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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 20/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - सोमो मरुद्गणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
    2

    अदा॑रसृद्भवतु देव सोमा॒स्मिन्य॒ज्ञे म॑रुतो मृ॒डता॑ नः। मा नो॑ विददभि॒भा मो अश॑स्ति॒र्मा नो॑ विदद्वृजि॒ना द्वेष्या॒ या ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अदा॑रऽसृत् । भ॒व॒तु॒ । दे॒व॒ । सो॒म॒ । अ॒स्मिन् । य॒ज्ञे । म॒रु॒त॒: । मृ॒डत॑ । न॒: । मा । न॒: । वि॒द॒त् । अ॒भि॒ऽभा: । मो इति॑ । अश॑स्ति: । मा । न॒: । वि॒द॒त् । वृ॒जि॒ना । द्वेष्या॑ । या ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदारसृद्भवतु देव सोमास्मिन्यज्ञे मरुतो मृडता नः। मा नो विददभिभा मो अशस्तिर्मा नो विदद्वृजिना द्वेष्या या ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अदारऽसृत् । भवतु । देव । सोम । अस्मिन् । यज्ञे । मरुत: । मृडत । न: । मा । न: । विदत् । अभिऽभा: । मो इति । अशस्ति: । मा । न: । विदत् । वृजिना । द्वेष्या । या ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 20; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रुओं से रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (देव) हे प्रकाशमय, (सोम) उत्पन्न करनेवाले परमेश्वर ! [वह शत्रु] (अदारसृत्) डर का न पहुँचानेवाला अथवा अपने स्त्री आदि के पास न पहुँचनेवाला (भवतु) होवे, (मरुतः) हे [शत्रुओं के] मारनेवाले देवताओं ! (अस्मिन्) इस (यज्ञे) पूजनीय काम में (नः) हम पर (मृडत) अनुग्रह करो। (अभिभाः) सन्मुख चमकती हुई, आपत्ति (नः) हम पर (मा विदत्) न आ पड़े और (मो=माउ) न कभी (अशस्तिः) अपकीर्ति और (या) जो (द्वेष्या) द्वेषयुक्त (वृजिना) पापबुद्धि है [वह भी] (नः) हम पर (मा विदत्) न आ पड़े ॥१॥

    भावार्थ

    सब मनुष्य परमेश्वर के सहाय से शत्रुओं को निर्बल कर दें अथवा घरवालों से अलग रक्खें और विद्वान् शूरवीरों से भी सम्मति लेवें, जिससे प्रत्येक विपत्ति, अपकीर्त्ति और कुमति हट जाय और निर्विघ्न अभीष्ट सिद्ध होवे ॥१॥ मरुत् देवताओं के बिजुली आदि के विमान हैं, इस पर वैज्ञानिकों को विशेष ध्यान देना चाहिये−ऋग्वेद १।८८।१। में वर्णन है ॥ आ वि॒द्युन्म॑द्भिर्मरुतः स्व॒र्कैः रथे॑भिर्यात ऋष्टि॒मद्भि॒रश्व॑पर्णैः। आवर्षि॑ष्ठया न इ॒षा वयो न प॑प्तता सुमायाः ॥१॥ (मरुतः) हे शूर महात्माओ ! (विद्युन्मद्भिः) बिजुलीवाले, (स्वर्कैः) अच्छी ज्वालावाले [वा अच्छे विचारों से बनाये गये] (ऋष्टिमद्भिः) दो-धारा तलवारोंवाले [आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ, ऊपर-नीचे चलाने की कलाओंवाले] (रथेभिः) रथों से (आयात) तुम आओ और (सुमायाः) हे उत्तम बुद्धिवाले ! (नः) हमारे लिये (वर्षिष्ठया) अति उत्तम (इषा) अन्न के साथ (वयो न) पक्षियों के समान (आपप्तत) उड़ कर चले आओ ॥

    टिप्पणी

    १−अदारसृत्। दारजारौ कर्तरि णिलुक् च। वार्तिकम्। पा० ३।३।२०। इति दॄ विदारणे−णिच्−घञ्। णिलुक् च। सृ गतौ−णिचि क्विप्। दारं दरं भयं सारयतीति दारसृत्। न दारसृत् अदारसृत् अभयप्रापकः, अहानिकरः। अथवा दारयन्ति दुःखानि विदारयन्ति यास्ताः स्त्रियः। स्त्र्यादिगृहस्थाः। दार+सृ−क्विप्। अगृहगामी। देव। हे दीप्यमान ! सोम। १।६।२। हे सर्वोत्पादक परमेश्वर ! यज्ञे। १।९।४। पूज्यकर्मणि यागे, अध्वरे। मरुतः। मृग्रोरुतिः। उ० १।९४। इति मृञ् प्राणत्यागे−उति। मारयन्ति नाशयन्ति दुष्टान् दुर्गन्धादिदुर्गुणान् वा ते मरुतः, देवाः। वायुः। ऋत्विजः−निघ० ३।१८। मरुत् हिरण्यनाम−निघ० १।२। हे शूरवीरा देवाः। मृडत। मृड सुखने−लोट् मृडयत, सुखयत। नः। अस्मान् [त्रिवारं वर्तते] मा विदत्। १।१९।१। विद्लृ लाभे−लुङ्। मा लभताम्, मा प्राप्नोतु। अभि-भाः। अभि, धर्षणे, आभिमुख्ये वा+भा दीप्तौ−क्विप्। अभिभूय भाति दीप्यते। अभिभाः=अभिभूतिः−निरु० ८।४। परोपद्रवः। आपत्तिः। मो। मा-उ। मैव। अशस्तिः। शंसु स्तुतौ−क्तिन्। अकीर्त्तिः। वृजिना। वृजेः किच्च। उ० २।४७। इति वृजी वर्जने−इनच् स च कित्, टाप्। यद्वा। अर्शआदिभ्योऽच्। पा० ५।२।१२७। इति वृजन−अस्त्यर्थे अच् टाप् च। वृजनं पापमस्यामस्तीति वृजना। वक्रा, कुटिला, पाप−बुद्धिः। द्वेष्या। ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। इति द्विष अप्रीतौ−कर्मणि ण्यत्। द्वेषणीया, अप्रीता ॥

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    विषय

    अदारसृत् [एकता का मार्ग]

    पदार्थ

    १. 'देव और सोम' ये दोनों सम्बोधन एकता के लिए साधनों का संकेत कर रहे हैं। हम देव बनें-प्रकाशमय जीवनवाले बनें तथा सौम्य स्वभाव को अपनाएँ-अभिमान से दूर हों। ज्ञान व निरभिमानता हमें एकता के मार्ग पर चलानेवाले होंगे। हे (देव) = दिव्य गुणों के पुञ्ज ! (सोम) = शान्त प्रभो! आप ऐसी कृपा कीजिए कि आपकी उपासना से (अस्मिन् यज्ञे) = इस जीवन यज्ञ में (अदारसृत् भवतु) = हमारा मार्ग [सूत्] फूट [दार] का न हो। हम ('सं गच्छध्वं संवदध्वम्') का ही पाठ पढ़कर चलें। हमारा जीवन फूट से ऊपर उठकर सचमुच यज्ञ [संगतिकरण] का हो। २. हे (मरुतः) = प्राणो! (नः मृडत) = हमें सुखी करो। प्राणसाधना के द्वारा हमारे मन निर्मल हों, हम राग-द्वेष से ऊपर उठकर परस्पर मेल की भावनावाले हों। ३. इसप्रकार पारस्परिक मेल से (न:) = हमें (अभिभा) = पराभव (मा विदत्) = मत प्राप्त हो-शत्रु हमें पराभूत न कर सकें। एकता की शक्ति हमें अजेय बना दे (उ) = और (अशस्ति:) = अपकीर्ति व कोई भी अशुभ वस्तु (मा) = मत प्राप्त हो तथा विशेषकर (या) = जो (द्वेष्या) = परस्पर अप्रीति की कारणभूत (वृजिना) = कुटिलता है, वह (न:) = हमें (मा विदत्) = मत प्राप्त हो। हम 'अभिभा, अशस्ति, व वृजिन' से ऊपर उठ सकें। एकता के अभाव में ही पराभव, अपकीर्ति व कुटिलताएँ पनपा करती हैं।

    भावार्थ

    हमारा जीवन यज्ञमय हो, हम कभी फूट के मार्ग पर न चलें। हम पराभव, अपकीर्ति व कुटिलता से बचें।

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    भाषार्थ

    (देव सोम) हे विजिगीषु सेनानायक! (अस्मिन् यज्ञे) इस युद्धयज्ञ में (अदारसृत् ) न विदारण कर सकनेवाले के सदृश हमारी ओर सरण करनेवाला (भवतु) शत्रु१ हो, (मरुतः) हे मारने में कुशल सैनिको ! (न:) हमें (मृडत) सुखी करो। (नः) हमें (अभिभा:) पराभव (मा विदत्) न प्राप्त हो, (मो अशस्ति) न अप्रशंसा अर्थात् पराभव से प्राप्त निन्दा प्राप्त हो। (मा नो विदत्) न हमें प्राप्त हों (वृजिना=वृजिनानि) पाप२ (द्वेष्या या = द्वेष्याणि यानि) जो कि हमें अप्रिय हैं ।

    टिप्पणी

    [सोम= सेना का प्रेरक अर्थात् नायक सेनापति (यजु० १७।४९)। सोमः=षू प्रेरणे (तुदादिः)। देव= देवु क्रीड़ा "विजिगीषा" (दिवादिः) । मरुतः= मारने में कुशल सैनिक (यजु० १७।४७ ) । ये हैं तामसास्त्र फेंकने वाले सैनिक । तामसास्त्र शत्रु सैनिकों पर फेंका जाता है, जिससे वहाँ अन्धकार फैल जाता है और वे एक-दूसरे को न पहिचानते हुए, परस्पर का हनन करते हुए, मृत्यु को प्राप्त करते हैं (यजु० १७।४७)। तथा (यजु० १७।४०, ४४, ४५, ४७)। तथा (अथर्व० ६।३२।३)।] [१. जो हो तो निर्बल परन्तु अपने को प्रबल जानकर हम पर आक्रमण करता है। २. शत्रु द्वारा किये जानेवाले हम पर पापकर्म, हत्यारूप कर्म]

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    विषय

    राजा के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (देव) प्रकाशमान ! हे (सोम) सेना के प्रेरक सेनापते ! हमारा शत्रु ( अदारसृद् ) हमारी स्त्रीयो का मानभंग करने वाला न ( भवतु ) हो । और ( अस्मिन् ) इस ( यज्ञे ) यज्ञ या संग्राम में ( मरुतः ) मरुद गण, प्राण, सुभट और वैश्यगण ( नः ) हमें ( मृडत ) सुख आनन्द दें। ( अभिभाः ) हमारे मुकाबले पर आने वाला शत्रु ( नः ) हमें ( मा विदद् ) न पासके । ( अशस्तिः ) कीर्तिरहित शत्रु ( मा उ ) हमें न पा सके और ( वृजिना ) पापी और ( या ) जो ( द्वेष्याणि ) द्वेष करने हारे या ( द्वेष्याणि वृजिनानि ) द्वेष के कारण उत्पन्न पाप भी ( नः ) हमें ( मा विदद् ) न प्राप्त हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः । १ सोमः, २ मरुतः, ३ मित्रावरुणौ, ४ इन्द्रो देवता । १ त्रिष्टुप् २-४ अनुष्टुप्। चतुऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    No Enemies

    Meaning

    None shall violate the dignity and sanctity of our women. O Soma, ruler, lover of peace and commander of power, let Maruts, stormy troops of our defence forces, protect and promote us in this yajnic social order. Let no enemy, no despicable maligner, no wicked man, nor hater approach and touch us in the self-government of the social order.

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    Subject

    Soma and Marut:

    Translation

    O blissful Lord, may you be gliding without causing injury. May the cloud-bearing winds delight us at this sacrifice. May not a calamity reach us, nor a revilement (vilification). May not a malicious sin detect and find us out.

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    Translation

    O' powerful commander; let not my enemy spoil our women, let the personnels of army perform the act of grace for us in this war. Let not our assailants find us, let not any kind of disgrace come near us now nor let the enmities which are abominable have their access to us.

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    Translation

    O Refulgent God, let us commit no act of disunity. O pure souls, be gracious unto us, in this noble deed of ours. Let not defeat touch us. Let not infamy approach us. Let not the sins emanating from enmity come near us.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−अदारसृत्। दारजारौ कर्तरि णिलुक् च। वार्तिकम्। पा० ३।३।२०। इति दॄ विदारणे−णिच्−घञ्। णिलुक् च। सृ गतौ−णिचि क्विप्। दारं दरं भयं सारयतीति दारसृत्। न दारसृत् अदारसृत् अभयप्रापकः, अहानिकरः। अथवा दारयन्ति दुःखानि विदारयन्ति यास्ताः स्त्रियः। स्त्र्यादिगृहस्थाः। दार+सृ−क्विप्। अगृहगामी। देव। हे दीप्यमान ! सोम। १।६।२। हे सर्वोत्पादक परमेश्वर ! यज्ञे। १।९।४। पूज्यकर्मणि यागे, अध्वरे। मरुतः। मृग्रोरुतिः। उ० १।९४। इति मृञ् प्राणत्यागे−उति। मारयन्ति नाशयन्ति दुष्टान् दुर्गन्धादिदुर्गुणान् वा ते मरुतः, देवाः। वायुः। ऋत्विजः−निघ० ३।१८। मरुत् हिरण्यनाम−निघ० १।२। हे शूरवीरा देवाः। मृडत। मृड सुखने−लोट् मृडयत, सुखयत। नः। अस्मान् [त्रिवारं वर्तते] मा विदत्। १।१९।१। विद्लृ लाभे−लुङ्। मा लभताम्, मा प्राप्नोतु। अभि-भाः। अभि, धर्षणे, आभिमुख्ये वा+भा दीप्तौ−क्विप्। अभिभूय भाति दीप्यते। अभिभाः=अभिभूतिः−निरु० ८।४। परोपद्रवः। आपत्तिः। मो। मा-उ। मैव। अशस्तिः। शंसु स्तुतौ−क्तिन्। अकीर्त्तिः। वृजिना। वृजेः किच्च। उ० २।४७। इति वृजी वर्जने−इनच् स च कित्, टाप्। यद्वा। अर्शआदिभ्योऽच्। पा० ५।२।१२७। इति वृजन−अस्त्यर्थे अच् टाप् च। वृजनं पापमस्यामस्तीति वृजना। वक्रा, कुटिला, पाप−बुद्धिः। द्वेष्या। ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। इति द्विष अप्रीतौ−कर्मणि ण्यत्। द्वेषणीया, अप्रीता ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (দেব) হে প্রকাশময় (সোমং) সর্বোৎপাদক পরমেশ্বর ! এই শত্রু (অদারসৃৎ) স্ত্রী আদির নিকট পৌছিতে অসমর্থ (ভবতু) হউক। (মরুতঃ) হে শত্রু নাশক বিদ্বানগণ! (অস্মিন্) এই (য়জ্ঞে) যজ্ঞে (নঃ) আমাদের উপর (মৃত) অনুগ্রহ কর। (অভিভাঃ) সম্মুখে দৃষ্ট বিপদ (নঃ) আমাদের উপর (মা বিদৎ) না পড়ুক। (মা উ) না কখনো (অশস্তিঃ) অপকীৰ্ত্তি ও (য়া) যাহা (দ্বেষ্যা) দ্বেষযুক্ত (বৃজিনা) পাপ বুদ্ধি তাহাও (নঃ) আমাদের উপর (মা বিদৎ) না পড়ুক।।

    भावार्थ

    হে প্রকাশময় সর্বোৎপাদক পরমাত্মন! আমার এই শত্রু যেন আর স্বগৃহে ফিরিতে না পারে। হে শত্রুনাশক বিদ্বানগণ! এই শুভ কর্মে আমাদের উপর অনুগ্রহ কর। আমাদের সম্মুখস্থিত বিপদ যেন আমাদের উপর না আসে। অপকীর্তি ও দ্বেষময় পাপ যেন কখনো আমাদের উপর না আসে।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    অদারসৃদ্ ভবতু দেব সোমাস্মিন্ য়জ্ঞে মরুতো মৃড়তানঃ মানো বিদদভিভা মো অশস্তিৰ্মা নো বিদদ্‌ বৃজিনা দ্বেস্যা য়া।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    অর্থবা। সোমঃ মরুতশ্চ। ত্রিষ্টুপ্

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    मन्त्र विषय

    (শত্রুভ্যো রক্ষণোপদেশঃ) শত্রুদের থেকে রক্ষার উপদেশ

    भाषार्थ

    (দেব) হে প্রকাশময়, (সোম) উৎপন্নকারী পরমেশ্বর ! [সেই শত্রু] (অদারসৃৎ) ভীতি অপ্রেরণকারী অথবা নিজের স্ত্রী আদির কাছে অপ্রেরিত (ভবতু) হোক, (মরুতঃ) হে [শত্রুদের] বিনাশকারী দেবতাগণ ! (অস্মিন্) এই (যজ্ঞে) পূজনীয় কর্মে (নঃ) আমাদের প্রতি (মৃডত) অনুগ্রহ করো। (অভিভাঃ) সন্মুখে দীপ্ত আপদ (নঃ) আমাদের উপর (মা বিদৎ) এসে না পতিত হোক এবং (মো=মাউ) না কখনও (অশস্তিঃ) অপকীর্তি এবং (যা) যে (দ্বেষ্যা) দ্বেষযুক্ত (বৃজিনা) পাপবুদ্ধি রয়েছে [সেগুলোও] (নঃ) আমাদের উপর (মা বিদৎ) না পতিত হোক ॥১॥

    भावार्थ

    সকল মনুষ্য পরমেশ্বরের সহায়তা দ্বারা শত্রুদের নির্বল করুক অথবা বাড়ির লোকদের থেকে পৃথক রাখুক এবং বিদ্বান বীরদের থেকেও সম্মতি গ্রহণ করুক, যাতে প্রত্যেক বিপত্তি, অপকীর্ত্তি এবং কুমতি অপসারিত হয় এবং নির্বিঘ্ন অভীষ্ট সিদ্ধ হয় ॥১॥ মরুৎ দেবতাদের বিদ্যুৎ আদির বিমান রয়েছে, এর উপর বৈজ্ঞানিকদের বিশেষ ধ্যান দেওয়া উচিত–ঋগ্বেদ ১।৮৮।১ মন্ত্রে বর্ণনা রয়েছে ॥ আ বি॒দ্যুন্ম॑দ্ভির্মরুতঃ স্ব॒র্কৈঃ রথে॑ভির্যাত ঋষ্টি॒মদ্ভি॒র়শ্ব॑পর্ণৈঃ। আবর্ষি॑ষ্ঠ্যা ন ই॒ষা বয়ো ন প॑প্ততা সুমায়াঃ ॥১॥ (মরুতঃ) হে বীর মহাত্মাগণ ! (বিদ্যুন্মদ্ভিঃ) বিদ্যুৎ সম্পন্ন, (স্বর্কৈঃ) উত্তম শিখাযুক্ত [বা উত্তম বিচারসমূহ দ্বারা নির্মিত] (ঋষ্টিমদ্ভিঃ) দুই ধার বিশিষ্ট তলোয়ার সম্পন্ন [সামনে-পেছনে, ডানে-বামে, উপরে-নীচে চালনাকারী] (রথেভিঃ) রথসমূহ দ্বারা (আয়াত) তোমরা এসো এবং (সুমায়াঃ) হে উত্তম বুদ্ধি সম্পন্ন ! (নঃ) আমাদের জন্য (বর্ষিষ্ঠ্যা) অতি উত্তম (ইষা) অন্নের সাথে (বয়ো ন) পক্ষিদের ন্যায় (আপপ্তত) উড়ে চলে এসো ॥

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    भाषार्थ

    (দেব সোম) হে বিজিগীষু/জয়লাভেচ্ছুক/বিষয়াভিলাষী সেনানায়ক ! (অস্মিন্ যজ্ঞে) এই যুদ্ধযজ্ঞে (অদারসৃত্) বিদারণ করতে পারে না এরূপ আমাদের দিকে সরণকারী (ভবতু) শত্রু১ হোক। (মরুতঃ) হে মারার ক্ষেত্রে কুশল সৈনিকগণ ! (নঃ) আমাদের (মৃডত) সুখী করো। (নঃ) আমাদের (অভিভাঃ) পরাজয় (মা বিদত্) যেন প্রাপ্ত না হয়, (মো অশস্তি) না অপ্রশংসা অর্থাৎ পরাজয় থেকে প্রাপ্ত নিন্দা প্রাপ্ত না হয়। (মা নো বিদত্) না আমাদের প্রাপ্ত হোক (বৃজিনা=বৃজিনানি) পাপ২, (দ্বেষ্যা যা=দ্বেষ্যাণি যানি) যা আমাদের অপ্রিয়।

    टिप्पणी

    [সোম=সেনার প্রেরক অর্থাৎ নায়ক সেনাপতি (যজু০ ১৭।৪৯)। সোমঃ= ষূ প্রেরণে (তুদাদিঃ)। দেব=দিবু ক্রীড়াবিজিগীষা (দিবাদিঃ)। মরুতঃ= মারার ক্ষেত্রে কুশল সৈনিক (যজু০ ১৭।৪৭)। এগুলো হলো তামসাস্ত্র নিক্ষেপকারী সৈনিক। তামসাস্ত্র শত্রু সৈনিকদের প্রতি নিক্ষেপ করা হয়, যার ফলে সেখানে অন্ধকার হয়ে যায় এবং তাঁরা একে অপরকে চিনতে না পেরে তাঁরা পরস্পরকে আহত করে, মৃত্যু প্রাপ্ত হয় (যজু০ ১৭।৪৭)। তথা (যজু০ ১৭।৪০, ৪৪, ৪৫, ৪৭)। তথা (অথর্ব০৬।৩২।৩)।] [১. যে হয় তো নির্বল কিন্তু নিজেকে প্রবল জেনে আমাদের আক্রমণ করে। ২. শত্রু দ্বারা আমাদের প্রতি কৃত পাপকর্ম, হত্যারূপ কর্ম।]

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