यण् स्वरितत्वं च। ललामीम्, शुभरुचिनाशिनीम्। निर्। नॄ नयने−क्विप् न दीर्घः। ॠत इद्धातोः। पा० ७।१।१००। इति इकारः। बहिर्भावे। निश्चये। अरातिम्। क्तिच्क्तौ च संज्ञायाम्। पा० ३।३।१७४। इति रा दाने-क्तिच्। यद्वा, रा-क्तिन्। न राति ददाति सुखम्, नञ्−समासः। सुखस्य अदातारम् शत्रुम्। शत्रुताम्, दुष्टताम्। निः+सुवामसि। षू प्रेरणे, तुदादिः−लट्। मस इदन्तत्वम्। व्यवहिताश्च। पा० १।४।८२। इति उपसर्गस्य व्यवधानम्। निःसुवामः, निःसारयामः। अथ। अनन्तरम्। भद्रा। ऋजेन्द्राग्रवज्र०। उ० २।२८। इति भदि कल्याणे−रन्। निपात्यते च। भद्राणि, मङ्गलानि। तानि। उदीरितानि भद्राणि। नः। अस्माकम्, स्वकीयायै। प्र-जायै। उपसर्गे च संज्ञायाम्। पा० ३।२।९९। इति जनी प्रादुर्भावे−ड प्रत्ययः। जनाय। अरातिम्। शत्रुम्। शत्रुसकाशात्। नयामसि। णीञ् प्रापणे, द्विकर्मकः। मस इदन्तत्वम्। प्रापयामः ॥

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    विषय

    मस्तिष्क और मन का स्वास्थ्य

    पदार्थ

    १. (ललाम्यम्) = मस्तक पर होनेवाले (लक्ष्म्यम्) = अशुभ चिह्न को–कलङ्क को (नि: सुवामसि) =  नि:शेषतया दूर करते हैं। मस्तक पर होनेवाला बाह्य विकार जो अत्यन्त अशुभ प्रतीत होता है, वह और मस्तिष्क-सम्बन्धी आन्तर विकार भी नाड़ीचक्र के स्वास्थ्य के द्वारा दूर हो जाता है। इस नाड़ीचक्र के स्वास्थ्य से (अरातिम्) = मन में उत्पन्न होनेवाली अदान की वृत्ति को (नि: सवामसि) = हम दूर करते हैं। २. (अथ) = और (या भद्रा) = जो भी भद्र बातें हैं, (तानि) = उन्हें (नः प्रजाया:) = अपनी प्रजा के साथ जोड़ते हैं और (अरातिम अदान) = भावना को (नयामसि) = उनसे दूर भगाते हैं।

    भावार्थ

    मस्तिष्क-सम्बन्धी अशुभ लक्षण तथा मन में होनेवाली कृपणता हमसे दूर हो।

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    भाषार्थ

    (ललाम्यम् ) ललाट अर्थात् मस्तक में हुए (लक्ष्म्यम् ) दृष्ट दुर्लक्षण को (निः) निकाल देते हैं, और (अरातिम्) शत्रुरूप अन्य दुर्लक्ष्ण को भी (निः सुवामसि) हम निकाल देते हैं। (अथ ) तदनन्तर (या भद्रा= यानि भद्राणि) जो कल्याणकारी तथा सुखप्रद लक्षण हैं (तानि) उन्हें ( न: प्रजायै ) अपनी प्रजा [सन्तान] के लिये (नयामसि) हम प्राप्त कराते हैं, और (अरातिम्) शत्रुरूप दुर्लक्षण को ( नयामसि) हम शत्रु को प्राप्त कराते हैं । लक्ष्म्यम् = लक्ष दर्शनाङ्कनयोः (चुरादिः)

    टिप्पणी

    [मस्तक स्थान विचार का है, अतः दुर्लक्षण का अभिप्राय है दुर्विचार। नयामसि णीञ् प्रापणे (भ्वादिः)।]

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    विषय

    विवाह योग्य और अविवाह योग्य स्त्रियां।

    भावार्थ

    ( ललाम्यम् ) स्त्रियों में रत्नभूत, सुन्दर और (लक्ष्म्यम्) उत्तम लक्षणों वाली साक्षात् लक्ष्मीरूप स्त्री को हम प्राप्त करते हैं। (अरातिम्) और कंजूस और अतएव शत्रुरूप स्त्री को ( निः सुवामसि ) दूर करते हैं । (निः) दूर करते हैं । अर्थात् ऐसी स्त्री के साथ हम विवाह नहीं करते । ( अथ ) और ( या भद्राः ) जो भद्र स्त्रियां हैं ( ताः ) उन्हें ( नः प्रजायै ) अपनी उत्तम सन्तान के लिये ( नि नयामसि ) हम प्राप्त करते हैं (अरातिम्) और कंजूस स्त्री का अवश्य परित्याग करते हैं ।

    टिप्पणी

    तानि=ता। नि। इस प्रकार पदच्छेद करना अर्थ दृष्टि से उत्तम होगा।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    द्रविणोदाः ऋषिः। विनायको देवता। १ उपरिष्टाद् विराड् बृहती, २ निचृज्जगती, ३ विराड् आस्तारपंक्तिः त्रिष्टुप् । ४ अनुष्टुप् । चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Planning and Prosperity

    Meaning

    We uproot poverty, wantonness, malignity and adversity, and we procure all those things which are good for our children and future generations. Thus do we plan and manage our prosperity against adversity.

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    Subject

    Savitr-Impeller etc.

    Translation

    We remove the deformity marks disgracing beauty and drive malignity away. There-after we put in the marks full of grace and in this way we keep the malignity off our progeny.

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    Translation

    We drive our poverty, undesirable tendency and malignity from us. We procure for our Progeny whatever are beneficial ever from the camp of enemies.

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    Translation

    We marry a handsome and well-behaved woman. We reject a malignant one. We welcome the good-natured girls for our progeny, but discard the miserly one.

    Footnote

    Women of virulent and miserly nature should not be married.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−निः+लक्ष्म्यम्। नॄ नये−क्विप्। ॠत इद्धातोः। पा० ७।१।१००। इति धातोरङ्गस्य इत्। इति निर्। लक्षेर्मुट् च। उ० ३।१६०। इति लक्ष दर्शनाङ्कनयोः−ई प्रत्ययो मुडागमः। लक्ष्यते दृश्यते सा लक्ष्मीः। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति अमि पूर्वरूपाभावे। इको यणचि। पा० ६।१।७७। इति यण् आदेशः। उदात्तस्वरितयोर्यणः स्वरितोऽनुदात्तस्य। पा० ८।२।४। इति यणः परतोऽनुदात्तस्य स्वरितत्वम्। निर्लक्ष्मीम्, अलक्ष्मीम्, निर्धनताम्, दुर्भाग्यताम्। ललाम्यम्। लल ईप्से−अच्। ततः। अवितॄस्तृतन्त्रिभ्य ईः। उ० ३।१५८। इति बाहुलकात्, अम रोगे, पीडने−ई प्रत्ययः। ललम् इच्छां शुभरुचिं आमयति नाशयतीति ललामीः। पूर्ववत् यण् स्वरितत्वं च। ललामीम्, शुभरुचिनाशिनीम्। निर्। नॄ नयने−क्विप् न दीर्घः। ॠत इद्धातोः। पा० ७।१।१००। इति इकारः। बहिर्भावे। निश्चये। अरातिम्। क्तिच्क्तौ च संज्ञायाम्। पा० ३।३।१७४। इति रा दाने-क्तिच्। यद्वा, रा-क्तिन्। न राति ददाति सुखम्, नञ्−समासः। सुखस्य अदातारम् शत्रुम्। शत्रुताम्, दुष्टताम्। निः+सुवामसि। षू प्रेरणे, तुदादिः−लट्। मस इदन्तत्वम्। व्यवहिताश्च। पा० १।४।८२। इति उपसर्गस्य व्यवधानम्। निःसुवामः, निःसारयामः। अथ। अनन्तरम्। भद्रा। ऋजेन्द्राग्रवज्र०। उ० २।२८। इति भदि कल्याणे−रन्। निपात्यते च। भद्राणि, मङ्गलानि। तानि। उदीरितानि भद्राणि। नः। अस्माकम्, स्वकीयायै। प्र-जायै। उपसर्गे च संज्ञायाम्। पा० ३।२।९९। इति जनी प्रादुर्भावे−ड प्रत्ययः। जनाय। अरातिम्। शत्रुम्। शत्रुसकाशात्। नयामसि। णीञ् प्रापणे, द्विकर्मकः। मस इदन्तत्वम्। प्रापयामः ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (ললাম্যং) ধর্মের রুচি নাশক (নির্লক্ষ্যম্) অলক্ষী ও (অরাতিং) শত্রুকে (নিঃসুবামসি) আমরা দূরীভূত করি। (অথ) এবং (য়া) যে সব (ভদ্রা) শুভ গুণ আছে (তানি) তাহাদিগকে (নঃ) স্বীয় (প্রজায়) প্রজাদের জন্য (অরাতিং) শত্রুদের নিকট হইতেও (নয়ামসি) আমরা আনয়ন করি।।

    भावार्थ

    ধর্মনাশক অমঙ্গলকর শত্রুকে আমরা দূরীভূত করি এবং স্বীয় প্রজাদের জন্য শত্রুগণের নিকট হইতেও শুভ গুণাবলি গ্রহণ করি।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    নির্লক্ষ্যং ললাম্যাং ১ নিররাতিং সুবামসি। অথ য়া ভদ্রা তানি নঃ প্রজায়া অরাতিং নয়ামসি।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    দ্রবিণোদাঃ। সবিত্রাদয়ো মন্ত্রোক্তাঃ। উপরিষ্টাট্ বিরাড্ বৃহতী

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    मन्त्र विषय

    (রাজধর্মোপদেশঃ) রাজার জন্য ধর্মের উপদেশ

    भाषार्थ

    (ললাম্যম্=০-মীম্) [ধর্ম থেকে] রুচি বিনষ্টকারী (নির্লক্ষ্ম্যম্=০-ক্ষ্মীম্) অলক্ষ্মী [নির্ধনতা] এবং (অরাতিম্) শত্রুতাকে (নিঃ সুবামসি=০-মঃ) আমরা বের করে দেব/নিষ্কাশিত করি । (অথ) এবং (যা=যানি) যেসব (ভদ্রা=ভদ্রাণি) মঙ্গল রয়েছে (তানি) সেগুলো (নঃ) নিজেদের (প্রজায়ৈ) প্রজার জন্য (অরাতিম্) সুখ হরণকারী শত্রু থেকে (নয়ামসি=০-মঃ) আমরা নিয়ে আসি ॥১॥

    भावार्थ

    রাজা নিজের এবং প্রজার নির্ধনতা আদি দুর্লক্ষণসমূহকে মিটিয়ে এবং শত্রুকে দণ্ড দিয়ে প্রজাদের মধ্যে আনন্দ বিস্তৃত করবে ॥১॥ সায়ণভাষ্যে (লক্ষ্ম্যম্) এর স্থানে [লক্ষ্মম্] পাঠ রয়েছে ॥১॥  

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    भाषार्थ

    (ললাম্যম্) ললাট অর্থাৎ মস্তকের (লক্ষ্ম্যম্) দুষ্ট দুর্লক্ষণকে (নিঃ) বের করে দিই/নিষ্কাশিত করি, এবং (অরাতিম্) শত্রুরূপ অন্য দুর্লক্ষণকেও (নিঃ সুবামসি) আমরা নিষ্কাশিত করি/বের করে দিই। (অথ) তদনন্তর (যা ভদ্রা= ভদ্রাণি) যে কল্যাণকারী তথা সুখপ্রদ লক্ষণ রয়েছে (তানি) তা (নঃ প্রজায়ৈ) নিজের প্রজা [সন্তান] এর জন্য (নয়ামসি) আমরা প্রাপ্ত করাই, এবং (অরাতিম্) শত্রুরূপ দুর্লক্ষণকে (নয়া মসি) আমরা শত্রুদের প্রাপ্ত করাই। লক্ষ্ম্যম্= লক্ষ দর্শনাঙ্কনয়োঃ (চুরাদিঃ)

    टिप्पणी

    [মস্তক স্থান হলো বিচার করার জন্য, অতএব দুর্লক্ষণ এর উদ্দেশ্য হলো দুর্বিচার। নয়ামসি ণীঞ্ প্রাপণে (ভ্বাদিঃ)।]

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