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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 29/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अभीवर्तमणिः, ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - राष्ट्र अभिवर्धन सूक्त
    7

    अ॑भीव॒र्तेन॑ म॒णिना॒ येनेन्द्रो॑ अभिवावृ॒धे। तेना॒स्मान्ब्र॑ह्मणस्पते॒ ऽभि रा॒ष्ट्राय॑ वर्धय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि॒ऽव॒र्तेन॑ । म॒णिना॑ । येन॑ । इन्द्र॑: । अ॒भि॒ऽव॒वृ॒धे । तेन॑ । अ॒स्मान् । ब्र॒ह्म॒ण॒: । प॒ते॒ । अ॒भि । रा॒ष्ट्राय॑ । व॒र्ध॒य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभीवर्तेन मणिना येनेन्द्रो अभिवावृधे। तेनास्मान्ब्रह्मणस्पते ऽभि राष्ट्राय वर्धय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभिऽवर्तेन । मणिना । येन । इन्द्र: । अभिऽववृधे । तेन । अस्मान् । ब्रह्मण: । पते । अभि । राष्ट्राय । वर्धय ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 29; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजतिलकयज्ञ के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (येन) जिस (अभिवर्तेन) विजय करनेवाले, (मणिना) मणि से [प्रशंसनीय सामर्थ्य वा धन से] (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाला पुरुष (अभि) सर्वथा (ववृधे) बढ़ा था। (तेन) उसी से, (ब्रह्मणस्पते) हे वेद वा ब्रह्मा [वेदवेत्ता] के रक्षक परमेश्वर ! (अस्मान्) हम लोगों को (राष्ट्राय) राज्य भोगने के लिये (अभि) सब ओर से (वर्धय) तू बढ़ा ॥१॥

    भावार्थ

    जिस प्रकार हमसे पहिले मनुष्य उत्तम सामर्थ्य और धन को पाकर महाप्रतापी हुए हैं, वैसे ही उस सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर के अनन्त सामर्थ्य और उपकार का विचार करके हम लोग पूर्ण पुरुषार्थ के साथ (मणि) विद्याधन और सुवर्ण आदि धन की प्राप्ति से सर्वदा उन्नति करके राज्य का पालन करें ॥१॥ मन्त्र १-३, ६ ऋग्वेद मण्डल १० सूक्त १७४। म० १-३ और ५ कुछ भेद से हैं। जैसे (मणिना) के स्थान में [हविषा] पद है, इत्यादि ॥

    टिप्पणी

    १−अभि-वर्तेन। अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्। पा० ३।३।१९। इति अभि+वृतु वर्तने भवने−घञ् छान्दसो दीर्घः। अभिवर्तते अभिभवति शत्रून् स अभिवर्तः। अभिभवनशीलेन, जयशीलेन। मणिना। सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। मण कूजे−इन्। रत्नेन, प्रशंसनीयसामर्थ्येन धनेन, वा राजचिह्नेन। इन्द्रः। १।२।३। परमैश्वर्यवान् पुरुषो जीवः। अभि-ववृधे। वृधु वृद्धौ−लिट्। तुजादीनां दीर्घोऽभ्यासस्य। पा० ६।१।७। इति दीर्घः। अभितः सर्वतः प्रवृद्धो बभूव। तेन। मणिना। ब्रह्मणः+पते। १।८।४।, १।१।१। षष्ठ्याः पतिपुत्र०। पा० ८।३।५३। इति विसर्जनीयस्य सत्त्वम्। हे ब्रह्मणो वेदस्य विप्रस्य वा पालक परमेश्वर ! राष्ट्राय। सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। उ० ४।१५९। इति राजृ दीप्तौ ऐश्वर्ये च ष्ट्रन्। राजति ऐश्वर्यकर्मा−निघ० २।२१। व्रश्चभ्रस्जसृज०। पा० ८।२।३६। इति षः। राज्यवर्धनाय वर्धय। वृधु वृद्धौ−णिच् लोट्। समर्धय, समृद्धान् कुरु ॥

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    विषय

    'अभीवर्त' मणि

    पदार्थ

    १. मणि शब्द शरीर में उत्पन्न सोमकणों के लिए प्रयुक्त होता है। वीर्य का एक-एक बिन्दु मणि के समान है। जिस समय इसे नष्ट न होने देकर शरीर में ही सब ओर व्याप्त किया जाता है तो यह 'अभीवर्त' [अभितः वर्तने] कहलाती है। (अभीवर्तेन मणिना) = शरीर में सर्वत्र व्याप्त होनेवाले इस सोम-रक्षणरूप मणि से (येन) = जिससे (इन्द्रः) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता-जितेन्द्रिय पुरुष (अभिवावृधे) = ऐहिक वा आमुष्मिक दोनों प्रकार की उन्नति करता है-'अभ्युदय और नि:श्रेयस' दोनों को सिद्ध करता है अथवा 'शरीर व मस्तिष्क' इन दोनों का विकास कर पाता है, तेन-उस अभीवर्तमणि से हे (ब्रह्मणस्पते) = ज्ञान के स्वामिन् आचार्य! (अस्मान्) = हमें (राष्ट्राय) = राष्ट्र-उन्नति के लिए (अभिवर्धय) = शरीर व मस्तिष्क दोनों के दृष्टिकोण से बढ़ाइए। २. वस्तुत: वही युवक राष्ट्रोन्नति में सहायक होता है जो स्वस्थ शरीर व दीप्त मस्तिष्कवाला हो। शरीर के स्वास्थ्य व मस्तिष्क की दीप्ति के लिए इस सोमकणरूप मणि को अभीवर्तमणि बनाना आवश्यक है। शरीर में इसे सब ओर व्याप्त करने से ही यह अभीवर्तमणि बन जाती है। इसका लाभ इन्द्र-जितेन्द्रिय पुरुष को ही होता है।

    भावार्थ

    सोमकणों को शरीर में सुरक्षित करके हम उसे 'अभीवर्तमणि' का रूप दें। यह हमें स्वस्थ शरीर व दीस मस्तिष्क बनाएगी। हम राष्ट्रोन्नति में सहायक होंगे।

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    भाषार्थ

    (येन) जिस (अभीवर्तेन) परराष्ट्र की ओर या सम्मुख प्रवृत्त होनेवाले सेनाधिपति रूप (मणिना) पुरुष-रत्न द्वारा (इन्द्रः) सम्राट् (अभिवावृधे) सब ओर बढ़ा, वृद्धि को प्राप्त हुआ है, (तेन) उस पुरुष-रत्न के सहयोग द्वारा (ब्रह्मणस्पते) हे वेदपति, वैदिक विद्वान् ! (अस्मान्) हम राष्ट्रपतियों को, (राष्ट्राय) राष्ट्रोन्नति के लिये, (अभिवर्धय) अभिवृद्ध कर ।

    टिप्पणी

    [इन्द्रः = सम्राट (यजु:० ८।३७ ) यथा -"इन्द्रश्च सम्राट्, वरुणश्च राजा।" वरुण है प्रत्येक राष्ट्र का निर्वाचित राष्ट्रपति, और इन्द्र है राष्ट्र समूहों का निर्वाचित साम्राज्य या अधिपति। ब्रह्मणस्पति है वैदिक विद्वान्, ब्रह्मा। प्रत्येक राष्ट्र में नियत ब्रह्मा तत्-तत् राष्ट्र के धर्मकार्यों का निर्वारण करता है। प्रत्येक राष्ट्र की धार्मिक उन्नति द्वारा मानो वह साम्राज्य की सामूहिक उन्नति में सहायक होता है। अभिवर्तते अनेन इति अभीवर्तः सेनाधिपतिः। यह साम्राज्योन्नति के लिये मणिरूप है, रत्नरूप है। "जातौ जातौ यदुत्कृष्टं तद् रत्नमभिधीयते" (आप्टे)।]

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    विषय

    युद्ध सम्बन्धी अभीवर्त शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    हे ( ब्रह्मणस्पते ) वेद के विद्वान् मन्त्रिन् ! ( येन ) जिस ( अभीवर्तेन ) अभीवर्त रूप ( मणिना ) मणि से ( इन्द्रः ) राजाओं का राजा अर्थात् चक्रवर्ती सम्राट् ( अभिवावृधे ) विशाल राष्ट्रसम्पति कों प्राप्त करता है ( तेन ) उसी द्वारा ( अस्मान् ) हमको भी ( अभि वर्धय ) बढ़ा। ( राष्ट्राय ) ताकि हमारे राष्ट्र को भी अभिवृद्धि हो सके, इसकी विशेष व्याख्या अगले मन्त्र में है।

    टिप्पणी

    ( प्र० ) ‘अभीवर्त्तेन हविषा’, (द्वि० ) ‘अभिवावृने’ ‘राष्ट्राय वर्तय’ इति पाठाः ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः। अभीवर्त्तमणिमुद्दिश्य ब्रह्मणस्पतिर्देवता। चन्द्रमसं राजानमभिलक्ष्य ह्वह्मणस्पतेः स्तुतिः। अनुष्टुप् छन्दः। षडृचं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rise of the Rashtra

    Meaning

    O Brahmanaspati, lord of divine vision, master of knowledge and state craft for development, for the rise and progress of the nation and the republic, pray strengthen and raise us with that crystal character, jewel wealth and adamantine strength and will by virtue of which Indra, lord ruler of the world and the spirit of the human nation, rises to glory.

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    Subject

    Brahmanaspati-Abhivarta-Manih

    Translation

    With the all conquering ampoule (mani), with which the sick patient (Indra) gains strength, O Lord of Sciences (knowledge), may you strengthen us for the sake of our nation.

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    Translation

    [N. B. Abhivarta is here the name of Samans classified under this heading. This conveys the meaning of Brahma Saman Samans are classified in various groups. Abhivarta is one of those groups. Mani is not meant there as gems or stones. It is derived from root mana which means to create sound. It also does not mean Amulet. Here Abhivarta Mani means The sound of Brahma Saman or Reververtion of Brahma Saman used at the time of yajna. These samans infuse into persons the spirit of victory.] O' Master of Vedic speech or conductor of Yajnas; increase our strength to kingly sway by that Brahma Saman through which Indra, the powerful wind increased its expanding strength.

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    Translation

    With that victorious strength and wealth, which strengthened the Power and might of a prosperous man in the past; do Thou, O God the Lord of the Vedas, increase our strength for kingly sway !

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−अभि-वर्तेन। अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्। पा० ३।३।१९। इति अभि+वृतु वर्तने भवने−घञ् छान्दसो दीर्घः। अभिवर्तते अभिभवति शत्रून् स अभिवर्तः। अभिभवनशीलेन, जयशीलेन। मणिना। सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। मण कूजे−इन्। रत्नेन, प्रशंसनीयसामर्थ्येन धनेन, वा राजचिह्नेन। इन्द्रः। १।२।३। परमैश्वर्यवान् पुरुषो जीवः। अभि-ववृधे। वृधु वृद्धौ−लिट्। तुजादीनां दीर्घोऽभ्यासस्य। पा० ६।१।७। इति दीर्घः। अभितः सर्वतः प्रवृद्धो बभूव। तेन। मणिना। ब्रह्मणः+पते। १।८।४।, १।१।१। षष्ठ्याः पतिपुत्र०। पा० ८।३।५३। इति विसर्जनीयस्य सत्त्वम्। हे ब्रह्मणो वेदस्य विप्रस्य वा पालक परमेश्वर ! राष्ट्राय। सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। उ० ४।१५९। इति राजृ दीप्तौ ऐश्वर्ये च ष्ट्रन्। राजति ऐश्वर्यकर्मा−निघ० २।२१। व्रश्चभ्रस्जसृज०। पा० ८।२।३६। इति षः। राज्यवर्धनाय वर्धय। वृधु वृद्धौ−णिच् लोट्। समर्धय, समृद्धान् कुरु ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (য়েন) যে (অভিবর্তেন) বিজয়শীল (মণিনা) মণি দ্বারা (ইন্দ্রঃ) ঐশ্বর্যবান পুরুষ (অভি) সর্ব প্রকারে (ববৃধে) বুদ্ধি পাইয়াছিল। (তেন) তাহা দ্বারা (ব্রহ্মণল্পতে) হে বেদের রক্ষক (অস্মান্) আমাদিগকে (রাষ্ট্রায়) রাষ্ট্র ভোগের জন্য (অভি) সব দিকে (বর্ধয়) উন্নতি দান কর।।

    भावार्थ

    যে বিজয়শীল সামর্থ দ্বারা ঐশ্বর্যবান পুরুষ সর্বপ্রকারের উন্নতি প্রাপ্ত হইতেই সামর্থ দ্বারাই হে বেদের রক্ষক পরমাত্মন! আমাদিগকে রাষ্ট্র ভোগের জন্য সবদিকে উন্নতি প্রদান কর।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    অভীবর্তেন মণিনা য়েনেদ্ৰো অভিববৃধে। তেনাস্মান্ ব্রহ্মস্পতেঽভি রাষ্ট্রায় বধয়।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    বসিষ্ঠঃ। ব্রহ্মণস্পতিঃ, অভীবর্তমণিঃ। অনুষ্টুপ্।

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    मन्त्र विषय

    (রাজসূয়যজ্ঞোপদেশঃ) রাজতিলক যজ্ঞের জন্য উপদেশ।

    भाषार्थ

    (যেন) যে (অভিবর্তেন) বিজয়শীল, (মণিনা) মণি দ্বারা [প্রশংসনীয় সামর্থ্য বা ধন দ্বারা] (ইন্দ্রঃ) বৃহৎ ঐশ্বর্যবান পুরুষ (অভি) সর্বথা (ববৃধে) বৃদ্ধি পেয়েছিল/বর্ধিত হয়েছিল, (তেন) তার থেকে (ব্রহ্মণস্পতে) হে বেদ বা ব্রহ্মার [বেদবেত্তার] রক্ষক পরমেশ্বর ! (অস্মান্) আমাদের লোকদের (রাষ্ট্রায়) রাজ্য ভোগের জন্য (অভি) সব দিক থেকে (বর্ধয়) তুমি বৃদ্ধি/বর্ধিত করো ॥১॥

    भावार्थ

    যেভাবে আমাদের পূর্বে মনুষ্য উত্তম সামর্থ্য এবং ধন লাভ করে মহাপ্রতাপী হয়েছিল, তেমনি সেই সর্বশক্তিমান জগদীশ্বরের অনন্ত সামর্থ্য এবং উপকারের বিচার করে আমরা পূর্ণ পুরুষার্থের সাথে (মণি) বিদ্যাধন এবং সুবর্ণ আদি ধনের প্রাপ্তি দ্বারা সর্বদা উন্নতি করে রাজ্যের পালন করব ॥১॥ মন্ত্র ১-৩, ৬ ঋগ্বেদ মণ্ডল ১০ সূক্ত ১৭৪। ম০ ১-৩ এবং ৫ কিছু ভেদে রয়েছে। যেমন (মণিনা) এর স্থানে [হবিষা] পদ রয়েছে, ইত্যাদি ॥

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    भाषार्थ

    (যেন) যে (অভিবর্তেন) পররাষ্ট্রের দিকে বা সম্মুখে প্রবৃত্ত হওয়া সেনাধিপতি রূপ (মণিনা) পুরুষ-রত্ন দ্বারা (ইন্দ্রঃ) সম্রাট (অভিবাবৃধে) সমস্ত দিকে বিস্তার করেছে, বৃদ্ধি প্রাপ্ত হয়েছে, (তেন) সেই পুরুষ-রত্নের সাহায্য দ্বারা (ব্রহ্মণস্পতে) হে বেদপতি, বৈদিক বিদ্বান ! (অস্মান্) আমাদের রাষ্ট্রপতিদের, (রাষ্ট্রায়) রাষ্ট্রোন্নতির জন্য, (অভিবর্ধয়) অভিবৃদ্ধ করো।

    टिप्पणी

    [ইন্দ্রঃ= সম্রাট্ (যজু০ ৮।৩৭) যথা-"ইন্দ্রশ্চ সম্রাট্, বরুণশ্চ রাজা।" বরুণ হল প্রত্যেক রাষ্ট্রের নির্বাচিত রাষ্ট্রপতি, এবং ইন্দ্র হল রাষ্ট্র সমূহের নির্বাচিত সাম্রাজ্যের অধিপতি। ব্রহ্মণস্পতি হল বৈদিক বিদ্বান, ব্রহ্মা। প্রত্যেক রাষ্ট্রে নিয়ত ব্রহ্মা সেই-সেই রাষ্ট্রের ধর্মকার্যের নির্ধারণ করে। প্রত্যেক রাষ্ট্রের ধার্মিক উন্নতি দ্বারা সেই সাম্রাজ্যের উন্নতিতে সহায়ক হয়। অভিবর্ততে অনেন ইতি অভীবর্তঃ সেনাধিপতিঃ। ইনি সাম্রাজ্যোন্নতির জন্য মণিরূপ, রত্নরূপ। "জাতৌ জাতৌ যদুৎকৃষ্টং তদ্ রত্নমভিধীয়তে" (আপ্টে)]

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