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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 19/ मन्त्र 1
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ईश्वरः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
    1

    मा नो॑ विदन्विव्या॒धिनो॒ मो अ॑भिव्या॒धिनो॑ विदन्। आ॒राच्छ॑र॒व्या॑ अ॒स्मद्विषू॑चीरिन्द्र पातय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । न॒: । वि॒द॒न् । वि॒ऽव्या॒धिन॑: । मो इति॑ । अ॒भि॒ऽव्या॒धिन॑: । वि॒द॒न् ।आ॒रात् । श॒र॒व्या: । अ॒स्मत् । विषू॑ची: । इ॒न्द्र॒ । पा॒त॒य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा नो विदन्विव्याधिनो मो अभिव्याधिनो विदन्। आराच्छरव्या अस्मद्विषूचीरिन्द्र पातय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । न: । विदन् । विऽव्याधिन: । मो इति । अभिऽव्याधिन: । विदन् ।आरात् । शरव्या: । अस्मत् । विषूची: । इन्द्र । पातय ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 19; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    जय और न्याय का उपदेश।

    पदार्थ

    (विव्याधिनः) अत्यन्त वेधनेहारे शत्रु (नः) हम तक (मा विदन्) न पहुँचें और (अभिव्याधिनः) चारों ओर से मारनेहारे (मो विदन्) कभी न पहुँचें। (इन्द्र) हे परम ऐश्वर्यवाले राजन् (विषूचीः) सब ओर फैले हुए (शरव्याः) बाणसमूहों को (अस्मत्) हमसे (आरात्) दूर (पातय) गिरा ॥१॥

    भावार्थ

    सर्वरक्षक जगदीश्वर पर पूर्ण श्रद्धा करके चतुर सेनापति अपनी सेना को रणक्षेत्र में इस प्रकार खड़ा करे, कि शत्रु लोग पास न आ सकें और न उनके अस्त्र-शस्त्रों के प्रहार किसी के लगें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−नः। अस्मान्। मा+विदन्। विद्लृ लाभे, माङि लुङि। न माङ्योगे। पा० ६।४।७४। इति अडभावः। मा लभन्ताम्, विव्याधिनः। सुप्यजातौ णिनिस्ताच्छील्ये। पा० ३।२।७८। इति वि+व्यध ताडने-णिनिः। विशेषेण छेदकाः, धनुर्धराः। मो। मा+उ। मैव। अभि-व्याधिनः। पूर्ववद् णिनिः। आघातकाः, सर्वतो हननकर्तारः। मो विदन्। मैव प्राप्नुवन्तु स्पृशन्तु। आरात्। दूरदेशे। शरव्याः। शॄस्वृस्निहित्रप्यसि०। उ० १।१०। इति शॄ हिंसे−उ प्रत्ययः। उगवादिभ्यो यत्। पा० ५।१।२। इति शरु-यत् समूहार्थे। ओर्गुणः। पा० ६।४।१४६। इति गुणः। वान्तो यि प्रत्यये। पा० ६।१।७९। इति अव् आदेशः। तित् स्वरितम्। पा० ६।१।८५। इति स्वरितः। शरसमूहान् शरसंहतीः। अस्मत्। अन्यारादितरर्ते०। पा० २।३।२९। इति आराद्योगे पञ्चमी। अस्मत्तः। विषूचीः। ऋत्विग्दधृक्स्रग्दिगुष्णिगञ्चु०। पा० ३।२।५९। इति विषु+अञ्चु गतिपूजनयोः−क्विन्। अनिदिताम्०। पा० ६।४।२४। इति न लोपः। अञ्चतेश्चोपसंख्यानम्। वा० पा० ४।१।६। इति ङीप्। अचः। पा० ६।४।१३८। इति अकारलोपे। चौ। पा० ६।३।१३८। इति दीर्घः। विष्वङ् नानामुखम् अञ्चनशीलाः। सर्वत्रव्यापिनीः। इन्द्र। हे परमेश्वर। पातय। पत−णिच्। प्रक्षिप ॥

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    विषय

    विव्याधी-अभिव्याधी

    पदार्थ

    १. इस मन्त्र का देवता 'इन्द्र' है। उपासक इसी को अपना कवच बनाता है-('ब्रह्म वर्म ममान्तरम्) - ब्रह्मरूप कवचवाला ब्रह्मा प्रार्थना करता है कि-(न:) = हमें (विव्याधिन:) = विशेषरूप से विद्ध करनेवाले लोभ आदि शत्रु (मा विदन्) = प्राप्त न हों, हमपर इनका आक्रमण न हो (उ) = और (अभिव्याधिन:) = चारों ओर से आक्रमण करनेवाले काम आदि शत्रु भी (मा विदन) = मत प्राप्त हों। २. हे इन्द्र-सब असुरों का संहार करनेवाले प्रभो! (विषूची:) = [वि+सु+अञ्च] विविध दिशाओं से तीव्रता के साथ आनेवाली (शरव्या:) = शर-समूह की वृष्टियों को (अस्मत्) = हमसे (आरात्) = दूर ही (पातय) = गिरा दीजिए। ३. लोभ का आक्रमण भी बड़ा तीव्र होता है। यह लोभ समाप्त ही नहीं होता। अपने आक्रमण से यह बुद्धि को लुप्त कर देता है। काम का आक्रमण तो चतुर्दिक आक्रमण के समान है। यह कामदेव 'पञ्चशर' है। यह पाँचों बाणों से इकट्ठा ही आक्रमण करता है। एवं, लोभ 'विव्याधी' था तो काम 'अभिव्याधी' है। प्रभुकृपा से इनके बाण हमसे दूर ही गिरें।

    भावार्थ

    प्रभु हमसे 'विव्याधी' लोभ को तथा 'अभिव्याधी' काम के बाणों को दूर ही गिराएँ।

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    भाषार्थ

    (विव्याधिनः) विविध प्रकार से वेंधनेवाले [शत्रु] (नः) हमें (मा)१ न (विदन्) जाने तक नहीं, (मो)(विदन) जानें (अभिव्याधिन:) सम्मुख हुए वेंधनेवाले । (इन्द्र) हे इन्द्र ( अस्मत् ) हमसे (आरात्) दूर (विषूची:) नानाविध अञ्चन अर्थात् गमन करनेवाली ( शरव्या) शरसंहतीः अर्थात् शरसमूह को (पातय) प्रक्षिप्त कर, फेंक।

    टिप्पणी

    [समग्र सूक्त आध्यात्मिक भावनावाला है। तभी इसका ऋषि ब्रह्मा कहा है। ब्रह्मा है चतुर्वेदविज्ञ२ व्यक्ति । सांसारिक विषय "विव्य धिनः" हैं। हमारे आन्तरिक विषय, अर्थात् मनोगत विषय "अभिव्याधिन" हैं। दोनों प्रकार के विषय हमें वेधते हैं। इन्द्र द्वारा परमेश्वर अभिप्रेत है, जो कि पापियों के लिये रौद्ररूपवाला है।] [१. माङर्थकः "मा" शब्दः माङ्प्रतिरूपकः। २. ब्रह्मा परिवृढः श्रुतेन सर्वविद्यः सर्व वेदितुमर्हति (निरुक्त १।३।८)।]

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    विषय

    शत्रुओं का विनाश।

    भावार्थ

    यह सूक्त अपराजितगण में पढ़ा है। इसका संग्राम से सम्बन्ध है । ( नः ) हमें ( विव्याधिनः ) विशेषरूप से अस्त्रादि से प्रहार करने वाले ( मा विदन् ) न जानें और न पकड़ सकें और ( अभिव्याधिनः ) सब और से प्रहार करने वाले शत्रुपक्ष के पुरुष भी ( मा उ विदन् ) हमें न जानें और न पावें । हे इन्द्र सेनापते ! ( विषूचीः ) नाना दिशाओं में जाने वाले या विशेष तीक्ष्ण, सूचीमुख (शरव्या) वाण (अस्मत्) हमसे (आरात्) दूर ( पातय ) फेंक ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। १ इन्द्रः, २ मनुष्येषवः, ३ रुद्रः ४ सर्वे देवा देवताः। १-४ अनुष्टुप् २ पुरस्ताद् बृहती, ३ पथ्या पंक्तिः । चतुर्ऋचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    No Enemies

    Meaning

    Deadly enemies must not reach us. Deadly enemies ranged all round must never reach us. Indra, mighty ruler, control, dispose and destroy all those missiles which are directed at us. Cast them away, far from us.

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    Subject

    Indra

    Translation

    May the sharp I piercing arrows not find us, nor those piercing from all sides. May you, O resplendent Lord, make the volleys of arrows fall scattered away from us on all the sides.

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    Translation

    Let not the enemies making us their target find us, nor let those who desire to assail us discover us Indra; (the commander) make the arrows fall in directions, far from us.

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    Translation

    Let not the hostile archers overcome us, nor let those who attack us on all sides approach us. O Commander of the army, make the arrows flying in different directions fall far from us.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−नः। अस्मान्। मा+विदन्। विद्लृ लाभे, माङि लुङि। न माङ्योगे। पा० ६।४।७४। इति अडभावः। मा लभन्ताम्, विव्याधिनः। सुप्यजातौ णिनिस्ताच्छील्ये। पा० ३।२।७८। इति वि+व्यध ताडने-णिनिः। विशेषेण छेदकाः, धनुर्धराः। मो। मा+उ। मैव। अभि-व्याधिनः। पूर्ववद् णिनिः। आघातकाः, सर्वतो हननकर्तारः। मो विदन्। मैव प्राप्नुवन्तु स्पृशन्तु। आरात्। दूरदेशे। शरव्याः। शॄस्वृस्निहित्रप्यसि०। उ० १।१०। इति शॄ हिंसे−उ प्रत्ययः। उगवादिभ्यो यत्। पा० ५।१।२। इति शरु-यत् समूहार्थे। ओर्गुणः। पा० ६।४।१४६। इति गुणः। वान्तो यि प्रत्यये। पा० ६।१।७९। इति अव् आदेशः। तित् स्वरितम्। पा० ६।१।८५। इति स्वरितः। शरसमूहान् शरसंहतीः। अस्मत्। अन्यारादितरर्ते०। पा० २।३।२९। इति आराद्योगे पञ्चमी। अस्मत्तः। विषूचीः। ऋत्विग्दधृक्स्रग्दिगुष्णिगञ्चु०। पा० ३।२।५९। इति विषु+अञ्चु गतिपूजनयोः−क्विन्। अनिदिताम्०। पा० ६।४।२४। इति न लोपः। अञ्चतेश्चोपसंख्यानम्। वा० पा० ४।१।६। इति ङीप्। अचः। पा० ६।४।१३८। इति अकारलोपे। चौ। पा० ६।३।१३८। इति दीर्घः। विष्वङ् नानामुखम् अञ्चनशीलाः। सर्वत्रव्यापिनीः। इन्द्र। हे परमेश्वर। पातय। पत−णिच्। प्रक्षिप ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (বিব্যাধিনঃ) শরীর বিদারক শত্রু (নঃ) আমাকে (মা বিদন্) যেন না পৌছে। (অভিব্যাধিনঃ) চারিদিক হইতে বিনাশ কর্তা (মা বিদন্) যেন কখনো না পৌছে। (ইন্দ্ৰ) হে ঐশ্বর্যবান রাজন! (বিষূচীঃ) সর্বত্র নিক্ষিপ্ত (শরব্যাঃ) বাণ সমূহকে (অল্মৎ) আমা হইতে (আরাৎ) দূরে (পাত) নিপাতিত কর।।

    भावार्थ

    শরীর বিদারক শত্রু যেন আমার নিকট অগ্রসর না হয়, দুর্ধর্ষ আততায়ী যেন আমার নিকট অগ্রসর না হয় । হে ঐশ্বর্যবান রাজন! সর্বত্র নিক্ষিপ্ত বাণ সমূহকে আমাদের নিকট হইতে দূরে নিপাতিত কর।

    मन्त्र (बांग्ला)

    মা নো বিদন্ বিব্যাধিনো মো অভিব্যাধিনো বিদন্ । আরাচ্ছরব্য অস্মদ্ বিষুচীরিন্দ্র পাতয়।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    ব্ৰহ্মা। ইন্দ্ৰঃ। অনুষ্টুপ্

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    मन्त्र विषय

    (জয়ন্যায়োপদেশঃ) জয় এবং ন্যায়ের উপদেশ।

    भाषार्थ

    (বিব্যাধিনঃ) অত্যন্ত বিদ্ধকারী শত্রু (নঃ) আমাদের কাছে যেন (মা বিদন্) না পৌঁছায় এবং (অভিব্যাধিনঃ) চারিদিক থেকে হত্যাকারী/বধকারী (মো বিদন্) কখনো যেন না পৌঁছায় । (ইন্দ্র) হে পরম ঐশ্বর্যবান রাজন ! (বিষূচীঃ) সব দিকে বিস্তৃত (শরব্যাঃ) বাণসমূহকে (অস্মৎ) আমাদের থেকে (আরাৎ) দূরে (পাতয়) পতিত করুন ॥১॥

    भावार्थ

    সর্বরক্ষক জগদীশ্বরের প্রতি পূর্ণ শ্রদ্ধাপূর্বক চতুর সেনাপতি নিজের সেনাকে রণক্ষেত্রে এমনভাবে সজ্জিত করুক যাতে, শত্রুগণ কাছে আসতে না পারে এবং না তাদের অস্ত্র-শস্ত্রের প্রহার কাউকে লাগে ॥১॥

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    भाषार्थ

    (বিব্যাধিনঃ) বিবিধ প্রকারে ছেদনকারী/বিদ্ধকারী [শত্রু] (নঃ) আমাদের (মা ১) না (বিদন্) যেন জানে/প্রাপ্ত হয়, (মো) না (বিদন) যেন জানে/প্রাপ্ত হয় (অভিব্যাধিনঃ) সম্মুখীন/সম্মুখের ছেদনকারী। (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র ! (অস্মৎ) আমাদের থেকে (আরাৎ) দূরে (বিষূচীঃ) নানাবিধ অঞ্চন অর্থাৎ গমনকারী (শরব্যা) শরসমূহকে (পাতয়) প্রক্ষিপ্ত করুন, সরিয়ে দিন।

    टिप्पणी

    [সমগ্র সূক্ত আধ্যাত্মিক ভাবনার। তাই এর ঋষি ব্রহ্মা বলা হয়েছে। ব্রহ্মা হলেন চতুর্বেদবিজ্ঞ ২ ব্যক্তি। সাংসারিক বিষয় হলো "বিব্যাধিনঃ"। আমাদের আন্তরিক বিষয়, অর্থাৎ মনোগত বিষয় হলো "অভিব্যাধিনঃ"। দুই প্রকারের বিষয় আমাদের বিদ্ধ করে। ইন্দ্র দ্বারা পরমেশ্বর অভিপ্রেত হয়েছে, যিনি পাপীদের ক্ষেত্রে রৌদ্ররূপী হন।][১. মাঙর্থকঃ "মা" শব্দঃ মাঙ্প্রতিরূপকঃ । ২. সর্ববিদ্যঃ সর্বং বেদিতুমর্হতি ব্রহ্মা পরিবৃঢঃ শ্রুতেন (নিরুক্ত ১/৩/৮)।]

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