अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 1
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - आशापाला वास्तोष्पतयः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - पाशविमोचन सूक्त
3
आशा॑नामाशापा॒लेभ्य॑श्च॒तुर्भ्यो॑ अ॒मृते॑भ्यः। इ॒दं भू॒तस्याध्य॑क्षेभ्यो वि॒धेम॑ ह॒विषा॑ व॒यम् ॥
स्वर सहित पद पाठआशा॑नाम् । आ॒शा॒ऽपा॒लेभ्य॑: । च॒तु:ऽभ्य॑: । अ॒मृते॑भ्य: । इ॒दम् । भू॒तस्य॑ । अधि॑ऽअक्षेभ्य: । वि॒धेम॑ । ह॒विषा॑ । व॒यम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आशानामाशापालेभ्यश्चतुर्भ्यो अमृतेभ्यः। इदं भूतस्याध्यक्षेभ्यो विधेम हविषा वयम् ॥
स्वर रहित पद पाठआशानाम् । आशाऽपालेभ्य: । चतु:ऽभ्य: । अमृतेभ्य: । इदम् । भूतस्य । अधिऽअक्षेभ्य: । विधेम । हविषा । वयम् ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पुरुषार्थ और आनन्द के लिये उपदेश।
पदार्थ
(इदम्) इस समय (वयम्) हम (आशानाम्) सब दिशाओं के मध्य (आशापालेभ्यः) आशाओं के पालनेहारे, (चतुर्भ्यः) प्रार्थना के योग्य [अथवा, चार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष] (अमृतेभ्यः) अमर रूपवाले, (भूतस्य) संसार के (अध्यक्षेभ्यः) प्रधानों की (हविषा) भक्ति से (विधेम) सेवा करें ॥१॥
भावार्थ
सब मनुष्यों को उत्तम गुणवाले पुरुषों अथवा चतुर्वर्ग, धर्म, अर्थ, काम [ईश्वर में प्रेम] और मोक्ष की प्राप्ति के लिये सदा पूर्ण पुरुषार्थ करना चाहिये। इनके ही पाने से मनुष्य की सब आशाएँ वा कामनाएँ पूर्ण होती हैं ॥१॥
टिप्पणी
१−आशानाम्। आङ्+अशू व्याप्तौ−पचाद्यच्, टाप्। दिशानां मध्ये। आशा-पालेभ्यः। कर्मण्यण्। पा० ३।२।१। इति आशा+पल वा पाल रक्षणे-टाप्। दिशानाम् आकाङ्क्षानां वा पालकेभ्यः। लोकपालेभ्यः। चतुः-भ्यः। चतेरुरन्। उ० ५।५८। इति चत याचने−उरन्। याचनीयेभ्यः, कमनीयेभ्यः। अथवा चतुःसंख्याकेभ्यः, धर्मार्थकाममोक्षेभ्यः। अमृतेभ्यः। मृतं मरणम्। मरणरहितेभ्यः, अमरेभ्यः। महायशस्विभ्यः। इदम्। इदानीम्। भूतस्य। लोकस्य। अधि-अक्षेभ्यः। अध्यक्ष्णोति समन्ताद् व्याप्नोति। अधि+अक्ष व्याप्तौ संहतौ−अच्। व्यापकेभ्यः। अधिपतिभ्यः। विधेम। १।१२।२। परिचरेम (विधेम) इत्यस्य प्रयोगे बहुधा कर्मणि चतुर्थी दृश्यते, यथा कस्मै देवाय हविषा विधेम। य० १३।४। हविषा। १।१२।२। आत्मदानेन, भक्त्या ॥
विषय
चार अध्यक्ष
पदार्थ
१.जैसे इस पृथिवीलोक में स्थित होते हुए हम चार दिशाओं का व्यवहार करते हैं, इसीप्रकार शरीर में भी ये चार दिशाएँ विद्यमान हैं। शरीर में 'मुख' पूर्व दिशा है तो 'पायु' [मलशोधक इन्द्रिय] पश्चिम दिशा है। पूर्व दिशा का अधिपति 'इन्द्र' है और पश्चिम का 'वरुण'। यदि हम इस मुख, अर्थात् जिहा को वश में कर लेते हैं तो अन्य इन्द्रियों का वशीकरण इतना कठिन नहीं रहता और हम इन्द्र बन पाते है। इसीप्रकार पायु का कार्य बिल्कुल ठीक होने से हम 'वरुण'-सब रोगों का निवारण करनेवाले होते हैं। शरीर में विदृति द्वार या ब्रह्मरन्ध्र उत्तर है और उपस्थ दक्षिण है। उपस्थ का संयम ही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्म की ओर चले चलने का साधन यही है। इस दिशा का अधिपति 'यम' कहलाता है। वस्तुत: जिसने उपस्थ का नियमन कर लिया वह 'यम' [controller] तो बन ही गया। यह व्यक्ति ही उत्तर दिशा की
ओर चलता हुआ अन्त में विदृति द्वार का विदारण करके प्राणों को छोड़ता हुआ प्रभु को पाता है। यह प्रभु के समान ही 'ईशान' बनता है और उत्तर दिशा का अधिपति होता है। पूर्व व पश्चिम द्वार शरीर के पूर्ण स्वास्थ्य के साथ सम्बद्ध हैं तो ये दक्षिण व उत्तर द्वार आत्मिक उन्नति को अपना विषय बनाते हैं। (वयम्) = हम (आशानाम्) = इन चारों दिशाओं के (आशापालेभ्य:) = दिनक्षकों के लिए (हविषा) = त्यागपूर्वक अदन [खाने] के द्वारा (इदं विधेम) = यह पूजा करते हैं जोकि (चतुर्य) = चारों (अमृतेभ्य:) = अमृत हैं। उन अमृत आशापालों के लिए हम यह पूजन करते हैं जोकि (भूतस्य अध्यक्षेभ्यः) = प्राणियों के अध्यक्ष हैं अथवा, 'पृथिवी, जल, तेज व वायु' नामक चारों भूतों के अध्यक्ष हैं। शरीर में इन चारों भूतों का ठीक से रहना व कार्य करना इन 'मुख, पाय, उपस्थ व विति' द्वारों के कार्यों के ठीक होने पर ही निर्भर करता है। ३. इनमें 'मुख' का कार्य ठीक होने पर 'पायु' का कार्य ठीक चलता ही है। खान-पान गड़बड़ होने पर ही पायु का कार्य ठीक से नहीं होता। कब्ज आदि रोग भोजन के बिगाड़ से ही होते हैं। इसीप्रकार 'उपस्थ' के संयम से 'विदति द्वार' का कार्य ठीक रूप से चल सकता है। इसप्रकार यह स्पष्ट है कि 'मुख व उपस्थ' ही अत्यधिक ध्यान की अपेक्षा रखते हैं। इनके संयम के लिए किया गया प्रयत्न हमें अमृत बनाता है। पूर्णायुष्य की प्राप्ति का यही मार्ग है। इनके संयम से हमारे जीवन में पृथिवी आदि भूतों का कार्य बिल्कुल ठीक चलता है।
भावार्थ
हमें 'मुख, पायु, उपस्थ व विदृति'-इन चारों शरीरस्थ द्वारों का रक्षण करना है। इसी रक्षण पर अमृतत्व का निर्भर है।
भाषार्थ
(आशानाम्) दिशाओं के (आशापालेभ्यः) दिक्-पालक, (चतुर्भ्य) चार (अमृतेभ्यः) अमृत (भूतस्याध्यक्षेभ्यः) भूत-भौतिक जगत् के अध्यक्षों के लिये (वयम्) हम (इदम्)१ अब (हविषा) हवि द्वारा (विधेम) परिचर्या करते हैं।
टिप्पणी
[इदम्= इदानीम् (सायण) । परिचर्या =सेवा। चार दिशाएं= पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर । इन चार दिशाओं के अध्यक्ष है चार अमृत अध्यक्ष; पूर्वदिक का अध्यक्ष है अग्नि, "प्राची दिगग्निरधिपति:", दक्षिणा दिक का अध्यक्ष है इन्द्र, "दक्षिणा दिगिन्द्रो अधिपतिः" पश्चिम दिक का अध्यक्ष है वरुण, "वरुणो अधिपतिः", उत्तर दिक का अध्यक्ष है सोम, "सोमो अधिपतिः" (अथर्व० २७।१-४) विधेम= परिचरणकर्मा (निघं० ३।५)।] [१. अथवा "इदम्" है परिचर्या-कर्म, जोकि विधेमद्योतित क्रिया का कम-विशेषण है।]
विषय
समर्पण ।
भावार्थ
( आशानाम् आशापालेभ्यः ) चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा के पालक अर्थात् अध्यक्ष ( चतुर्थः ) चार ( अमृतेभ्यः ) अमर शक्तियों के प्रति ( भूतस्याध्यक्षेभ्यः ) जो अमर शक्तियां कि जड़ चेतन रूप सब भूतों की अध्यक्ष रूप हैं, उनके प्रति ( हविषा ) आहुति द्वारा, यज्ञ द्वारा (वयम्) हम ( विधेम ) परिचर्या सेवा समर्पित करते हैं । पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर ये चार मुख्य दिशाएं हैं।
टिप्पणी
पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर ये चार मुख्य दिशाएं हैं। परमात्मा इनमें क्रम से अग्नि, इन्द्र, वरुण और सोम रूप से अध्यक्षरूप में स्थित है। हम यज्ञीय आहुतियों द्वारा इन्हीं के प्रति आत्मसमर्पण करते हैं।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः । आशापालाः वास्तोष्पतयश्च देवताः । १, २ अनुष्टुभौ । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ४ परानुष्टुप् । चतुर्ऋचं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Hope and Fulfilment
Meaning
Now with havi we do this homage to the four immortal guardians of the four quarters of space who oversee, control and protect all forms of existence. (The ruler guardians of the quarters of space according to Atharva Veda 3, 27, 1-6 are Agni, Indra, Varuna and Soma of the east, south, west and north, while Vishnu and Brhaspati are guardian rulers of the nether and upper directions. In the case of the human personality as well this same order of divine care is applicable, and these six versions of the power of Brahma Supreme protect us against hate, enmity and jealousy while they augment our physical, mental and spiritual potential as well.)
Subject
Asapatah--Guardians of Quarters
Translation
To the four immortal quarter-guards of the regions, the controllers of all the creation or existences, we offer our oblations.
Translation
[N.B. Ashapal means the Warders of foar direction They are treated to be guards of the directions of celestial regions. They are-Agni, Indra, Varuna and Soma. They respectively guard the directions of east, south, west and north.] We offer the oblations in the Yajna for these four immortal physical forces which are the warders of the four directions, who guard directions and are the controller of them.
Translation
Now do we serve with devotion the great controllers of the world, the four immortal guardians of our ambitions, in the midst of all directions.
Footnote
‘In the midst of all directions’ means in the universe ‘Great controllers and four immortal guardians’ refer to Dharma (Righteousness). Arth (worldly prosperity) Kama (Love of God), Moksha (salvation). These are the four ends of human existence.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−आशानाम्। आङ्+अशू व्याप्तौ−पचाद्यच्, टाप्। दिशानां मध्ये। आशा-पालेभ्यः। कर्मण्यण्। पा० ३।२।१। इति आशा+पल वा पाल रक्षणे-टाप्। दिशानाम् आकाङ्क्षानां वा पालकेभ्यः। लोकपालेभ्यः। चतुः-भ्यः। चतेरुरन्। उ० ५।५८। इति चत याचने−उरन्। याचनीयेभ्यः, कमनीयेभ्यः। अथवा चतुःसंख्याकेभ्यः, धर्मार्थकाममोक्षेभ्यः। अमृतेभ्यः। मृतं मरणम्। मरणरहितेभ्यः, अमरेभ्यः। महायशस्विभ्यः। इदम्। इदानीम्। भूतस्य। लोकस्य। अधि-अक्षेभ्यः। अध्यक्ष्णोति समन्ताद् व्याप्नोति। अधि+अक्ष व्याप्तौ संहतौ−अच्। व्यापकेभ्यः। अधिपतिभ्यः। विधेम। १।१२।२। परिचरेम (विधेम) इत्यस्य प्रयोगे बहुधा कर्मणि चतुर्थी दृश्यते, यथा कस्मै देवाय हविषा विधेम। य० १३।४। हविषा। १।१२।२। आत्मदानेन, भक्त्या ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(ইদং) এই সময় (বয়ং) আমরা (আশানাম্) সব আশার মধ্যে (আশাপালেভ্যঃ) আশার পালক (চতুর্ভ্যঃ) ধর্ম, অর্থ, কাম মোক্ষ এই চারি পদার্থের জন্য, (অমৃতেভ্যঃ) অমৃতরূপ (ভূতস্য) সংসারের (অধ্যক্ষেভ্যঃ) অধ্যক্ষদের জন্য (হবিষা) ভক্তি পূর্বক (বিধেম্) সেবা করি।।
भावार्थ
এখন আমার সব আশার মধ্যে শ্রেষ্ঠ আশা সংসারের অধ্যক্ষ স্বরূপ ধর্ম, অর্থ, কাম, মোক্ষরূপ অমৃতকে ভক্তিপূর্বক সেবা করি।
মানুষের যাবতীয় আশা ধর্ম, অর্থ, কাম ও মোক্ষের মধ্যে পূর্ণ হইয়া যায়। আমরা এই সকলের সেবা করি।।
मन्त्र (बांग्ला)
আশানামাশাপালেভ্যশ্চতুর্ভ্যো অমৃতেভ্যঃ ৷ ইদং ভূতস্যাধ্যক্ষেভ্যো বিধেম হবিষা বয়ম্ ।।
ऋषि | देवता | छन्द
ব্ৰহ্মা। আশাপালাঃ (বাস্তোষ্পতয়ঃ)। অনুষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(পুরুষার্থানন্দোপদেশঃ) পুরুষার্থ এবং আনন্দের জন্য উপদেশ
भाषार्थ
(ইদম্) এই সময় (বয়ম্) আমরা (আশানাম্) সব দিকের মধ্য (আশাপালেভ্যঃ) আশার পালনকারী, (চতুর্ভ্যঃ) প্রার্থনা যোগ্য [অথবা, চার ধর্ম, অর্থ, কাম এবং মোক্ষ] (অমৃতেভ্যঃ) অমর/মরনরহিত, (ভূতস্য) সংসারের (অধ্যক্ষেভ্যঃ) প্রধানদের (হবিষা) ভক্তি দ্বারা/ভক্তিপূর্বক (বিধেম) সেবা করব/করি ॥১॥
भावार्थ
সব মনুষ্যের উত্তম গুণবান পুরুষদের অথবা চতুর্বর্গ, ধর্ম, অর্থ, কাম [ঈশ্বরে প্রেম] এবং মোক্ষ প্রাপ্তির জন্য সদা পূর্ণ পুরুষার্থ করা উচিত। এসবই প্রাপ্তির মাধ্যমে মনুষ্যের সকল আশা বা কামনা পূর্ণ হয়॥১॥
भाषार्थ
(আশানাম্) দিশার/দিকসমূহের (আশাপালেভ্যঃ) দিক-পালক, (চতুভ্যঃ) চার (অমৃতেভ্যঃ) অমৃত (ভূতস্যাধ্যক্ষেভ্যঃ) ভূত-ভৌতিক জগতের অধ্যক্ষদের জন্য (বয়ম্) আমরা (ইদম্)১ এখন (হবিষা) হবি দ্বারা (বিধেম) পরিচর্যা করি।
टिप्पणी
[ইদম্= ইদানীম্ (সায়ণ)। পরিচর্যা=সেবা। চার দিক= পূর্ব, দক্ষিণ, পশ্চিম, উত্তর। এই চার দিশার অধ্যক্ষ হলো চার অমৃত অধ্যক্ষ; পূর্বদিকের অধ্যক্ষ হলো অগ্নি, "প্রাচী দিগগ্নিরধিপতিঃ", দক্ষিণ দিকের অধ্যক্ষ হলো ইন্দ্র, "দক্ষিণা দিগিন্দ্রো অধিপতিঃ" পশ্চিম দিকের অধ্যক্ষ হলো বরুণ, "বরুণো অধিপতিঃ", উত্তর দিকের অধ্যক্ষ হলো সোম, "সোমো অধিপতিঃ" (অথর্ব০ ২৭। ১-৪) । বিধেম=পরিচরণকর্মা (নিঘ০ ৩।৫)।] [১. অথবা "ইদম্" হল পরিচর্যা-কর্ম, যা বিধেমদ্যোতিত ক্রিয়ার কর্ম-বিশেষণ।]
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