अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 1
स्तु॑वा॒नम॑ग्न॒ आ व॑ह यातु॒धानं॑ किमी॒दिन॑म्। त्वं हि दे॑व वन्दि॒तो ह॒न्ता दस्यो॑र्ब॒भूवि॑थ ॥
स्वर सहित पद पाठस्तु॒वा॒नम् । अ॒ग्ने॒ । आ । व॒ह॒ । या॒तु॒धान॑म् । कि॒मी॒दिन॑म् ।त्वम् । हि । दे॒व॒ । व॒न्दि॒त: । ह॒न्ता । दस्यो॑: । व॒भूवि॑थ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्तुवानमग्न आ वह यातुधानं किमीदिनम्। त्वं हि देव वन्दितो हन्ता दस्योर्बभूविथ ॥
स्वर रहित पद पाठस्तुवानम् । अग्ने । आ । वह । यातुधानम् । किमीदिनम् ।त्वम् । हि । देव । वन्दित: । हन्ता । दस्यो: । वभूविथ ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सेनापति के लक्षण।
पदार्थ
(अग्ने) हे अग्ने ! [अग्निसमान प्रतापी] (स्तुवानम्) [तेरी] स्तुति करते हुए (यातुधानम्) पीडा देनेहारे (किमीदिनम्) यह क्या, यह क्या हो रहा है, ऐसा कहनेवाले लुतरे को (आवह) ले आ। (हि) क्योंकि (देव) हे राजन् (त्वम्) तू (वन्दितः) स्तुति को प्राप्त करके (दस्योः) चोर वा डाकू का (हन्ता) हनन कर्ता (बभूविथ) हुआ था ॥१॥
भावार्थ
जब अग्नि के समान तेजस्वी और यशस्वी राजा दुःखदायी लुतरों [चुग़लख़ोरों] और डाकुओं और चोरों को आधीन करता है, तो शत्रु लोग उसके बल और प्रताप की प्रशंसा करते हैं और राज्य में शान्ति फैलती है ॥१॥ (किमीदिन्) शब्द का अर्थ भगवान् यास्क ने अब क्या हो रहा है वा यह क्या यह क्या हो रहा है, ऐसा कहते हुए छली, सूचक वा चुग़लख़ोर का किया है, निरु० ६।११ ॥
टिप्पणी
१−स्तुवानम्। ष्टुञ् स्तुतौ−लटः शानच्। अचि श्नुधातुभ्रुवां०। पा० ६।४।७७। इति उवङ्। त्वां प्रशंसन्तं स्तुवन्तम्। अग्ने। १।६।२। अग्निशब्दो यास्केन बहुविधं व्याख्यातः, निरु० ७।१४। हे वह्ने, हे पावक, हे अग्निवत् तेजस्विन् सेनापते ! आ-वह। आनय। यातु-धानम्−कृवापाजिमि०। उ०। १।१। इति यत ताडने-उण्। यातुं पीडां दधाति ददाति। डुधाञ् धारणपोषणदानेषु−युच्। पीडाप्रदं राक्षसम्। किमीदिनम्। किम्+इदानीम् वा किम्+इदम्-इनि। किमीदिने किमिदानीमिति चरते किमिदं किमिदमिति वा पिशुनाय चरते−निरु० ६।११। इति यास्कवचनात् किमिदानीं वर्तते किमिदं वर्तते−इति एवमन्वेषमाणः किमिदी, पिशुनः। साधुजनवैरिणं, सदा विरुद्धबुद्धिं, पिशुनम्। हि। यस्मात्। अवश्यम्। देव। १।४।३। हे द्योतमान ! राजन् ! वन्दितः। वदि स्तुत्यभिवादयोः−क्त। स्तुतः। नमस्कृतः। हन्ता। हन−तृच्। हननकर्ता, घातयिता। दस्योः। यजिमनिशुन्धिदसिजनिभ्यो युच्। उ० ३।२०। इति दसु उपक्षये−युच्। दस्यति परस्वान् नाशयतीति। चौरस्य। शत्रोः। बभूविथ। भू सत्तायां प्राप्तौ च−लिट् मध्यमैकवचनम्। त्वं भवसि स्म ॥
विषय
परिवर्तन
पदार्थ
१. एक ब्राह्मण उन व्यक्तियों में प्रचार-कार्य आरम्भ करता है जो सदाचार का जीवन न बिताकर कदाचार में पड़ जाते हैं। उसके उपदेश से प्रभावित होकर वे अपने जीवन में परिवर्तन लाते हैं और इस प्रचारक का स्तवन करनेवाले होते हैं कि इसने जीवन में उत्तम परिवर्तन ला दिया। इन परिवर्तित जीवनवाले व्यक्तियों को यह ब्राह्मण फिर से समाज का अङ्ग बनाता है। मन्त्र में कहते हैं कि हे (अग्रे) = ज्ञानप्रकाश के द्वारा उन्नति-पथ पर ले-चलनेवाले ब्राह्मण! तू (स्तुवानम्) = इन स्तुति करनेवालों को (आवह) = समाज में ले-आ। आज तक ये (यातुधानम्) = पीड़ा का आधान करनेवाले बने हुए थे तथा (किमीदिनम्) = इनका प्रतिक्षण यही बोल होता था कि 'किम् अदानि' क्या खाऊँ। ये औरों को पीड़ित करते थे और उनके द्रव्यों को अन्याय से छीनकर भोगों के बढ़ाने में लगे हुए थे। २. हे देव-ज्ञान-प्रकाश देनेवाले ज्ञानिन्! (त्वं हि) = आप ही निश्चय से (वन्दितः) = इन परिवर्तित जीवनवाले यातुधानों से वन्दित होते हुए (दस्यो:) = [दस् उपक्षये] इन क्षय करनेवालों के (हन्ता) = नाशक (बभूविथ) = होते हो। इनकी दस्युवृत्ति को समाप्त करके आप इन्हें दस्यु नहीं रहने देते। औरों को पीड़ा न देने के कारण अब ये 'यातुधान' नहीं रहे। प्रतिक्षण 'क्या खाऊँ' इस बात का जाप न करने से ये अब 'किमीदिन्' नहीं रहे । क्षय की वृत्ति से ऊपर उठ जाने से इनका दस्युत्व समाप्त हो गया है।
भावार्थ
राष्ट्र में ब्राह्मण जोकि अग्नि और देव है, वे 'यातुधानों, किमीदिनों व दस्युओं' के जीवन को ज्ञान-प्रचार के द्वारा परिवर्तित करके उन्हें फिर से समाज का अङ्ग बना देते हैं।
भाषार्थ
(अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रिन् ! (स्तुवानम्) यातना के प्रशंसक, (किमीदिनम्) किम्-इदानीम् इस प्रकार प्रश्नपूर्वक भेद लेनेवाले, (यातुधानम्) यातना के निधि रूप को (आवह) बाँध कर [मन्त्र ७] यहाँ ला।१ (देव) हे दिव्यगुणी अग्रणी ! (त्वम्, हि) तू निश्चय से (वन्दितः) हम प्रजाओं द्वारा अभिवादित है, (दस्योः) उपक्षयकारी यातुधान का (हन्ता बभूविथ) हननकर्ता हुआ है ।
टिप्पणी
[समग्र सूक्त के अनुसार अग्नि यज्ञियाग्नि नहीं, अपितु अग्रणी है। अग्रणी-प्रधानमन्त्री, यह अगले मन्त्रों द्वारा स्पष्ट हो जायगा।] [१. राष्ट्रिय न्यायालय में अपराध पर निर्णय करने के लिये राष्ट्रिय सभा का वर्णन हुआ है। यथा "धर्माय सभाचरम् (३०।६)। राष्ट्रिय न्यायालय की भावना नई नहीं। यजुर्वेद ३०।१० में "मर्यादायै प्रश्नविवाकम्" द्वारा राष्ट्रिय मर्यादा के लिये प्राङ्विवाक का वर्णन हुआ है और ३०।१८ में "सभास्थानुम्" द्वारा सभा अर्थात् न्यायाधीशों की सभा में स्थिर रहनेवाले "मुख्य सभाधीश" का वर्णन हुआ है। महीधर ने "प्रश्नविवाकम्" का अर्थ किया है "कृतान् प्रश्नान् यो विविनक्ति", ३०।१८ में "सभास्थानुम्" का अर्थ किया है स्थिरता सभायां स्थिरम्। धर्माय सभाचरम् का अभिप्राय है राष्ट्रधर्म की स्थिति के लिये सभाचर अर्थात् न्यायसभा में विचरण करनेवाला मुख्य न्यायाधीश।]
विषय
प्रजा के पीड़ाकारियों का दमन ।
भावार्थ
हे (देव) प्रकाशमान ! ज्ञानप्रद ब्राह्मण ! ( अग्ने ) अग्नि के समान तेजस्विन् ! ( स्तुवानं ) तेरा गुणगान करते हुए ( यातुधानं ) पीड़ादायक, ( किमीदिनं ) ‘अब क्या, अब क्या’ इस प्रकार सदा जीवन के सङ्कट में पड़े, अथवा ‘यह क्या, यह क्या’ इस प्रकार सब के जान माल के स्वत्व को तुच्छ समझने वाले, सबके अपमानकारी पुरुष को तू ( आ वह ) अपने पास ला । क्योंकि ( त्वं हि ) तू ( वन्दितः ) नमस्कार किया जाकर ही (दस्योः) प्रजा के नाशक लोगों का ( हन्ता ) हनन करने वाला ( बभूविथ ) होता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
चातन ऋषिः । अग्निर्देवता । १-४, ६, ७ अनुष्टुभः ५, त्रिष्टुप् । सप्तर्चं सूक्तम् ।
इंग्लिश (4)
Subject
Elimination of Negative Forces
Meaning
Refulgent Agni, ruler and commander, round up the malignant, crafty, flatterer, go getter who does not value life. You alone, honoured and celebrated, are the destroyer of negative, antisocial evil forces of cruelty and destruction.
Subject
Agnih
Translation
O adorable Lord, may you bring here the vile informer (the deceit) who has confessed him-self. O Lord, our reverence to you, for surely you are (and you have been) the killer of the evil spirit or barbarism.
Translation
O' powerful Commander. Bring the declared and anti-social miser before you as you lauded become the killer of miscreants.
Translation
O learned preacher, bring hither, a eulogising person diabolic in nature, and a treacherous informer. For thou, when lauded becomest the demon's slaughterer.
Footnote
Bring hither means put under your control Kemidin means a person who says 'what' is this', 'what now ,who ridicules others; and is a treacherous spy, Yatudhāna means a person who torments and teases others, being devilish in nature. Agni has been translated as a commander by Pt. Khem Karan Das Trivedi. To improve the character of a demon by sound preaching is tantamount to slaughtering and removing his evil propensities.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−स्तुवानम्। ष्टुञ् स्तुतौ−लटः शानच्। अचि श्नुधातुभ्रुवां०। पा० ६।४।७७। इति उवङ्। त्वां प्रशंसन्तं स्तुवन्तम्। अग्ने। १।६।२। अग्निशब्दो यास्केन बहुविधं व्याख्यातः, निरु० ७।१४। हे वह्ने, हे पावक, हे अग्निवत् तेजस्विन् सेनापते ! आ-वह। आनय। यातु-धानम्−कृवापाजिमि०। उ०। १।१। इति यत ताडने-उण्। यातुं पीडां दधाति ददाति। डुधाञ् धारणपोषणदानेषु−युच्। पीडाप्रदं राक्षसम्। किमीदिनम्। किम्+इदानीम् वा किम्+इदम्-इनि। किमीदिने किमिदानीमिति चरते किमिदं किमिदमिति वा पिशुनाय चरते−निरु० ६।११। इति यास्कवचनात् किमिदानीं वर्तते किमिदं वर्तते−इति एवमन्वेषमाणः किमिदी, पिशुनः। साधुजनवैरिणं, सदा विरुद्धबुद्धिं, पिशुनम्। हि। यस्मात्। अवश्यम्। देव। १।४।३। हे द्योतमान ! राजन् ! वन्दितः। वदि स्तुत्यभिवादयोः−क्त। स्तुतः। नमस्कृतः। हन्ता। हन−तृच्। हननकर्ता, घातयिता। दस्योः। यजिमनिशुन्धिदसिजनिभ्यो युच्। उ० ३।२०। इति दसु उपक्षये−युच्। दस्यति परस्वान् नाशयतीति। चौरस्य। शत्रोः। बभूविथ। भू सत्तायां प्राप्तौ च−लिट् मध्यमैकवचनम्। त्वं भवसि स्म ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(অগ্নে) হে অগ্নি তুল্য পরাক্রমশীল! (দেব) হে রাজন! (স্তুবানন্) স্তাবক, (য়াতুধানং) পরপীড়ক ও (কিমীদিনম্) ইহা কি? এইরূপ শব্দকারী পরোক্ষ নিন্দুককে (আবহ) আনয়ন কর। (ত্বম্) তুমি (দস্যোঃ) দস্যুর (হস্তা) হনন কর্তা (বভূবিথ) হইয়াছ (হি) এইজন্যই (বন্দিতঃ) স্তুতি প্রাপ্ত হইতেছ।।
‘য়াতুধানম্’ পরপীড়ক রাগ-সম্। য়ত তাড়নে উণ্। য়াতুং পীড়াং দধাতি। ‘কিমীদিনম্' কিম্ ইদানীম্ বা কিম্ ইতি। কিমীদিনে কিমিদানীমিতি চরতে কিমিদং কিমিদামিতি বা পিণ্ডনায় চয়তে চরতে। নিরুক্ত ৬.১১। কিমিদানীং বৰ্ত্ততে কিমিদং বৰ্ত্ততে ইতি এবমদ্বেষ মাণঃ কিমিদী, পিণ্ডনঃ । সাধুজন বৈরিণং, সদা বিরুদ্ধ বুদ্ধিং, পিণ্ডনম্। 'ইহা কি হইতেছে, ইহ কি?’ এইরূপ যাহারা অনুসন্ধান করিয়া বিচরণ করে সেই সাধুজনবৈরী, পরনিন্দুককে ‘কিমীদিনম্’ বলে ৷ ‘দস্যু’ দসু উপক্ষয়ে ঘুচ্। দসাতি পরস্বান্ নাশয়তি। চৌরঃ, শত্রু।।
भावार्थ
হে অগ্নি তুল্য পরাক্রমশীল রাজন! যাহারা স্তাবক, পরপীড়ক ও পরনিন্দুক তাহাদিগকে আনয়ন কর। তুমি দস্যুদের হননকর্তা বলিয়াই আমাদের নিকট বন্দিত হইতেছ।।
मन्त्र (बांग्ला)
স্তুবানমগ্ন আ বহু য়াতুধানং কিমীদিনম্ ৷ ত্বং হি দেব বন্দিতো হন্তা দস্যোর্ব ভূবিথ।।
ऋषि | देवता | छन्द
চাতনঃ। অগ্নিঃ। অনুষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(সেনাপতিলক্ষণানি) সেনাপতির লক্ষণ
भाषार्थ
(অগ্নে) হে অগ্নি ! [অগ্নির সমান প্রতাপশালী] (স্তুবানম্) [তোমার] স্তুতি করে (যাতুধানম্) পীড়াদায়ক/উৎপীড়িতকারী (কিমীদিনম্) "এটা কি! এটা কি হচ্ছে!"- এমন কথনকারী লুটপাটকারীদের (আবহ) নিয়ে এসো। (হি) কারণ (দেব) হে রাজন্! (ত্বম্) তুমি (বন্দিতঃ) স্তুতি প্রাপ্ত করে (দস্যোঃ) চোর বা ডাকাতের (হন্তা) হননকর্তা (বভূবিথ) হয়েছিলে॥১॥
भावार्थ
যখন অগ্নির সমান তেজস্বী ও যশস্বী রাজা দুঃখদায়ী লুটপাটকারীদের ও ডাকাত এবং চোরদের নিজের অধীনে করে, তখন শত্রুরা তাঁর বল এবং প্রতাপের প্রশংসা করে এবং রাজ্যে শান্তি প্রসারিত হয় ॥১॥ (কিমীদিন্) শব্দের অর্থ ভগবান যাস্ক "এখন কি হচ্ছে বা এটা কি হচ্ছে"-এমনটা বিবৃতি ছলনা, সূচক বা উস্কানি যাঁরা করে তাঁদের ক্ষেত্রে করেছেন, নিরু০ ৬।১১ ॥
भाषार्थ
(অগ্নে) হে অগ্রণী প্রধানমন্ত্রী ! (স্তুবানম্) যাতনার প্রশংসক, (কিমীদিনম্) কিম্-ইদানীম্ এইরকম প্রশ্নপূর্বক ভেদ গ্ৰহণকারী, (যাতুধানম্) যাতনার নিধিরূপকে (আবহ) বেঁধে/বন্ধন করে [মন্ত্র ৭] এখানে নিয়ে এসো।১ (দেব) হে দিব্যগুণী অগ্রণী ! (ত্বম্, হি) তুমি নিশ্চিতরূপে (বন্দিতঃ) আমাদের প্রজাদের দ্বারা অভিবাদিত, (দস্যোঃ) উপক্ষয়কারী যাতুধানের/পীড়াদায়ক/শত্রুদের (হন্তা বভূবিথ) হননকর্তা হয়েছো।
टिप्पणी
[সমগ্র সূক্তের অনুসারে অগ্নি যজ্ঞিয়াগ্নি নয়, অপিতু অগ্রণী। অগ্রণী-প্রধানমন্ত্রী, ইহা আগামী মন্ত্রের দ্বারা স্পষ্ট হয়ে যাবে।] [১. রাষ্ট্রিয় ন্যায়ালয়ে অপরাধের বিচার করার জন্য রাষ্ট্রীয় সভার বর্ণনা হয়েছে। যথা "ধর্মায় সভাচরম্ (৩০।৬)। রাষ্ট্রীয় ন্যায়ালয়ের ভাবনা নতুন নয়। যজুর্বেদ ৩০।১০ এ "মর্যাদায়ৈ প্রশ্নবিবাকম্" দ্বারা রাষ্ট্রীয় মর্যাদার জন্য প্রাঙ্বিবাকের বর্ণনা হয়েছে এবং ৩০।১৮ এ "সভাস্থানুম্" দ্বারা সভা অর্থাৎ ন্যায়াধীশের সভায় স্থির থাকা "মুখ্য সভাধীশ" এর বর্ণনা হয়েছে। মহীধর "প্রশ্নবিবাকম্" এর অর্থ করেছেন "কৃতান্ প্রশ্নান্ যো বিবিনক্তি", ৩০।১৮ এ "সভাস্থানুম্" এর অর্থ করেছেন স্থিরতা সভায়াং স্থিরম্। ধর্মায় সভাচরম্ এর অভিপ্রায় হল রাষ্ট্রধর্মের স্থিতির জন্য সভাচর অর্থাৎ ন্যায়সভা মধ্যে বিচরণকারী মুখ্য ন্যায়াধীশ।]
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