अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
ऋषिः - कौरुपथिः
देवता - अध्यात्मम्, मन्युः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
1
यन्म॒न्युर्जा॒यामाव॑हत्संक॒ल्पस्य॑ गृ॒हादधि॑। क आ॑सं॒ जन्याः॒ के व॒राः क उ॑ ज्येष्ठव॒रोभ॑वत् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । म॒न्यु: । जा॒याम् । आ॒ऽअव॑हत् । स॒म्ऽक॒ल्पस्य॑ । गृ॒हात् । अधि॑ । के । आ॒स॒न् । जन्या॑: । के । व॒रा: । क: । ऊं॒ इति॑ । ज्ये॒ष्ठ॒ऽव॒र: । अ॒भ॒व॒त् ॥१०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यन्मन्युर्जायामावहत्संकल्पस्य गृहादधि। क आसं जन्याः के वराः क उ ज्येष्ठवरोभवत् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । मन्यु: । जायाम् । आऽअवहत् । सम्ऽकल्पस्य । गृहात् । अधि । के । आसन् । जन्या: । के । वरा: । क: । ऊं इति । ज्येष्ठऽवर: । अभवत् ॥१०.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
सब जगत् के कारण परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(यत्) जब (मन्युः) सर्वज्ञ [परमेश्वर] (जायाम्) सृष्टि की क्रिया को (संकल्पस्य) सङ्कल्प [मनोविचार] के (गृहात्) ग्रहण [स्वीकार करने] से (अधि) अधिकारपूर्वक (आवहत्) सब ओर लाया [प्रकट किया]। (के) कौन (जन्याः) उत्पत्ति में साधक [योग्य] पदार्थ और (के) कौन (वराः) वर [वरणीय, इष्टफल] (आसन्) थे, (कः उ) कौन ही (ज्येष्ठवरः) सर्वोत्तम वरों [इष्टफलों] का देनेवाला (अभवत्) हुआ ॥१॥
भावार्थ
जब ईश्वर ने सृष्टि को रचना चाहा, तब यह प्रश्न उत्पन्न हुए−किन पदार्थों से सृष्टि की जावे, किस प्रयोजन के लिये वह होवे, और कौन उसका स्वामी हो। इस का उत्तर आगे है ॥१॥
टिप्पणी
१−(यत्) यदा (मन्युः) अ० १।१०।१। यजिमनिशुन्धि०। उ० ३।२०। मन ज्ञाने-युच्। सर्वज्ञः परमेश्वरः (जायाम्) जनेर्यक्। उ० ४।१११। जन जनने-यक्। जायतेऽस्यां सर्वं जगदिति जाया तां सृष्टिक्रियाम् (आवहत्) समन्तात् प्रापयत्। प्रकटीकृतवान् (सङ्कल्पस्य) मनोविचारस्य (गृहात्) गृह ग्रहणे क। ग्रहणात्। स्वीकरणात् (अधि) अधिकारपूर्वकम् (आसन्) अभवन् (जन्याः) तत्र साधुः। पा० ४।४।९८। जन-यत्। जने जनने, उत्पादने, साधका योग्याः पदार्थाः (के) (वराः) वरणीया इष्टपदार्थाः (कः) (उ) एव (ज्येष्ठवरः) ज्येष्ठाः सर्वोत्कृष्टा वरा वरणीयपदार्था यस्मात् सः ॥
विषय
मन्यु का जाया आवहन
पदार्थ
१. स्वमहिम प्रतिष्ठ परब्रह्म की और सत्त्वरजस्तमोगुणात्मिका मायाशक्ति [प्रकृति] की कर्मपरिपाक जनित सम्बन्ध के कारण उत्पन्न होनेवाली जो परमेश्वर-सम्बन्धी सिसृक्षावस्था है, उसी का यहाँ लौकिक विवाह के रूप में निरूपण करते हैं। (यत्) = जब (मन्युः) = [मन्यते सर्व जानाति-सा०] सर्वज्ञ प्रभु (जायाम् आवहत्) = [जायते अस्या सर्व जगत्-सा०] सिसूक्षाबस्थापन्न पारमेश्वरी मायाशक्ति को भार्यारूप से स्वीकार करनेवाला हुआ तो वह इस जाया को (संकल्पस्य गृहात् अधि) = [सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेय-तै० आ०८।६।१] संकल्प के घर से लाया। संकल्प से ही इस सिसृक्षावस्थारूप जाया की उत्पत्ति हुई। २. उस समय उस जाया के आवहन के प्रसंग में (के जन्याः असन्) = कौन जायापक्ष के लोग थे। (के वरा:) = कौन वरपक्ष के लोग थे। (च) = और (क:) = कौन (ज्येष्ठवर: अभवत्) = विवाह करनेवाला प्रधानभूत वर हुआ।
भावार्थ
प्रभु के संकल्प से सिसृक्षावस्था की उत्पत्ति हुई। इसके होने पर ही प्रभु ने इस विविध सृष्टि को प्रादुर्भूत किया।
भाषार्थ
(यत्) जब (मन्युः) मननशील परमेश्वर ने (संकल्पस्य गृहात् अधि) संकल्परूपी घर से (जायाम्) जाया को (आवहत्) प्राप्त किया, तब, (जन्याः) जायापक्ष के लोग (के आसन्) कौन थे, (के वराः) वर पक्ष के कौन थे, (क उ) और कौन (ज्येष्ठवरः) मुखिया वर, अर्थात् जिस ने वरण करना है (अभवत्) हुआ था।
टिप्पणी
[प्रथम मनन, तदनन्तर वस्तु को प्राप्त करने का संकल्प, और तत्पश्चात् वस्तु को प्राप्त करने का कर्म अर्थात् प्रयत्न होता है,-यह नियम सर्वत्र लागू होता है। "मन्यु" शब्द द्वारा, जाया प्राप्त करने से पूर्व, परमेश्वरीय मनन का निर्देश किया है। यह मनन आलोचनारूप है कि सृष्टि को पैदा करू तो किस प्रकार, किस काल, और किस क्रम से करूं। इस मानुष स्वभाव का आरोप, परमेश्वर के सृष्ट्युत्पादन में, परमेश्वर में किया गया है। “संकल्पस्य गृहात्" में षष्ठी विकल्प रूप हैं। संकल्प-और-गृह भिन्न-भिन्न नहीं। यद्यपि अस्मदादि में संकल्प का घर "मन" होता है। तभी कहा है "तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु" (यजु० ३४।१-६)। मन्युः = मन्यते सर्व जानातीति, ईश्वरः (सायण)। संकल्पस्य = "सोऽकामयत१" (बृहद् उप० ९।४-७) द्वारा परमेश्वर में भी कामना की सत्ता का कथन हुआ है। यही कामना जब फलोन्मुखी हो जाती है तो इसे संकल्प कहते है। परमेश्वरनिष्ठ कामना सदा संकल्प रूपी होती है, वह सदा फलोन्मुखी होती है। अस्मदादि की कामना सदा फलोन्मुखी नहीं होती। इस लिये अस्मदादि की कामना और संकल्प में भेद पाया जाता है। विवाह में कई लोग तो जनी-पक्ष के होते हैं, और कई वर पक्ष के। वर-पक्ष के लोग कन्या का वरण करते हैं, चुनाव करते हैं, अतः मन्त्र में उन सब को "वरा" कहा है। परन्तु अन्तिम चुनाव जिसने करना है उसे "ज्येष्ठवरः” कहा है, और वह है जिस ने कि कन्या को विवाहित कर प्राप्त करना है। आवहत्= आ+वह (प्रापणे)] [१. "सोऽकामयत् बहु स्मां प्रजायेय' (तै० आ० ८।६।१)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Constitution of Man
Meaning
When Manyu, Supreme Divinity’s thoughful love of creativity, bore, that is, objectified and manifested, Prakrti, Its consort, from the house of Sankalpa, Its will and resolution to create, then who were the co-mates of Prakrti? And who were the friends of Manyu, divine ardour of cosmic creativity? And who was the chief of the occasion, the bridegroom?
Subject
Mystic : especially on the constitution of man.
Translation
When fury (manyu) brought his wife away from the house of contrivance (samkalpa), who were the groomsmen (janya) ? Who the wooers (vara)? Who also was chief wooer ?
Translation
When ardour (the most powerful heat and motion) brings the material cause (Jayam) producing all from the abode of resolution (Divinity) what were there other cause by the side of material cause what were the covering causes by the side of this Ardour and what was the chief cause to cover all the activities.
Translation
When God, through the force of His resolve, created the universe with His authority, what were the objects with which it was created? What was the aim or purpose in its creation? Who was its chief creator?
Footnote
Just as a bridegroom marries the bride from the house of his father-in-law, so does God create the universe out of His resolve.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(यत्) यदा (मन्युः) अ० १।१०।१। यजिमनिशुन्धि०। उ० ३।२०। मन ज्ञाने-युच्। सर्वज्ञः परमेश्वरः (जायाम्) जनेर्यक्। उ० ४।१११। जन जनने-यक्। जायतेऽस्यां सर्वं जगदिति जाया तां सृष्टिक्रियाम् (आवहत्) समन्तात् प्रापयत्। प्रकटीकृतवान् (सङ्कल्पस्य) मनोविचारस्य (गृहात्) गृह ग्रहणे क। ग्रहणात्। स्वीकरणात् (अधि) अधिकारपूर्वकम् (आसन्) अभवन् (जन्याः) तत्र साधुः। पा० ४।४।९८। जन-यत्। जने जनने, उत्पादने, साधका योग्याः पदार्थाः (के) (वराः) वरणीया इष्टपदार्थाः (कः) (उ) एव (ज्येष्ठवरः) ज्येष्ठाः सर्वोत्कृष्टा वरा वरणीयपदार्था यस्मात् सः ॥
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