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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 33/ मन्त्र 1
    ऋषिः - शन्तातिः देवता - चन्द्रमाः, आपः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आपः सूक्त
    1

    हिर॑ण्यवर्णाः॒ शुच॑यः पाव॒का यासु॑ जा॒तः स॑वि॒ता यास्व॒ग्निः। या अ॒ग्निं गर्भं॑ दधि॒रे सु॒वर्णा॒स्ता न॒ आपः॒ शं स्यो॒ना भ॑वन्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हिर॑ण्यऽवर्णा: । शुच॑य: । पा॒व॒का: । यासु॑ । जा॒त: । स॒वि॒ता । यासु॑ । अ॒ग्नि: । या: । अ॒ग्निम् । गर्भ॑म् । द॒धि॒रे । सु॒ऽवर्णा॑: । ता: । न॒: । आप॑: । शम् । स्यो॒ना: । भ॒व॒न्तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्यवर्णाः शुचयः पावका यासु जातः सविता यास्वग्निः। या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्यऽवर्णा: । शुचय: । पावका: । यासु । जात: । सविता । यासु । अग्नि: । या: । अग्निम् । गर्भम् । दधिरे । सुऽवर्णा: । ता: । न: । आप: । शम् । स्योना: । भवन्तु ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 33; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सूक्ष्म तन्मात्राओं का विचार।

    पदार्थ

    [जो] (हिरण्यवर्णाः) व्यापनशील वा कमनीय रूपवाली (शुचयः) निर्मल स्वभाववाली और (पावकाः) शुद्धि की जतानेवाली हैं, (यासु) जिनमें (सविता) चलाने वा उत्पन्न करनेहारा सूर्य और (यासु) जिनमें (अग्निः) [पार्थिव] अग्नि (जातः) उत्पन्न हुई। (याः) जिन (सुवर्णाः) सुन्दर रूपवाली (आपः) तन्मात्राओं ने (अग्निम्) [बिजुलीरूप] अग्नि को (गर्भम्) गर्भ के समान (दधिरे) धारण किया था, (ताः) वे [तन्मात्राएँ] (नः) हमारे लिये (शम्) शुभ करनेहारी और (स्योनाः) सुख देनेवाली (भवन्तु) होवें ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे परमात्मा ने कामना के और खोजने के योग्य तन्मात्राओं के संयोग-वियोग से अग्नि, सूर्य और बिजुली, इन तीन तेजधारी पदार्थ आदि सब संसार को उत्पन्न किया है, उसी प्रकार मनुष्यों को शुभ गुणों के ग्रहण और दुर्गुणों के त्याग से आपस में उपकारी होना चाहिये ॥१॥ १−(आपः)=व्यापक तन्मात्राएँ−श्रीमद्दयानन्दभाष्य, यजुर्वेद २७।२५ ॥ २−(आपः) के विषय में सूक्त ४, ५ और ६ सूक्त ४ में मनु महाराज का श्लोक भी देखें ॥

    टिप्पणी

    १−हिरण्य-वर्णाः। हर्यतेः कन्यन् हिर च। उ० ४।४४। इति हर्य गति-कान्त्योः−कन्यन्, हिर आदेशश्च, नित्वाद् आद्युदात्तः। कॄवृजॄसिद्रुगुपन्यनिस्वपिभ्यो नित्। उ० ३।१०। इति वृञ् वरणे−न, स च नित्। बहुव्रीहौ प्रकृत्या पूर्वपदम्। पा० ६।२।१। इति पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वेन आद्युदात्तः। कमनीयरूप-युक्ताः, गतिशीलरूपयुक्ताः। प्रकाशस्वरूपाः। शुचयः। इगुपधात् कित्। उ० ४।१२०। इति शुचिर् शौचे=शुद्धौ−इन्, स च कित्। शुद्धस्वभावाः। पावकाः। पूञ् शोधे−घञ्। आतोऽनुपसर्गे कः। पा० ३।२।३। इति कै शब्दे−कः। उपपदमतिङ्। पा० २।२।१९। इति समासः। टाप्। यद्वा। पूञ् ण्वुल्। टाप्। पावकादीनां छन्दःसीति। वा० पा० ७।३।४५। इत्वं निषिद्धम्। पावस्य शुद्धव्यवहारस्य शब्दयित्र्यः, ज्ञापयित्र्यः। पावयित्र्यः, शोधयित्र्यः। यासु। अप्सु। जातः। जनी प्रादुर्भावे−क्त। प्रादुर्भूतः, उत्पन्नः। सविता। १।१८।२। सूर्यः। अग्निः। १।६।२। पार्थिवाग्निः। अग्निम्। वैद्युताग्निम्। गर्भम्। १।११।२। पदार्थेषु गर्भवत् स्थितम्। दधिरे। डुधाञ् धारणपोषणयोः−लिट्। दधुः, स्थायामासुः। सु-वर्णाः। वृञ्−न। शोभनरूपाः। नः। अस्मभ्यम्। आपः। १।५।१। व्यापिकास्तन्मात्राः−इति श्रीमद्दयानन्दभाष्ये, यजु० २७।२५ ॥ शम्। १।३।१। शुभकारिण्यः। स्योनाः। सिवेष्टेर्यू च। उ० ३।९। इति षिवु तन्तुसन्ताने−न प्रत्ययः, टिभागस्य यू इत्यादेशः। स्योनं सुखनाम, निघ० ३।६। अर्शआदिभ्योऽच्, पा० ५।२।१२७। इति मत्वर्थे अच्। सुखवत्यः ॥

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    विषय

    शुचि-पावक जल

    पदार्थ

    १. (ता: आपः) = वे जल (नः) = हमारे लिए (शम्) = शान्ति देनेवाले व (स्योना:) = सुखकर (भवन्तु) = हों, (या:) = जो (अग्निं गर्भ दधिरे) = अग्नि को गर्भ में धारण करते हैं, अत: (सुवर्णा:) = बड़े उत्तम वर्णवाले हैं। उत्तम वर्णवाले ही क्या, (हिरण्यवर्णा:) = स्वर्ण के समान चमकते हुए वर्णवाले हैं, (शुचय:) = पवित्र हैं, (पावका:) = हमें पवित्र करनेवाले हैं, (यासु) = जिनमें (सविता) = सूर्य (जात:) =  प्रादुर्भूत हुआ है, अर्थात् ये सूर्य-किरणों के सम्पर्क में आते हैं, (यासु अनि:) = जिनसे अग्नि प्रादुर्भूत हुआ है, अर्थात् जो अग्नि पर रखकर उबाला गया है। २. वही जल हितकर हैं जो [क] सूर्य-किरणों के सम्पर्क में आते हैं [ख] जिनको अग्नि पर गरम कर लिया गया है [ग] जिनमें किसी प्रकार का मल नहीं पड़ गया, अतएव चमकते हैं।

    भावार्थ

    सूर्य-किरणों के सम्पर्कवाले, अग्नि पर उबाले गये जल हमारे लिए नौरोगता देकर सुखकर हों।

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    भाषार्थ

    (हिरण्यवर्णाः) सुवर्ण के सदृश वर्णवाले, (शुचयः) शुद्ध (पावका:) पवित्र करनेवाले, (यासु) जिनमें (सविता) सूर्य, (यासु) और जिनमें (अग्निः) अग्नि (जातः) प्रादुर्भूत हुई। (या:) जिन (सुवर्णाः) उत्तम वर्णवाले (आप:) आप ने (अग्निम् ) अग्नि को (गर्भम्) गर्भरूप में ( दधिरे) धारण किया, (ताः) वे [आपः] (नः) हमें (स्योनाः) सुखकारी (भवन्तु) हों ।

    टिप्पणी

    [समग्र सूक्त में आप:पद भिन्न-भिन्न प्रकार के आप: के सम्बन्ध में प्रयुक्त हुआ है। हिरण्यवर्णाः आप हैं विराट् रूपी आप: (यजु:० ३१।५)। ये आप: हैं द्रवावस्था में, अतः इनका अतिरेचन अर्थात् विरेचन हुआ (अति अरिच्यत) (यजुः० ३१।५)। ये आप्तः दधकती अवस्था में थे (विराट् = वि + राजृ दीप्तौ) अतः चमकीले थे। अतिविरेचन से छींटे रूप में द्युलोक के दधकते नक्षत्र-तारागण पैदा हुए। ये भी हिरण्यवर्णाः हैं। ये शुचि हैं अतः पावक हैं। ये द्रवावस्था में थे। कालान्तर में ये घनीभूत हुए और इनसे सविता अर्थात् सूर्य पैदा हुआ, और अग्नि पैदा हुई। यह अग्नि है अन्तरिक्षस्थ मेघों में स्थित मेघीय विद्युत् । स्योना= स्योमिति सुखनाम (निघं० ३।६)। मनु ने विराडवस्था को आप: कहा है। प्रारम्भ में विराट् द्रवरूप था। उसमें प्रजापति ने काम अर्थात् कामनारूपी बीज का स्थापन किया, आधान किया।]

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    विषय

    मूलकारण ‘आपः’ और आप्तजनों का वर्णन

    भावार्थ

    (यासु) जिनमें (सविता) सब का प्रेरक परमात्मा (जातः) चित् रूप से, जीवनशक्ति द्वारा, समस्त जीव संसार को उत्पन्न करने में समर्थ हुआ और ( यासु ) जिनमें ( अग्निः ) अग्निः विद्युत् या उसके समान ज्ञानी, नेता अर्थात् अग्रणी प्रधान मन्त्री है, ( याः ) जो ‘आपः आप्तजन ( अग्निं ) अग्नि तुल्य प्रकाशमान प्रधान मन्त्री को अपने ( गर्भं ) भीतर, गर्भ में ही ( दधिरे ) धारण करते हैं ( ताः ) वे ( सुवर्णाः ) उत्तम रूप वाली, वरण करने योग्य ( हिरण्यवर्णाः ) हितकारी और रमणीय, हृदय को प्रिय और ( शुचयः ) शुद्ध, कान्तिमय (पावकाः) अग्नि के समान स्वयं मलशोधक, पवित्र (आपः) ‘आपः’ आप्तजन ( नः ) हमें ( शं ) कल्याणकारी ( स्योनाः ) सुखकारी ( भवन्तु ) हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ‘सर्वकारणमाप’ इति ज्ञानवान् शंतातिर्ऋषिः । चन्द्रमा उत आपो देवताः । त्रिष्टुप् छन्दः । चतुऋचं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    for Peace

    Meaning

    The golden hued, pure and purifying primeval waters, original plastic material of existential forms, wherein manifested Savita, divine creative will, and Agni, basic vitality of life, and which, like the womb of nature, held within the vital heat that sustains life, may, we pray, be beatific, peaceful and blissful for us. (In relation to Apah, reference may be made to ‘Samudro’ amavah’ of Rgveda 1, 190, 1, and ‘Salilam’ of Rgveda 1, 129, 3, Shatapatha Brahmana 7, 5, 2, 18, and Taittiriya Brahmana 1, 1, 3, 5.)

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    Subject

    Apah--Waters

    Translation

    The golden-hued glittering, purifying, wherein was born the Sun and wherein the fire, those of beautiful colour that conceived the fire (the foremost adorable one ) in their womb, may those elemental waters be beneficial and pleasing to us.

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    Translation

    May for us be auspicious and beneficial those waters or tenacious material elements which are splendid, bright and pure, where-in was born the Sun, wherein was born the fire, and which shining highly preserve electricity and heat in their inner fold.

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    Translation

    May the golden-hued, the bright, the splendid waters wherein the Sun was born and fire was born; they, who took fire in their womb, fair-colored bring felicity and bless us.

    Footnote

    Daily we see the Sun rising from the sea, as if the water of the sea gives him birth. बड़वानल fire generally comes out of the waters of the seas hence waters are the creator of fire, Agni springs in the form of lightning from the watery clouds. Waters have been spoken of as keeping fire in their womb.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−हिरण्य-वर्णाः। हर्यतेः कन्यन् हिर च। उ० ४।४४। इति हर्य गति-कान्त्योः−कन्यन्, हिर आदेशश्च, नित्वाद् आद्युदात्तः। कॄवृजॄसिद्रुगुपन्यनिस्वपिभ्यो नित्। उ० ३।१०। इति वृञ् वरणे−न, स च नित्। बहुव्रीहौ प्रकृत्या पूर्वपदम्। पा० ६।२।१। इति पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वेन आद्युदात्तः। कमनीयरूप-युक्ताः, गतिशीलरूपयुक्ताः। प्रकाशस्वरूपाः। शुचयः। इगुपधात् कित्। उ० ४।१२०। इति शुचिर् शौचे=शुद्धौ−इन्, स च कित्। शुद्धस्वभावाः। पावकाः। पूञ् शोधे−घञ्। आतोऽनुपसर्गे कः। पा० ३।२।३। इति कै शब्दे−कः। उपपदमतिङ्। पा० २।२।१९। इति समासः। टाप्। यद्वा। पूञ् ण्वुल्। टाप्। पावकादीनां छन्दःसीति। वा० पा० ७।३।४५। इत्वं निषिद्धम्। पावस्य शुद्धव्यवहारस्य शब्दयित्र्यः, ज्ञापयित्र्यः। पावयित्र्यः, शोधयित्र्यः। यासु। अप्सु। जातः। जनी प्रादुर्भावे−क्त। प्रादुर्भूतः, उत्पन्नः। सविता। १।१८।२। सूर्यः। अग्निः। १।६।२। पार्थिवाग्निः। अग्निम्। वैद्युताग्निम्। गर्भम्। १।११।२। पदार्थेषु गर्भवत् स्थितम्। दधिरे। डुधाञ् धारणपोषणयोः−लिट्। दधुः, स्थायामासुः। सु-वर्णाः। वृञ्−न। शोभनरूपाः। नः। अस्मभ्यम्। आपः। १।५।१। व्यापिकास्तन्मात्राः−इति श्रीमद्दयानन्दभाष्ये, यजु० २७।२५ ॥ शम्। १।३।१। शुभकारिण्यः। स्योनाः। सिवेष्टेर्यू च। उ० ३।९। इति षिवु तन्तुसन्ताने−न प्रत्ययः, टिभागस्य यू इत्यादेशः। स्योनं सुखनाम, निघ० ३।६। अर्शआदिभ्योऽच्, पा० ५।२।१२७। इति मत्वर्थे अच्। सुखवत्यः ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    যাহা (হিরণ্যবর্ণঃ) প্রকাশ স্বরূপ (শুচয়ঃ) শুদ্ধস্বভাব ও (পাবকাঃ) শুদ্ধি কারক, (য়াসু) যাহাতে (সবিতা) উৎপাদক সূর্য ও (য়াসু) যাহাতে (অগ্নিঃ) ভৌতিক অগ্নি (জাতঃ) উৎপন্ন হইয়াছ (য়াঃ) যে (সুবর্ণাঃ) সুরূপা (আপঃ) তন্মাত্রা (অগ্নিং) বিদ্যুদগ্নিকে (গর্ভং) গর্ভের ন্যায় (দধিরে) ধারণ করিয়াছে (তাঃ) সেই তন্মাত্রা (নঃ) আমাদের নিকট (শং) কল্যাণ কারিণী ও (স্যোনাঃ) সুখদায়িনী (ভবন্তু) হউক।। ১।। অনুবাদঃ যাহা প্রকাশ স্বরূপ, শুদ্ধ স্ববাব ও শুদ্ধিকারক, যাহাতে উৎপাদক সূর্য ও ভৌতিক অগ্নি উৎপন্ন হইয়াছে, যে সুরূপা তন্মাত্রা বিদ্যুৎ অগ্নিকে গর্ভের ন্যায় ধারণ করিয়াছে সেই তন্মাত্রা আমাদের নিকট কল্যাণকারিণী ও সুখদায়িনী হউক।।১।।সুরূপা (আপঃ) তন্মাত্রা (অগ্নিং) বিদ্যুদগ্নিকে (গর্ভং) গর্ভের ন্যায় (দধিরে) ধারণ করিয়াছে (তাঃ) সেই তন্মাত্রা (নঃ) আমাদের নিকট (শং) কল্যাণ কারিণী ও (স্যোনাঃ) সুখদায়িনী (ভবন্তু) হউক।।

    भावार्थ

    যাহা প্রকাশ স্বরূপ, শুদ্ধ স্ববাব ও শুদ্ধিকারক, যাহাতে উৎপাদক সূর্য ও ভৌতিক অগ্নি উৎপন্ন হইয়াছে, যে সুরূপা তন্মাত্রা বিদ্যুৎ অগ্নিকে গর্ভের ন্যায় ধারণ করিয়াছে সেই তন্মাত্রা আমাদের নিকট কল্যাণকারিণী ও সুখদায়িনী হউক।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    হিরণ্যবর্ণাঃ শুচয়ঃ পাবকা য়াসু জাতঃ সবিতা য়াস্বগ্নিঃ ৷ অগ্নিং গর্ভং দধিরে সুবর্ণান্তা ন আপঃ শং স্যোনা ভবন্তু।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    শস্তাতিঃ। আপঃ। ত্রিষ্টুপ্

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    मन्त्र विषय

    (সূক্ষ্মতন্মাত্রাবিচারঃ) সূক্ষ্ম তন্মাত্রাসমূহের বিচার

    भाषार्थ

    [যে] (হিরণ্যবর্ণাঃ) ব্যাপনশীল বা কমনীয় রূপযুক্ত (শুচয়ঃ) নির্মল/শুদ্ধ স্বভাবযুক্ত এবং (পাবকাঃ) শুদ্ধির প্রতিষ্ঠাকারী/রক্ষক/জ্ঞাপনকারী, (যাসু) যাঁর মধ্যে (সবিতা) চলমান বা উৎপন্নকারী সূর্য এবং (যাসু) যাঁর মধ্যে (অগ্নিঃ) [পার্থিব] অগ্নি (জাতঃ) উৎপন্ন হয়েছে, (যাঃ) যে (সুবর্ণাঃ) সুন্দর রূপযুক্ত (আপঃ) তন্মাত্রাসমূহ (অগ্নিম্) [বিদ্যুৎরূপ] অগ্নিকে (গর্ভম্) গর্ভের ন্যায় (দধিরে) ধারণ করেছিলো, (তাঃ) সেইসব [তন্মাত্রাসমূহ] (নঃ) আমাদের জন্য (শম্) কল্যাণকারী এবং (স্যোনাঃ) সুখদায়ক (ভবন্তু) হোক॥১॥

    भावार्थ

    যেরূপ পরমাত্মার কামনার এবং অনুসন্ধানের যোগ্য তন্মাত্রাসমূহের সংযোগ-বিয়োগ দ্বারা অগ্নি, সূর্য এবং বিদ্যুৎ, এই তেজময় পদার্থ আদি সমস্ত সংসারকে উৎপন্ন করেছে, তেমনিভাবে মনুষ্যদেরকে শুভ গুণসমূহের গ্রহণ এবং দুর্গুণসমূহের ত্যাগ দ্বারা নিজেদের মধ্যে উপকারী হওয়া উচিত ॥১॥ ১−(আপঃ)= ব্যাপক তন্মাত্রাসমূহ−শ্রীমদ্দয়ানন্দভাষ্য, যজুর্বেদ ২৭।২৫ ॥ ২−(আপঃ) এর বিষয়ে সূক্ত ৪, ৫ এবং ৬ সূক্ত ৪ এ মনু মহারাজের শ্লোকও দেখুন ॥

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    भाषार्थ

    (হিরণ্যবর্ণাঃ) সুবর্ণের সদৃশ বর্ণবিশিষ্ট, (শুচয়ঃ) শুদ্ধ, (পাবকাঃ) পবিত্রকারী, (যাসু) যেখানে/যার মধ্যে (সবিতা) সূর্য (যাসু) এবং যেখানে/যার মধ্যে (অগ্নিঃ) অগ্নি (জাতঃ) প্রাদুর্ভূত হয়েছে; (যাঃ) যে (সুবর্ণা) উত্তম বর্ণবিশিষ্ট (আপঃ) আপঃ (অগ্নিম্) অগ্নিকে (গর্ভম্) গর্ভরূপে (দধিরে) ধারণ করেছে, (তাঃ) তা/সেই [আপঃ] (নঃ) আমাদের (স্যোনাঃ) সুখকারী (ভবন্তু) হোক।

    टिप्पणी

    [সমগ্র সূক্তে আপঃ পদ ভিন্ন-ভিন্ন প্রকারের আপঃ-এর সম্পর্কে প্রযুক্ত হয়েছে। হিরণ্যবর্ণাঃ আপঃ হল বিরাট্ রূপী আপঃ (যজুঃ০ ৩১।৫)। এই আপঃ রয়েছে দ্রবাবস্থায়, অতএব এর অতিরেচন অর্থাৎ বিরেচন হয়েছে (অতি অরিচ্যত) (যজু০ ৩১।৫)। এই আপঃ দগ্ধ অবস্থায় ছিল (বিরাট্= বি+রাজৃ দীপ্তৌ) অতএব দীপ্তিময় ছিল এবং অতি বিরেচন থেকে কণা রূপে দ্যুলোকের দগ্ধ নক্ষত্র-তারাগণ উৎপন্ন হয়েছে। এগুলোও হিরণ্যবর্ণাঃ। এগুলো শুচি অতএব পাবক/পবিত্র। এগুলো দ্রবাবস্থায় ছিল। কালান্তরে এগুলো ঘনীভূত হয়েছে এবং তা থেকে সবিতা অর্থাৎ সূর্য উৎপন্ন হয়েছে, এবং অগ্নি উৎপন্ন হয়েছে। এই অগ্নি হল অন্তরিক্ষস্থ মেঘে স্থিত মেঘীয় বিদ্যুৎ। স্যোনা = স্যোনমিতি সুখনাম (নিঘং০ ৩।৬)। মনু বিরাডবস্থা-কে আপঃ বলেছেন। প্রারম্ভে বিরাট্ দ্রবরূপ ছিল। তার মধ্যে প্রজাপতি কাম অর্থাৎ কামনারূপী বীজের স্থাপন করেছেন, আধান করেছেন।

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