अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 21/ मन्त्र 1
ऋषिः - अथर्वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
1
स्व॑स्ति॒दा वि॒शां पति॑र्वृत्र॒हा वि॑मृ॒धो व॒शी। वृषेन्द्रः॑ पु॒र ए॑तु॒ नः सो॑म॒पा अ॑भयंक॒रः ॥
स्वर सहित पद पाठस्व॒स्ति॒ऽदा: । वि॒शाम् । पति॑: । वृ॒त्र॒ऽहा । वि॒ऽमृ॒ध: । व॒शी ।वृषा॑ । इन्द्र॑: । पु॒र: । ए॒तु॒ । न॒: । सो॒म॒ऽपा: । अ॒भ॒य॒म्ऽक॒र: ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वस्तिदा विशां पतिर्वृत्रहा विमृधो वशी। वृषेन्द्रः पुर एतु नः सोमपा अभयंकरः ॥
स्वर रहित पद पाठस्वस्तिऽदा: । विशाम् । पति: । वृत्रऽहा । विऽमृध: । वशी ।वृषा । इन्द्र: । पुर: । एतु । न: । सोमऽपा: । अभयम्ऽकर: ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजनीति और शान्तिस्थापन का उपदेश।
पदार्थ
(स्वस्तिदाः) मङ्गल का देनहारा, (विशाम्) प्रजाओं का (पतिः) पालनेहारा (वृत्रहा) अन्धकार मिटानेहारा (विमृधः) शत्रुओं को (वशी) वश में करनेहारा (वृषा) महा बलवान् (सोमपाः) अमृत रस का पीनेहारा (अभयंकरः) अभय दान करनेहारा (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाला राजा (नः) हमारे (पुरः) आगे-आगे (एतु) चले ॥१॥
भावार्थ
जो मनुष्य उपर्युक्त गुणों से युक्त राजा को अपना अगुआ बनाते हैं, वे अपने सब कामों में विजय पाते हैं। २−वह जगदीश्वर सब राजा-महाराजाओं का लोकाधिपति है, उसको अपना अगुआ समझकर सब मनुष्य जितेन्द्रिय हों ॥१॥ इस सूक्त में ऋग्वेद १०।१५२। मन्त्र−२-५ कुछ भेद के साथ हैं।
टिप्पणी
१−स्वस्तिदाः। सावसेः। उ० ४।१८१। इति सु+अस सत्तायाम् ति प्रत्ययः। ततः। क्विप् च। पा० ३।२।७६। इति डुदाञ् दाने−क्विप्। समासस्य। पा० ६।१।२२३। इति अन्तोदात्तः। क्षेमप्रदः। विशाम्। विश प्रवेशे−क्विप्। विशः, मनुष्याः−निघ० २।३। प्रजानाम् मनुष्याणाम्। पतिः। १।१।१। पालकः, स्वामी। वृत्र-हा। स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। इति वृत वर्तने-रक्। इति वृत्रः, अन्धकारः। शत्रुः। ब्रह्मभ्रूणवृत्रेषु क्विप्। पा० ३।२।८७। इति हन हिंसागत्योः−क्विप्। शत्रुनाशकः। अन्धकारनिवारकः। वि-मृधः। वि+मृध हिंसायाम्−क्विप्। विशेषेण हिंसकान्। शत्रून्। अकेनोर्भविष्यदाधमर्ण्ययोः। पा० २।३।७०। इति (वशी) शब्देन सह द्वितीया, यथा (मां कामिन्यसः) १।३४।५। वशी। वशोऽस्त्यस्य। अत इनिठनौ। पा० ५।२।११५। इति वश आयत्तत्वे, स्पृहायाम्−इनि। वशयिता। वृषा। १।१२।१। सुखस्य वर्षयिता, महाबली। इन्द्रः। १।७।३। परमेश्वरः। राजा। जीवः। पुरः। पुरस्तात्, अग्रे। एतु। इण्−गतौ। गच्छतु, अग्रगामी भवतु। सोम-पाः। आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा० ३।२।७४। सोम+पा पाने-विच्। सोमस्य अमृतरसस्य पानशीलः। अभयम्-करः। मेघर्त्तिभयेषु कृञः। पा० ३।२।४३। उपपदविधौ भयादिग्रहणं तदन्तविधिं प्रयोजयति। इति वार्त्तिकेन। अभय+कृञ्-खच्। अरुर्द्विषदजन्तस्य मुम्। पा० ६।३।६७। इति मुम् आगमः। अभयस्य रक्षणस्य जयस्य कर्ता ॥
विषय
प्रजा-रक्षण
पदार्थ
१. राष्ट्र की व्यवस्था के ठीक होने पर ही प्रायः सब प्रकार की उन्नति होती है, अत: उत्तम राष्ट्र-व्यवस्थापक 'इन्द्रः '-शत्रुओं के विद्रावक राजा का चित्रण करते हुए कहते हैं कि यह (इन्द्रः) = राष्ट्र के ऐश्वर्य को बढ़ानेवाला, शत्रु-विजेता राजा (स्वस्तिदा) = उत्तम स्थिति को देनेवाला हो, (विशांपति:) = प्रजाओं का रक्षक हो (वृत्रहा) = राष्ट्र-उन्नति में बाधक व्यक्तियों का हनन करनेवाला हो, (विमृधः वशी) = वध करनेवालों को वशीभूत करनेवाला, (वृषा) = शक्तिशाली, (सोमपा) = सौम्य व्यक्तियों की रक्षा करनेवाला (अभयंकरः) = प्रजाओं के लिए निर्भयता करनेवाला इन्द्र (न: पुरः एतु) = हमारे आगे चलनेवाला हो-हमारा नेतृत्व करे। २. राजा का मौलिक कर्त्तव्य यही है कि वह प्रजाओं का रक्षण करे [विशांपतिः], उनकी स्थिति को अच्छा बनाये [स्वस्तिदा]। इस स्थिति को अच्छा बनाने के लिए आवश्यक है कि वह प्रजाओं में निर्भयता का सञ्चार करे [अभयंकरः] । इस निर्भयता के लिए वह वृत्रवृत्तिवालों का नाश करे [वृत्रहा], हिंसकों को पूर्णरूप से वश में करे [विमृधः वशी] और सौम्य व्यक्तियों का रक्षण करे [सोमपा]।
भावार्थ
राजा का मूल कर्तव्य प्रजा-रक्षण है।
भाषार्थ
(स्वस्तिदाः) कल्याणदाता, (विशांपतिः) प्रजाओं का पति ( वृत्रहा ) घेरा डालनेवाले शत्रु का हनन करनेवाला (विमृधः) शत्रुओं की विविध प्रकार से हिंसा करनेवाला, (वशी) शत्रुओं को निजवश में करनेवाला, (वृषा) सुखों की वर्षा करनेवाला, (सोमपाः) सेनाप्रेरक सेनानायक का रक्षक, (अभयंकरः) निर्भय करनेवाला, (इन्द्रः) सम्राट् ( न: पुरः एतु ) हमारा अगुआ हो।
टिप्पणी
[विमृधः= मृध हिंसायाम् (भ्वादिः)। सोम= सेनानायक (यजुः० १७।४०)। वृत्रहा=वृञ् आवरणे (चुरादिः)। इन्द्रः= इन्द्रश्च सम्राट् (यजुः० ८।३७)।]
विषय
राजा के कर्तव्य ।
भावार्थ
(विशाम् पतिः) प्रजाओं का स्वामी ( वृत्रहा ) राष्ट्रों, नगरों को घेरने हारे शत्रुओं का नाशक ( विमृधः ) शत्रुओं को कुचल डालने वाला, ( वशी ) सब प्रजाओं को और काम क्रोध आदि अन्तः शत्रुओं और इन्द्रियों पर वश करने वाला, ( वृषा ) जलों के वर्षाने वाले मेघ के समान समस्त सुखों का वर्षक, ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यशील, राजा ( स्वस्तिदाः ) सब कल्याण और अविनाशी, उत्तम फल का देने हारा होता है। वही ( सोमपाः ) विद्यासम्पन्न, शमदमादि साधनयुक्त विद्वानों का और सुख देने वाले सब पदार्थों का पालक ( अभयंकरः ) सबको अभय का दान करने हारा होकर ( नः ) हमारे ( पुरः ) नगरों में अध्यक्ष होकर ( एतु ) आवे ।
टिप्पणी
( प्र० ) स्वस्तिदा विशस्पतिः, इति पाठभेदः, ऋ० । (द्वि०) अरुय मित्रखादो अद्भुतः, इति पाठभेदः, ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। ऋग्वेदे शासो भारद्वाज ऋषिः। इन्द्रो देवता। अनुष्टुप् छन्दः। चतुर्ऋचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
People’s Ruler
Meaning
Giver of felicity and well being of life, ruler, protector and promoter of the people, destroyer of evil, darkness and ignorance, shatterer of enemies, controller and manager of all powers and forces of the world, generous and virile Indra, ruler of the world, may, we pray, go forward and, as harbinger of the soma peace and pleasure of life, bless us with freedom from fear in a free and fearless environment.
Subject
Indra
Translation
May the resplendent Lord come to us and be with us; he is the granter of prosperity, the Lord of men, the slayer of dark forces, the warrior, the subduer, the showerer, the cherisher of divine love and the assurer of safety. (Also Rg. X.152.2)
Translation
The ruler who is the Lord of the subjects, promoter of the happiness, destroyer of the enemies, master over his internal enemies-passion, aversion, covetousness etc, inspirer of fearlessness, protector of knowledge, and mighty come in our front to lead us.
Translation
Giver of bliss, Lord of the subjects, slayer of foes, subduer of enemies, self-controlled, showerer of happiness, prosperous, learned, bestower of fearlessness, should come to rule over our cities as a king.
Footnote
The manifold qualities a King should possess are enumerated here.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−स्वस्तिदाः। सावसेः। उ० ४।१८१। इति सु+अस सत्तायाम् ति प्रत्ययः। ततः। क्विप् च। पा० ३।२।७६। इति डुदाञ् दाने−क्विप्। समासस्य। पा० ६।१।२२३। इति अन्तोदात्तः। क्षेमप्रदः। विशाम्। विश प्रवेशे−क्विप्। विशः, मनुष्याः−निघ० २।३। प्रजानाम् मनुष्याणाम्। पतिः। १।१।१। पालकः, स्वामी। वृत्र-हा। स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। इति वृत वर्तने-रक्। इति वृत्रः, अन्धकारः। शत्रुः। ब्रह्मभ्रूणवृत्रेषु क्विप्। पा० ३।२।८७। इति हन हिंसागत्योः−क्विप्। शत्रुनाशकः। अन्धकारनिवारकः। वि-मृधः। वि+मृध हिंसायाम्−क्विप्। विशेषेण हिंसकान्। शत्रून्। अकेनोर्भविष्यदाधमर्ण्ययोः। पा० २।३।७०। इति (वशी) शब्देन सह द्वितीया, यथा (मां कामिन्यसः) १।३४।५। वशी। वशोऽस्त्यस्य। अत इनिठनौ। पा० ५।२।११५। इति वश आयत्तत्वे, स्पृहायाम्−इनि। वशयिता। वृषा। १।१२।१। सुखस्य वर्षयिता, महाबली। इन्द्रः। १।७।३। परमेश्वरः। राजा। जीवः। पुरः। पुरस्तात्, अग्रे। एतु। इण्−गतौ। गच्छतु, अग्रगामी भवतु। सोम-पाः। आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा० ३।२।७४। सोम+पा पाने-विच्। सोमस्य अमृतरसस्य पानशीलः। अभयम्-करः। मेघर्त्तिभयेषु कृञः। पा० ३।२।४३। उपपदविधौ भयादिग्रहणं तदन्तविधिं प्रयोजयति। इति वार्त्तिकेन। अभय+कृञ्-खच्। अरुर्द्विषदजन्तस्य मुम्। पा० ६।३।६७। इति मुम् आगमः। अभयस्य रक्षणस्य जयस्य कर्ता ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(স্বস্তিদাঃ) মঙ্গলদাতা (বিশাং) প্রজাদের (পতিঃ) পালক (বৃত্রহা) অন্ধকার নাশক (বিমৃধঃ) শত্রুদের (বশী) বশকারী (বৃষা) বলবান (সোমপাঃ) অমৃত রস পানকারী (অভয়ঙ্করঃ) অভয়দাতা (ইন্দ্ৰঃ) ঐশ্বর্যবান রাজা (নঃ) আমাদের (পুরঃ) অগ্রভাগে (এতু) চলুন।।
भावार्थ
মঙ্গলদাতা, প্রজাপালক, বিঘ্ননাশক, শত্রুজেতা, মহাবলশালী, অমৃতরস পানকারী, অভয়দাতা, ঐশ্বর্যবান রাজা আমাদের পুরোভাগে চলুন৷৷
मन्त्र (बांग्ला)
স্বস্তিদা বিশাং পতিবৃত্রহা বিমৃধো বশী বৃষেন্দ্রঃ পুর এতু নঃ সোমপা অভয়ঙ্কর।।
ऋषि | देवता | छन्द
অর্থবা। ইন্দ্ৰঃ। অনুষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(রাজনীতিস্বস্তিস্থাপনোপদেশঃ) রাজনীতি এবং শান্তিস্থাপনের উপদেশ
भाषार्थ
(স্বস্তিদাঃ) মঙ্গল প্রদানকারী/মঙ্গলদায়ক, (বিশাম্) প্রজাদের (পতিঃ) পালনকারী (বৃত্রহা) অন্ধকার দূরীভূতকারী (বিমৃধঃ) শত্রুদের (বশী) বশবর্তীকারী (বৃষা) মহা বলবান (সোমপাঃ) অমৃত রসের পানকারী (অভয়ংকরঃ) অভয় দানকারী (ইন্দ্রঃ) বৃহৎ ঐশ্বর্যবান রাজা (নঃ) আমাদের (পুরঃ) সামনে-সামনে (এতু) চলুক ॥১॥
भावार्थ
যে মনুষ্য উপরোক্ত গুণযুক্ত রাজাকে নিজের অগ্রগামী করে, সে নিজের সব কর্মে বিজয় লাভ করে। ২−সেই জগদীশ্বর সব রাজা-মহারাজাদের লোকাধিপতি, তাঁকে নিজের অগ্রগামী হিসেবে গ্রহণ করে সব মনুষ্য জিতেন্দ্রিয় হোক॥১॥ এই সূক্ত ঋগ্বেদ ১০।১৫২। মন্ত্র−২-৫ কিছু পার্থক্যে রয়েছে।
भाषार्थ
(স্বস্তিদাঃ) কল্যাণদাতা, (বিশাংপতিঃ) প্রজাদের পতি, (বৃত্রহা) বন্ধন বেষ্টনকারী/অবরোধকারী শত্রুর হননকারী, (বিমৃধঃ) শত্রুদের প্রতি বিবিধ প্রকারে হিংসুক, (বশী) শত্রুদের নিজের বশবর্তীকারী, (বৃষা) সুখ বর্ষণকারী (সোমপাঃ) সেনাপ্রেরক সেনানায়কের রক্ষক, (অভয়ংকরঃ) নির্ভয়কারী (ইন্দ্রঃ) সম্রাট (নঃ পুরঃ এতু) আমাদের অগ্রণী হোক।
टिप्पणी
[বিমৃধঃ=মৃধ হিংসায়াম্ (ভ্বাদিঃ)। সোম=সেনানায়ক (যজু০ ১৭।৪০)। বৃত্রহা=বৃঞ্ আবরণে (চুরাদিঃ)। ইন্দ্রঃ=ইন্দ্রশ্চ সম্রাট (যজু০ ৮।৩৭)।]
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