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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - चन्द्रमा और पर्जन्य छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रोग उपशमन सूक्त
    8

    वि॒द्मा श॒रस्य॑ पि॒तरं॑ प॒र्जन्यं॒ भूरि॑धायसम्। वि॒द्मो ष्व॑स्य मा॒तरं॑ पृथि॒वीं भूरि॑वर्पसम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒द्म । श॒रस्य॑ । पि॒तर॑म् । प॒र्जन्य॑म् । भूरि॑ऽधायसम् ।वि॒द्मो इति॑ । सु । अ॒स्य॒ । मा॒तर॑म् । पृ॒थि॒वीम् । भूरि॑ऽवर्पसम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विद्मा शरस्य पितरं पर्जन्यं भूरिधायसम्। विद्मो ष्वस्य मातरं पृथिवीं भूरिवर्पसम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विद्म । शरस्य । पितरम् । पर्जन्यम् । भूरिऽधायसम् ।विद्मो इति । सु । अस्य । मातरम् । पृथिवीम् । भूरिऽवर्पसम् ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    बुद्धि की वृद्धि के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (शरस्य) शत्रुनाशक [बाणधारी] शूर पुरुष के (पितरम्) रक्षक, पिता, (पर्जन्यम्) सींचनेवाले मेघरूप (भूरिधायसम्) बहुत प्रकार से पोषण करनेवाले [परमेश्वर] को (विद्म) हम जानते हैं। (अस्य) इस शूर की (मातरम्) माननीया माता, (पृथिवीम्) विख्यात वा विस्तीर्ण पृथिवीरूप (भूरिवर्पसम्) अनेक वस्तुओं से युक्त [ईश्वर] को (सु) भली-भाँति (विद्म उ) हम जानते ही हैं ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे मेघ, जल की वर्षा करके और पृथ्वी, अन्न आदि उत्पन्न करके प्राणियों का बड़ा उपकार करती है, वैसे ही वह जगदीश्वर परब्रह्म सब मेघ, पृथ्वी आदि लोक-लोकान्तरों का धारण और पोषण नियमपूर्वक करता है। जितेन्द्रिय शूरवीर विद्वान् पुरुष उस परब्रह्म को अपने पिता के समान रक्षक और माता के समान माननीय और मानकर्त्ता जानकर (भूरिधायाः) अनेक प्रकार से पोषण करनेवाला और (भूरिवर्पाः) अनेक वस्तुओं से युक्त होकर परोपकार में सदा प्रसन्न रहे ॥१॥

    टिप्पणी

    १−विद्म। विद ज्ञाने-लट्। अदादित्वात् शपो लुक्। द्व्यचोऽतस्तिङः। पा० ६।१।१३५। इति सांहितिको दीर्घः। वयं जानीमः। शरस्य। शृणाति शत्रून्। ॠदोरप्। पा० ३।३।५७। इति श्रॄ हिंसायाम्-अप्। शत्रुनाशकस्य बाणस्य। अथवा, शरो बाणः तदस्यास्ति। अर्शआदिभ्योऽच्। पा० ५।२।१२७। इति मत्वर्थे अच्। बाणवतः शूरपुरुषस्य। पितरम्। नप्तृनेष्टृत्वष्टृ०। उ० २।९५। इति पा रक्षणे-तृन् वा तृच् निपातनात् साधुः। रक्षकम्। जनकम्। पर्जन्यम्। पर्षति सिञ्चति वृष्टिं करोतीति पर्जन्यः। पर्जन्यः। उ० ३।१०३। इति पृषु सेचने-अन्य प्रत्ययः, षस्य जकारः। पर्जन्यस्तृपेराद्यन्तविपरीतस्य तर्पयिता जन्यः परो जेता वा जनयिता वा प्रार्जयिता वा रसानाम्-निरु० १०।१०। सेचकम्। मेघम्। मेघवद् उपकर्त्तारम्। भूरि-धायसम्। वहिहाधाभ्यश्छन्दसि। उ० ४।२२१। इति भूरि+डुधाञ् धारणपोषणयोः दाने च-असुन्, स च णित्। आतो युक् चिण्कृतोः। पा० ७।३।३३। इति युक्। बहुपदार्थधारयितारं सृष्टेः पोषयितारं परमेश्वरं विद्मो इति। विद्म-उ। वयं जानीम एव। सु। सुष्ठु। अस्य। शरस्य। मातरम्। मान्यते पूज्यते सा माता। नप्तृनेष्टृत्वष्टृ। उ० २।९५। इति मान पूजायाम्-तृन् वा तृच् निपातः। माननीयाम्। जननीम्। पृथिवीम्। १।३०।३। प्रथिम्रदिभ्रस्जां सम्प्रसारणं सलोपश्च। उ० १।२८। इति प्रथ प्रख्याने-कु। वोतो गुणवचनात्। पा० ४।१।४४। इति। पृथु-ङीप्। विस्तीर्णा प्रख्याता वा पृथिवी। अथवा, प्रथते विस्तीर्णा भवतीति पृथिवी। प्रथेः षिवन्षवन्ष्वनः संप्रसारणं च। उ० १।१५०। इति प्रथ ख्यातौ विस्तारे-षिवन्, संप्रसारणं च। षिद्गौरादिभ्यश्च। पा० ४।१।४१। इति ङीप्। भूमिम्। भूमिवद् गुणवन्तम्। भूरिवर्पसम्। ध्रियते स्वीक्रियते तत्। वर्पो रूपम्-निघ० ३।७। वृङ्शीङ्भ्यां रूपस्वाङ्गयोः पुट् च। उ० ४।२०१। इति वृङ् स्वीकरणे−असुन्, पुट् आगमः। भूरीणि बहूनि रूपाणि वस्तूनि यस्मिन् स भूरिवर्पाः। अनेकवस्तुयुक्तं परमेश्वरम् ॥

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    विषय

    ओषधियों के लिए शर-[बाण]-भूत 'शर'

    पदार्थ

    १. गत सूक्त का आचार्य विद्यार्थी को 'शर' नामक ओषधि का महत्त्व समझाता है। ('सरस्तु मुजो बाणाख्यो गुन्द्रस्तेजनकः शरः') = यह कोश-वाक्य स्पष्ट कह रहा है कि यह 'शर' सर है [स गती], जीवन को गतिमय बनानेवाला अथवा रुधिर की गति को उत्तम करनेवाला। यह "मुज' है [मृञ्ज शुद्धि] शरीर की धातुओं का शोधन करनेवाला है। इसका नाम 'बाण' है। यह वाणी को शक्ति का उत्पादक है। 'गुन्द्र' होने से [गुद् to goad] नाड़ी-संस्थान का उत्तेजक है। तेजस्वी बनाने से 'तेजनक' नामवाला है और सब दोषों का हिंसन करने से 'शर' [शू हिंसायाम्] है। इसलिए ब्रह्मचारी का आसन भी इसी तृण का बनाया जाता है, उसकी मेखला भी इसी से बनती है। २. हम इस (शरस्य) = शर के (पितरम्) = उत्पादक को (वि॒द्म) = जानते हैं। वह (पर्जन्यम्) = परातृति का जनक बादल ही तो है जो (भूरिधायसम्) = बहुतों का धारण व पालन करनेवाला है। बादल से बरसाये गये पानी से इस शर की उत्पत्ति होती है। हम (अस्य) = इस शर की (मातरम्) = माता के समान जन्म देनेवाली इस (पृथिवीम्) = पृथिवी को भी (सुविद्म) = अच्छी प्रकार जानते हैं, जोकि (भूरिवर्पसम्) = अत्यन्त सुन्दर आकारवाली अथवा तेजस्वितावाली है। ३. जैसे माता-पिता के गुण पुत्र में आते हैं, उसी प्रकार बादल व पृथिवी के गुण इस शर में आये हैं। एवं, यह 'शर' भूरिधायस् व भूरिवर्पस् है। यह हमारा धारण करता है तथा हमें तेजस्विता व सुन्दर आकृति प्राप्त कराता है।

    भावार्थ

    'शर' [मूंज] के उचित प्रयोग से हम स्वस्थ व तेजस्वी बनें।

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    भाषार्थ

    (विद्म) हम जानते हैं, (शरस्य) शर के (पितरम्) पिता को (पर्जन्यम्) अर्थात् पर्जन्य को, (भूरिधायसम्) जोकि बहुतों का धारण-पोषण करता है। (विध उ) और हम (सु) अच्छे प्रकार जानते हैं (अस्य) इस शर की (मातरम् ) माता ( पृथिवीम् ) पृथिवी को ( भूरिवर्पसम्) जोकि बहुत रूपोंवाली है ।

    टिप्पणी

    [पर्जन्यम् =पालयिता चासौ जन्यः, जनहितकारी च मेघः । भूरिधायसम् = भूरि+धा (धारण-पोषण-कर्ता)+युक् (आतो युक् चिकृतोः)+ कर्तरि असुन् । भूरिवर्पसम्=भूरि+ वर्पस् है रूपनाम (निधं० ३।७ ) । अथवा शर=आत्मा, "प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा" (मुण्डक० २।२।४)। सूक्त आध्यात्मिकार्थक भी है । मन्त्र में पर्जन्य, शर तथा भूरिधायसम्, परमेश्वरार्थक भी हैं। इस प्रकार सूक्त १ और २ में विषय-साम्य हो जाता है। पर्जन्यम्=पृ पालने +जन्यम् ।]

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    विषय

    बाण, शर और कानून का वर्णन

    भावार्थ

    यह सूक्त संग्राम सम्बन्धी है। ज्वर, अतिसार, अतिमूत्र, नाड़ीब्रण आदि व्याधियों को शान्त करने के लिये इस में मुंज, शरकाण्ड आदि के गुण भी बतलाये हैं। (शरस्य) बाण, अर्थात् विनाशक स्वभाव शरकाण्ड के (पितरं) उत्पादक ( भूरिधायसं ) बहुत प्रकार से पालन पोषण करनेहारे, ( पर्जन्यं ) मेघ के समान समस्त जनों के हितकारी और तृप्त करने हारे ( पितरं ) परिपालक को ( विद्मः ) हम जानते हैं । ( अस्य ) इसके ( मातरं ) निर्माण करने वाली, उत्पादक ( भूरिवर्पसं ) नाना प्रकार के चर, अचर, प्राणियों को धारण करने वाली पृथिवी को भी ( सु विद्मः ) उत्तम प्रकार से जानें । क्षत्रिय पक्ष में शत्रु के विनाशक राजा के सिपाही लोग शर हैं। उसका पिता, परिपालक राजा सब प्रजाओं का हितकारी, समस्त प्रजाओं का पोषक होता है। वही उत्तम सिपाही या सेना को संग्रह कर सकता है। उस सैनिक की माता पृथिवी वह राष्ट्र स्वयं है, जिसमें नाना स्वभावों के मनुष्यों का निवास है। भैषज्यपक्ष में—शरकाण्ड का पिता वह पर्जन्य मेघ है जो खूब ओषधियों को जल से तृप्त करता है और नाना ओषधियों की उत्पादक भूमि ही उत्तम शर को भी उत्पन्न करती है अथवा—( भूरिधायस पर्जन्यं एव शरस्य पितरं विद्मः ) नाना प्रजाओं के पोषक, मेघके समान प्रजाके हितकारी, उनको सन्तुष्ट करने हारे राजा को ही (शरस्य) हिंसक सेना वा दण्डव्यवस्था (=कोड* ) का परिपालक जानते हैं, और ( भूरिवर्पसं पृथिवीं अस्य मातरं सु विद्मः ) नाना प्रकार की प्रजाको धारण करने वाली पृथिवी अर्थात् राष्ट्र को या प्रजा को इस दण्डव्यवस्था की माता, निर्माता जानते हैं अर्थात् दण्डव्यवस्था का निर्माण करना प्रजाके हाथ में और उसका पालन करना कराना राजा के हाथ में होना उचित है ।

    टिप्पणी

    ‘शर’ या ‘काण्ड’ शब्द प्राचीन काल में व्यवस्थापुस्तक, स्मृति अथवा कोड या कानून के लिये भी प्रयोग होते थे । इस का अपभ्रंश ‘कानून’ ‘Canon’ आदि शब्द है और शरह, शरियत आदि शब्द अरबी में इस ‘शर’ शब्द का अपभ्रंश है। देखो Etymological Dictionary by Keath.

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। अमृतमयः पर्जन्यश्चन्द्रमा देवता। १, २, ४, अनुष्टुप् छन्द, ३ त्रिपदा विराड् गायत्री। चतुर्ऋचं सुक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Hymn of Victory

    Meaning

    We know the shara’s father, abundant all sustaining Parjanya, water bearing cloud in the firmament, and its mother, fertile all bearing Prthivi, earth, too we know well. (Shara is a reed which has great medicinal qualities. It is also an arrow, a weapon of defence, victory and freedom. It is also interpreted as a son, a brave youthful hero. And the hymn celebrates victory over illness, enemies, and the difficulties of life.)

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    Subject

    Parjanyah

    Translation

    We know the showering cloud as the father of the reed, with which an arrow is made, that nourishes in various ways.We also know very well earth, as its mother, the earth imparting profuse designs.

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    Translation

    We know the rain which is the father, the protector of the Shara, a medicinal grass and highly nourishing. We know well its mother the earth which is the place of its growth and is full of multifarious energies.

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    Translation

    We know God, the Liberal Nourisher, like the cloud, as the Father (Protector) of the warrior, who wields the shaft. We know well, God, equipped with diverse objects, and vast like the Earth, as his revered Mother.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−विद्म। विद ज्ञाने-लट्। अदादित्वात् शपो लुक्। द्व्यचोऽतस्तिङः। पा० ६।१।१३५। इति सांहितिको दीर्घः। वयं जानीमः। शरस्य। शृणाति शत्रून्। ॠदोरप्। पा० ३।३।५७। इति श्रॄ हिंसायाम्-अप्। शत्रुनाशकस्य बाणस्य। अथवा, शरो बाणः तदस्यास्ति। अर्शआदिभ्योऽच्। पा० ५।२।१२७। इति मत्वर्थे अच्। बाणवतः शूरपुरुषस्य। पितरम्। नप्तृनेष्टृत्वष्टृ०। उ० २।९५। इति पा रक्षणे-तृन् वा तृच् निपातनात् साधुः। रक्षकम्। जनकम्। पर्जन्यम्। पर्षति सिञ्चति वृष्टिं करोतीति पर्जन्यः। पर्जन्यः। उ० ३।१०३। इति पृषु सेचने-अन्य प्रत्ययः, षस्य जकारः। पर्जन्यस्तृपेराद्यन्तविपरीतस्य तर्पयिता जन्यः परो जेता वा जनयिता वा प्रार्जयिता वा रसानाम्-निरु० १०।१०। सेचकम्। मेघम्। मेघवद् उपकर्त्तारम्। भूरि-धायसम्। वहिहाधाभ्यश्छन्दसि। उ० ४।२२१। इति भूरि+डुधाञ् धारणपोषणयोः दाने च-असुन्, स च णित्। आतो युक् चिण्कृतोः। पा० ७।३।३३। इति युक्। बहुपदार्थधारयितारं सृष्टेः पोषयितारं परमेश्वरं विद्मो इति। विद्म-उ। वयं जानीम एव। सु। सुष्ठु। अस्य। शरस्य। मातरम्। मान्यते पूज्यते सा माता। नप्तृनेष्टृत्वष्टृ। उ० २।९५। इति मान पूजायाम्-तृन् वा तृच् निपातः। माननीयाम्। जननीम्। पृथिवीम्। १।३०।३। प्रथिम्रदिभ्रस्जां सम्प्रसारणं सलोपश्च। उ० १।२८। इति प्रथ प्रख्याने-कु। वोतो गुणवचनात्। पा० ४।१।४४। इति। पृथु-ङीप्। विस्तीर्णा प्रख्याता वा पृथिवी। अथवा, प्रथते विस्तीर्णा भवतीति पृथिवी। प्रथेः षिवन्षवन्ष्वनः संप्रसारणं च। उ० १।१५०। इति प्रथ ख्यातौ विस्तारे-षिवन्, संप्रसारणं च। षिद्गौरादिभ्यश्च। पा० ४।१।४१। इति ङीप्। भूमिम्। भूमिवद् गुणवन्तम्। भूरिवर्पसम्। ध्रियते स्वीक्रियते तत्। वर्पो रूपम्-निघ० ३।७। वृङ्शीङ्भ्यां रूपस्वाङ्गयोः पुट् च। उ० ४।२०१। इति वृङ् स्वीकरणे−असुन्, पुट् आगमः। भूरीणि बहूनि रूपाणि वस्तूनि यस्मिन् स भूरिवर्पाः। अनेकवस्तुयुक्तं परमेश्वरम् ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (শরস্য) শত্রুনাশক বাণধারী বীর পুরুষের (পিতরম্) রক্ষক (পর্জন্যম্) সিঞ্চনকারী মেঘের ন্যায় (ভুরিধায়সম্) বহু প্রকারে পোষণকারী পরমেশ্বরকে (বিদ্ম) আমরা জানি। (অস্য) এই বীর পুরুষের (মাতরম্) মাননীয়া মাতা (পৃথিবীম্) বিস্তৃত পৃথ্বী রূপ (ভুরি বৰ্পসম্) বহু পদার্থ যুক্ত ঈশ্বরকে (সু) ভাল ভাবে (বিষ্ম উ) আমরা জানিই।।
    (শরস্য) শৃণাতি শত্রুণ্। শৃ হিংসে অপ্। যে শত্রুকে নাশ করে । বাণ বা বীর । (মাতরম্) মান্যতে পূজাতে সা মাতা । মান পুজায়াম্ তৃন্ বা তুচ। যিনি মাননীয়া পূজনীয়া তিনি মাতা।।

    भावार्थ

    পরমাত্মা শত্রুনাশক বাণধারী বীর পুরুষের রক্ষক পিতা এবং সিঞ্চনকারী মেঘের ন্যায় বহু প্রকারে পোষণকারী । তিনি বীর পুরুষদের নিকট পূজনীয়া মাতা, পৃথিবীর ন্যায় বহু পদার্থ যুক্ত। তাহাকে আমরা ভাল ভাবেই অবগত হইয়াছি।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    বিদ্মা শরস্য পিতরং পর্জন্যং ভুরি ধায়সন্। বিদ্মা স্বস্য মাতরং পৃথিবীং ভুরি বর্পসম্ ।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    অর্থবা। পর্জন্যঃ। অনুষ্টুপ্

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    मन्त्र विषय

    (বুদ্ধিবৃদ্ধ্যুপদেশঃ) বুদ্ধির বৃদ্ধির জন্য উপদেশ।

    भाषार्थ

    (শরস্য) শত্রুনাশক [বাণধারণকারী] বীর পুরুষের (পিতরম্) রক্ষক, পিতা, (পর্জন্যম্) সিঞ্চনকারী মেঘ রূপ, (ভূরিধায়সম্) বিবিধ প্রকারে পোষণকারী [পরমেশ্বর] কে (বিদ্ম্) আমি জানি। (অস্য) এই বীরের মাননীয় মাতা, (পৃথিবীম্) বিখ্যাত বা বিস্তীর্ণ পৃথিবীরূপ (ভূরিবর্পসম্) অনেক বস্তু যুক্ত [ঈশ্বর] কে (সু) উত্তম রূপে (বিদ্ম উ) আমি জানি ॥১॥

    भावार्थ

    যেভাবে মেঘ, জলের বর্ষা করে এবং পৃথিবী, অন্ন আদি উৎপন্ন করে প্রাণীদের উপকার করে, তেমনই সেই জগদীশ্বর পরব্রহ্ম সব মেঘ, পৃথিবী আদি লোক-লোকান্তরের ধারণ এবং পোষণ নিয়মপূর্বক করেন। জিতেন্দ্রিয় শৌর্যশালী বিদ্বান্ পুরুষ সেই পরব্রহ্মকে নিজের পিতার সমান রক্ষক এবং মাতার সমান মাননীয় এবং মানকর্ত্তা জেনে (ভূরিধায়াঃ) অনেক প্রকারে পোষণকারী এবং (ভূরিবর্পাঃ) অনেক বস্তু যুক্ত হয়ে পরোপকারে যেন সদা প্রসন্ন থাকে ॥১॥

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    भाषार्थ

    (বিদ্ম) আমরা জানি/জ্ঞাত, (শরস্য) শরের (পিতরম্) পিতাকে (পর্জন্যম্) অর্থাৎ পর্জন্যকে, (ভূরিধায়সম্) যা অনেকের ধারণ-পোষণ করে। (বিধ উ) এবং আমরা (সু) উত্তমরূপে জানি/জ্ঞাত (অস্য) এই শরের (মাতরম্) মাতা (পৃথিবীম্) পৃথিবীকে (ভূরিবর্পসম্) যা অনেক রূপ-বিশিষ্ট।

    टिप्पणी

    [পর্জন্যম্ =পালয়িতা চাসৌ জন্যঃ, জনহিতকারী চ মেঘঃ। ভূরিধায়সম্ = ভূরি+ধা (ধারণ-পোষণ-কর্তা)+যুক্ (আতো যুক্ চিণ্কৃতোঃ)+ কর্তরি অসুন্ । ভূরিবর্পসম্=ভূরি+ বর্পস্ হল রূপনাম (নিঘং০ ৩।৭) । অথবা শর=আত্মা, “প্রণবো ধনুঃ শরো হ্যাত্মা” (মুণ্ডক০ ২।২।৪)। সূক্ত আধ্যাত্মিকার্থকও । মন্ত্রে পর্জন্য, শর ও ভূরিধায়সম্, পরমেশ্বরার্থকও হয়। এইভাবে সূক্ত ১ ও ২ এ বিষয়-সাম্য হয়ে যায়। পর্জন্যম্=পৄ পালনে +জন্যম্ ।]

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