अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
ऋषिः - चातनः
देवता - बृहस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यातुधाननाशन सूक्त
7
इ॒दं ह॒विर्या॑तु॒धाना॑न्न॒दी फेन॑मि॒वा व॑हत्। य इ॒दं स्त्री पुमा॒नक॑रि॒ह स स्तु॑वतां॒ जनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । ह॒वि: । या॒ऽतुधाना॑न् । न॒दी । फेन॑म्ऽइव । आ । व॒ह॒त् ।य: । इ॒दम् । स्त्री । पुमा॑न् । अक॑: । इ॒ह । स: । स्तु॒व॒ता॒म् । जन॑: ॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं हविर्यातुधानान्नदी फेनमिवा वहत्। य इदं स्त्री पुमानकरिह स स्तुवतां जनः ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । हवि: । याऽतुधानान् । नदी । फेनम्ऽइव । आ । वहत् ।य: । इदम् । स्त्री । पुमान् । अक: । इह । स: । स्तुवताम् । जन: ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सेनापति के लक्षण।
पदार्थ
(इदम्) यह (हविः) [हमारी] भक्ति (यातुधानान्) राक्षसों को (आवहत्) ले आवे, (इव) जैसे (नदी) नदी (फेनम्) फेन को। (यः) जिस किसी (पुमान्) मनुष्य ने अथवा (स्त्री) स्त्री ने (इदम्) इस [पापकर्म] को (अकः) किया है (सः जनः) वह पुरुष (स्तुवताम्) [तेरी] स्तुति करे ॥१॥
भावार्थ
प्रजा की पुकार सुनकर जब राजा दुष्टों को पकड़ता है, अपराधी स्त्री और पुरुष अपने अपराध को अङ्गीकार कर लेते और उस प्रतापी राजा की स्तुति करते हैं ॥१॥ (स्त्री) शब्द का अर्थ संग्रह करने हारी वा स्तुति योग्य और [पुमान्] का अर्थ रक्षक वा पुरुषार्थी है।
टिप्पणी
१−इदम्। प्रस्तुतं, क्रियमाणम्। हविः। १।४।३। दानम्। भक्तिः। आवाहनम्। यातु-धानान्। १।७।१। पीडाप्रदान् राक्षसान्। नदी। नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः। पा० ३।१।१३४। इति णद ध्वनौ-पचाद्यच्। गणे नदट् इति पाठात् टित्त्वात्-ङीप्। नदति प्रवाहवेगेन शब्दायत इति। नद्यः कस्मात् नदना भवन्ति शब्दवत्यः−निरु० २।२४। नदनशीला, सरित्, तरङ्गिणी। फेनम्। फेनमीनौ। उ० ३।३। इति स्फायी वृद्धौ-नक्, फेशब्दादेशः। स्फायते वर्धते स फेनः। हिण्डीरम्, समुद्रफेनम्। आ+वहत्। वह प्रापणे-लेट्। आनयेत्। स्त्री। स्त्यायतेर्ड्रट्। उ० ४।१६६। इति स्त्यै संहतौ, ध्वनौ−ड्रट्, ङीप्। स्त्यायति शब्दयति गृहृणाति वा गुणान् सा। यद्वा, ष्टुञ् स्तुतौ-ड्रट्। ङीप्। स्तौति गुणान् वा स्तूयते सा स्त्री। नारी। पुमान्। पातेर्डुमसुन्। उ० ४।१७८। इति पा रक्षणे डुमसुन्। डित्वात् टिलोपः। पातीति पुमान् मनुष्यः, पुरुषः। अकः। डुकृञ् करणे-लुङ्। हल्ङ्याब्भ्यो दीर्घात्०। पा० ६।१।६८। इति ति इत्यस्य इकारलोपे तलोपः। अकार्षीत्। स्तुवताम्। ष्टुञ् स्तुतौ-लोट्। छन्दसि शः। स्तुतिं करोतु। जनः। जनी प्रादुर्भावे, वा जन जनने-अच्। जायते जनयति वा स जनः। लोकः ॥
विषय
नदी जैसे झाग को
पदार्थ
१. प्रजा कहती हैं कि इदं हवि: हमारे द्वारा दान व कर-रूप में दिया हुआ यह धन (यातुधानान्) = पौड़ा का आधान करनेवाले लोगों को (आवहत) = उसी प्रकार बहा ले-जाए (इव) = जैसेकि (नदी फेनम्) = नदी झाग को बहा ले-जाती है, अर्थात् इस धन का प्रयोग मार्ग-भ्रष्ट लोगों में जान प्रसार के लिए किया जाए, जिससे वे परिष्कृत जीवनवाले बन जाएँ और समाज में यातुधानों का अभाव ही हो जाए। २. यह ज्ञान-प्रसार का कार्य इसप्रकार हो कि (यः पुमान्) = जो भी पुरुष अथवा (स्त्री) = स्त्री (इह) = यहाँ (इह अक:) = इस समाज को पीड़ित करने का कार्य करता था (सःजन:) = वह मनुष्य इस कार्य से पराङ्मुख होकर अब इस प्रचारक की (स्तुवताम्) = स्तुति करनेवाला हो जाए। वह अनुभव करे कि इस ज्ञानदाता अग्नि ने मार्ग-दर्शन करके हमारा वस्तुत: कल्याण किया है।
भावार्थ
प्रजा की आर्थिक सहायता से ज्ञान-प्रसार के द्वारा समाज से यातुधानों का विलोप हो जाए।
भाषार्थ
(इदम् हविः) यह हविः (यातुधानान्) यातना के निधियों, यातना के पोषकों को (इह) यहाँ, अर्थात् हमारे पास (आ वहत्) लाई है, ( इव ) जैसे (नदी फेनम्) नदी फेन अर्थात् झाग को लाती है। (यः) जिस (स्त्री पुमान् अक:) स्त्री या पुरुष ने (इदम्) यह अभिचार कर्म किया है, (सः) वह (जनः) जन (इह) यहाँ (स्तुवताम्) कह दे।
टिप्पणी
[शत्रुजन ने यज्ञ द्वारा यातुधानों को हमारे पास भेजा है, उसको निजस्वरूप के कथन करने के लिए कहा है। यातुधान भी यज्ञ विधि का अवलम्बन कर अभिचारकर्म करते हैं। यातुधानान् = यातु+धान (धा धारणपोषणयोः जुहोत्यादिः), पोषण अर्थ अभिप्रेत है। यातु=यातना।]
विषय
प्रजापीड़कों के नाश करने का उपाय
भावार्थ
( नदी फेनम् इव ) जिस प्रकार नदी फेन या झाग को ( आ वहत् ) बहा ले आती है उसी प्रकार ( इदं हविः ) यह राजकर या प्रजा की राजा के प्रति पुकार, या प्रजा द्वारा दिया गया दान ( यातुधानान् आ वहत् ) प्रजा के पीड़क लोगों को मानो बहा कर राष्ट्र में ले आवे ( स्त्री वा पुमान् वा यः इदं अकः ) जिस भी नर या नारीने इस प्रजा पीड़न रूपी बुरे कर्म को किया हो (स) वह ( जनः ) नर या नारी जन (स्तुवतां) अब अपने सन्मार्ग प्रवर्तकों की स्तुति करें, प्रशंसा करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
चातन ऋषिः । १, २ बृहस्पतिरग्निषोमौ च देवताः । ३, ४ अग्निर्देवता । १-३ अनुष्टुभः। ४, बार्हतगर्भा त्रिष्टुप् । चतुर्ऋचं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Elimination of the Evil
Meaning
Let this havi, holy submission (of relevant material, investigation report, etc., in the yajnic social management and administration), bring up the saboteurs to book like a rushing stream that brings up the foam, and whoever the man or woman that has committed the foul act must come up here and respestfully present his or her explanation of the case to the ruling authority.
Translation
May this sacrifice bring the deceits here as a river brings the foam. What-so-ever woman or man has been committing such frauds, let she or he confess it.
Translation
This tax paid to king brings theevil-doers and the river carries foam with its current. Who soever person, man or woman commit fault must acknowledge it.
Translation
Just as a stream carries foam from one place to the other, so should the tax paid, enable the Government to bring under control those who afflict others. Here let the doer of this misdeed, male or female praise the reformer, who has shown him the right path.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−इदम्। प्रस्तुतं, क्रियमाणम्। हविः। १।४।३। दानम्। भक्तिः। आवाहनम्। यातु-धानान्। १।७।१। पीडाप्रदान् राक्षसान्। नदी। नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः। पा० ३।१।१३४। इति णद ध्वनौ-पचाद्यच्। गणे नदट् इति पाठात् टित्त्वात्-ङीप्। नदति प्रवाहवेगेन शब्दायत इति। नद्यः कस्मात् नदना भवन्ति शब्दवत्यः−निरु० २।२४। नदनशीला, सरित्, तरङ्गिणी। फेनम्। फेनमीनौ। उ० ३।३। इति स्फायी वृद्धौ-नक्, फेशब्दादेशः। स्फायते वर्धते स फेनः। हिण्डीरम्, समुद्रफेनम्। आ+वहत्। वह प्रापणे-लेट्। आनयेत्। स्त्री। स्त्यायतेर्ड्रट्। उ० ४।१६६। इति स्त्यै संहतौ, ध्वनौ−ड्रट्, ङीप्। स्त्यायति शब्दयति गृहृणाति वा गुणान् सा। यद्वा, ष्टुञ् स्तुतौ-ड्रट्। ङीप्। स्तौति गुणान् वा स्तूयते सा स्त्री। नारी। पुमान्। पातेर्डुमसुन्। उ० ४।१७८। इति पा रक्षणे डुमसुन्। डित्वात् टिलोपः। पातीति पुमान् मनुष्यः, पुरुषः। अकः। डुकृञ् करणे-लुङ्। हल्ङ्याब्भ्यो दीर्घात्०। पा० ६।१।६८। इति ति इत्यस्य इकारलोपे तलोपः। अकार्षीत्। स्तुवताम्। ष्टुञ् स्तुतौ-लोट्। छन्दसि शः। स्तुतिं करोतु। जनः। जनी प्रादुर्भावे, वा जन जनने-अच्। जायते जनयति वा स जनः। लोकः ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(ইদং) এই (হবিঃ) ভক্ত (য়াতুধানান্) রাক্ষসদিগকে (আবহৎ) লইয়া আসুক (ইব) যেমন (নদী) নদী (ফেনম্) ফেনাকে। (য়ঃ) যে কোন (পুমান) পুরুষ (স্ত্রী) বা স্ত্রী (ইদং) ইহা (অকঃ) করিয়াছে (সঃ জনঃ) সে ব্যক্তি (ইহ) এখানে (দ্ভবতাং) স্তুতি করুক।।
भावार्थ
প্রজাদের আহ্বানে নদী যেমন ফেনাকে তদ্রুপ রাজা দুষ্টদিগকে সন্ধান করিয়া লইয়া আসুক। যে কোন পুরুষ বা স্ত্রী যে পাপ করিয়াছে সে রাজার নিকট আসিয়া স্বীয় দোষ স্বীকার করিয়া রাজার স্তুতি করুক।।
मन्त्र (बांग्ला)
ইদং হবির্য্যতুধানান্ নদী কেন মিবা বহৎ। য় ইদং স্ত্রী পুমান করিহ স স্তুবতাং জনঃ।
ऋषि | देवता | छन्द
চাতনঃ। বৃহস্পতিরগ্নীষোমৌ চ। অনুষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(সেনাপতিলক্ষণানি) সেনাপতির লক্ষণ
भाषार्थ
(ইদম্) এই (হবিঃ) [আমাদের] ভক্তি (যাতুধানান্) রাক্ষসদের (আবহৎ) নিয়ে আসবে/আসুক, (ইব) যেভাবে (নদী) নদী (ফেনম্) ফেনা নিয়ে আসে। (যঃ) যে (পুমান্) মনুষ্য অথবা (স্ত্রী) স্ত্রী (ইদম্) এই [পাপকর্ম] (অকঃ) করেছে (সঃ জনঃ) সেই পুরুষ (স্তুবতাম্) [তোমার] স্তুতি করে ॥১॥
भावार्थ
প্রজার ডাক/আহ্বান শুনে যখন রাজা দুষ্টদের বন্দি করে, অপরাধী স্ত্রী ও পুরুষ নিজ-নিজ অপরাধ স্বীকার করে নেয় এবং সেই প্রতাপশালী রাজার স্তুতি করে ॥১॥ (স্ত্রী) শব্দের অর্থ সংগ্রহকারী বা স্তুতিযোগ্য এবং [পুমান্] এর অর্থ রক্ষক বা পুরুষার্থী।
भाषार्थ
(ইদম্ হবিঃ) এই হবিঃ (যাতুধানান্) যাতনার নিধিদের, যাতনার পোষকদের (ইহ) এখানে, অর্থাৎ আমাদের কাছে (আ বহৎ) নিয়ে এসেছে, (ইব) যেমন (নদী ফেনম্) নদী ফেনা নিয়ে আসে। (যঃ) যে (স্ত্রী পুমান্ অকঃ) স্ত্রী বা পুরুষ (ইদম্) এই অভিচার/অপরাধ/অনিষ্ট/দুষ্ট কর্ম করেছে, (সঃ) সেই (জনঃ) জন (ইহ) এখানে (স্তুবতাম্) বলুক।
टिप्पणी
[শত্রুরা যজ্ঞ দ্বারা যাতুধানদের আমাদের কাছে পাঠিয়েছে/প্রেরণ করেছে, তাঁদের নিজস্বরূপের কথন করার জন্য বলেছে। যাতুধানও যজ্ঞ বিধির অবলম্বন করে অভিচারকর্ম করে। যাতুধানান্ = যাতু+ধান (ধা ধারণপোষণয়োঃ জুহোত্যাদিঃ), পোষণ অর্থ অভিপ্রেত হয়েছে। যাতু=যাতনা।]
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